देव भूमि का बैरासकुण्ड: जहां रावण ने मुण्डों की आहूति देकर ब्रह्मा जी को रिझाया था

Pahado Ki Goonj

उत्तराखण्ड के जिस स्थान पर रावण ने मुण्डों की आहूति देकर पितामह ब्रह्मा को रिझाया था, उस स्थान का नाम है- बैरासकुण्ड. यह स्थान जनपद चमोली के परगना दशोली के अन्तर्गत नन्दप्रयाग से 10 किलोमीटर की चढ़ाई पर है. बैरासकुण्ड शब्द का उल्लेख पुराणों में कहीं भी नहीं हुआ है. किन्तु इसके अस्तित्व के सन्दर्भ कहीं न कहीं अवश्य मिलते हैं. इसलिये आज यह तीर्थ स्थल शोध का विषय बना हुआ है।
बैरास शब्द हिन्दी शब्दकोष में भी नहीं मिलता. इसके आगे “कुण्ड’ शब्द जुड़ने से “बैरासकुण्ड” शब्द बना है. सन्धि विच्छेद करने पर इसका विलक्षण अर्थ निकलता है. वैर+आश्र+कुण्ड इन तीन शब्दों के मेल से “वैरासकुण्ड’ शब्द बनता है. वैर शब्द वैरभाव या शत्रुभव का बोधक है. आश्र का अर्थ अश्रु और कुण्ड का अर्थ छोटा तालाब, जलाशय या हवन के लिये खोदा गया गढ़ा होता है. “कुण्ड’ शिव का भी एक नाम है. इस प्रकार वैरासकुण्ड का शाब्दिक अर्थ हुआ- “जहाँ वैरियों के अश्रुपात से जलाशय बन गया था. अथवा जहाँ हवन की अग्नि स्थापना के लिये गढ़ा खोदा गया था.

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यह स्थान वैदिक काल से ही ऋषि-मुनियों की तपस्थली रहा है. काम-क्रोध-मद-लोभ-मोह ये ही तपस्वी के वैरी या शत्रु होते हैं. जब तक इनका भौतिक शरीर से सम्बन्ध रहता है, तब तक तपस्या में सफलता मिलने की सम्भावना कम रहती है. एक बार अरुन्धती सहित महर्षि वसिष्ठ इस क्षेत्र में तपस्या के लिये यहाँ आये. उन्होंने हवन की अग्नि स्थापना हेतु यहाँ यज्ञ कुण्ड खोदा और इसमें तपस्या के प्रथम शत्रुओं की आहूति दे दी. अपने को निराश्रित पाकर इन आसुरी वृतियों ने अश्रुपात कर दिया. उनके अश्रुओं से यज्ञ कुण्ड जलाशय में बदल गया. तब से यह अग्निकुण्ड “वैरासकुण्ड” कहलाने लगा.

महर्षि वसिष्ठ ने एक सहस्त्र दिव्य वर्षों तक इस स्थान में तपस्या की. भगवान शंकर ने इन्हें वशिष्ठेश्वर लिंग के रूप में दर्शन दिये. इसी वसिष्ठेश्वर नाम से ये यहाँ स्थिर हो गये. तब से भगवान शंकर यहाँ वसिष्ठेश्वर शिव लिंग के नाम से सेवित-पूजित हैं. स्कन्धपुराण के अंर्तगत, केदारखण्ड अध्याय 58 श्लोक 5-6 में वैरासकुण्ड तीर्थ स्थल की स्थिति तथा माहात्म्य में वसिष्ठेश्वर लिंग का वर्णन मिलता है. महर्षि वसिष्ठ अरुन्धती से स्वयं कहते हैं कि नन्दप्रयाग में भगवान विष्णु लक्ष्मी नारायण रूप में स्थित हैं और इन्हीं की सन्निधि में एक योजन की दूरी पर वसिष्ठेश्वर लिंग की स्थिति है:

तत्र सन्निहितो विष्णुर्मया सहशिवेन च.
ततो योजनके देवि शिवलिंगम सुदुर्जभम..
वसिष्ठेशो महादेवो मया संराधितः पुरा.
तत्र प्राणव्यपायेन शिवो भवति निश्चितम्..

दशग्रीव रावण ने इस स्थान पर 10 हजार दिव्य वर्षों तक घोर तपस्या की थी. वाल्मीकि रामायण उत्तर काण्ड सर्ग 10 श्लोक 9-17 में उल्लेख हुआ है कि नन्दन वन में निवास करते हुए रावण और कुम्भकरण ने घोर तपस्या की. प्रति एक हजार वर्ष पूर्ण होने पर रावण ने अपना एक सिर अग्निकुण्ड में हवन किया. इस प्रकार उसने 9 सिर अग्निकुण्ड में हवन कर दिये. दस हजार वर्ष पूर्ण होने पर ज्योंही वह अपना दसवाँ सिर काटने को हुआ, उसी समय ब्रह्मा जी प्रकट हो गये और रावण से वर मांगने को कहा.

रावण ने “अमर” होने का वर मांगा. परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा कि तुम सभी प्राणियों से अवध्य नहीं हो सकते, तुम्हें कोई अन्य वर मांगना चाहिए. रावण ने गरूड़, नाग, यक्ष, दैत्य-दानव, राक्षस व देवताओं से अवध्य होने का वर मांगा. ब्रह्मा जी ने तथास्तु कहकर सभी सिर पुनः उगने तथा मनचाहा रूप धारण करने का भी वर दे दिया (वारा उत्तर काण्ड सर्ग 10 श्लोक 24-25). सर्ग 11 श्लोक 25-51 में यह भी उल्लेख है कि रावण ने अपने मंत्री प्रहस्त की सलाह पर अपने भाई कुबेर से लंका का राज्य भी छीन लिया था.

दशवग्री रावण द्वारा वैरासकुण्ड क्षेत्र में तपस्या करने की पुष्टि में अनेक भौतिक साक्ष्यों के प्रमाण प्रस्तुत किये जा सकते हैं. वैरासकुण्ड मुख्य मन्दिर से लगभग 100 मीटर की दूरी पर रावण की तपस्थली बतलाई जाती है. यहाँ एक चौरस पत्थर है, जिसमें आराम से बैठा जा सकता है. इस पत्थर पर छिद्र भी देखने को मिलते हैं. लगभग 10 छिद्र वर्तमान में मौजूद हैं. अनुमान है कि इस पत्थर को चौड़ा एवं चौरस करने का प्रयास किया गया था. वर्तमान में इसके निकट हनुमान जी का मन्दिर बनाया गया है. अन्य भौतिक साक्ष्यों में क्वेलाख नामक स्थान महत्वपूर्ण है.

कहा जाता है कि रावण प्रतिदिन के नित्यकर्म के लिये नया कुआँ खोदकर पानी लाता था. इस कारण यहाँ पर कई लाख कुएँ हो गये. जिससे उस स्थान का नाम “कई लाख कुआँ’ पड़ गया. बाद में यह शब्द टूटकर “क्वैलाख’ कहा जाने लगा. कालान्तर में मन्दिर और क्वैलाख के बीच बरसाती पानी के बढ़ जाने से खाई एवं नालियाँ बन गयी जिस कारण मन्दिर और क्वैलाख की दूरी बढ़ गयी . मन्दिर के चारों ओर भी चार कुएँ हैं. जिनमें नागकुण्डी, भोगजल कुण्डी, अभिषेक जल कुण्डी तथा वैरासकुण्ड मुख्य हैं।

ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त कर रावण उदण्डता करने लगा था. उसने नन्दन वन को उजाड़-विजाड़ करना आरम्भ कर दिया था. नन्दन वन हिमालय क्षेत्र का वह भूभाग है जो उत्तराखण्ड के नाम से विख्यात है, जहाँ कुमाऊँ-गढ़वाल के लोग बसे हुए हैं. जहाँ 8 हजार फिट की ऊँचाई से लेकर 16 हजार फिट की ऊँचाई तक नाना प्रकार के वन उपवनों में हिमालयी सौगंधिक फूल खिलते हैं. रावण के भाई कुवेर ने उसे समझाने के लिये अपना दूत लंका भेजा परन्तु वह भाई की बात मानने के बजाय आगबबूला बनकर कुवेर पर चढ़ाई करने अलकापुरी पहुँच गया और अपने भाई को परास्त कर पुष्पक विमान में बैठा, कैलास शिखर पर पहुँच गया.

वाल्मीकि रामायण उत्तरकाण्ड सर्ग 15/37-38 में उल्लेख है कि कैलास के सरपत (मूंज) वन में जाकर उसके विमान की गति रूक गयी. कैलासपति शिव के दूतों ने, उसे जागकर बतलाया कि यह क्षेत्र भगवान शंकर की क्रीडास्थली है, यहाँ विमान गतिमान नहीं हो सकता. तुम वापस लौट जाओ. परन्तु रावण अभिमानी था. उसका उत्तर था- “कौन है वह शंकर? क्या शंकर यह नहीं जानता कि उसके आगे भी भय उपस्थित है. ऐसा कहते हुए उसने कैलास पर्वत को अपने हाथों में उठा लिया. कैलास डोलने से पार्वती घबराने लगी. भगवान शंकर ने बायें पैर के अंगूठे से पर्वत को दबा लिया. रावण जोर-जोर से चिल्लाने लगा. तीनों लोक कांप उठे. मंत्रियों की सलाह पर रावण अनेक स्तोत्र पाठों से स्तुति करने लगा. रावण को रोते-रोते एक हजार वर्ष बीत गये।
उसकी स्तुति सुनकर भगवान आशुतोष प्रसन्न हो गये. उन्होंने रावण को मुक्त कर दिया और कहा कि तुम्हारे भारी रूदन के कारण तीनों लोक भयभीत हुआ है. अतः आज से तुम तीनों लोकों में “रावण’ नाम से विख्यात होंगे.

कैलासक्रान्तेन यो मुक्तस्त्वया रावः सुदारुणः.
यस्मालोकत्रयं चैतदावितं भयभागतम् ..
तस्मात्वं रावणो नाम्ना राजन भविष्यसि .
देवता मानुषा यक्षा ये चान्ये जगतीतले .

रावण की चाहना पर भगवान शंकर ने उसे चन्द्रहास तलवार और शेष आयु भी देदी. शिव की महिमा तो रावण समझ ही चुका था. परन्तु अब शिव के प्रति उसमें अपार श्रद्धा और भक्ति जाग उठी थी. वह शिव को लंका में लाने की इच्छा से वैरासकुण्ड के मार्ग से ही दूसरी बार कैलास पहुंचा था. शिव महापुराण कोटिरूद्र संहिता अध्याय 28 में इस बात का उल्लेख है कि कैलास पहुँच कर रावण ने सबसे पहले यज्ञ कुण्ड खोदा. शिव आराधना के समय उसने तप एवं नित्य प्रति यज्ञ किया. शिव दर्शन की प्राप्ति के लिये उसने अंगुलियों की वीणा बनाकर उस पर अन्तड़ियों के तार चढाये और शिव को रिझाया. प्रत्येक सौ वर्ष बीतने पर उसने अपना एक सिर यज्ञकुण्ड में हवन किया. भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर उसे दर्शन दिये.

रावण ने शिव से लंका पधारने का आग्रह किया. शिव ने ज्योतिर्लिंग में प्रकट होकर रावण की प्रार्थना स्वीकार की और ज्योतिर्लिंग को लंका ले जाने की सलाह दी. साथ ही चेतावनी भी दी कि – मार्ग में इसे कहीं विश्राम न देना अन्यथा इसे आगे नहीं ले जा पाओगे. मार्ग में रावण को लघुशौच की तेज शंका हुई. उसने शिवलिंग को एक ग्वाले के हाथ थमा दिया. वह अधिक देर तक नहीं थाम सका. रावण ने लिंग को पूरी शक्ति से उठाना चाहा परन्तु वह स्थिर हो चुका था. यही शिवलिंग वैद्यनाथ शिवलिंग के नाम से पुराण प्रसिद्ध हुआ. यह स्थान पटना-कलकत्ता रेलवे मार्ग पर किउल स्टेशन से 100 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व की ओर देवधर के पास चिताभूमि में स्थित है. कुछ विद्वानों का कहना है कि वैद्यनाथ शिवलिंग हैदराबाद दकन के परली ग्राम में है।

बैरासकुंड रावण की तपस्थली होने से यह सम्पूर्ण क्षेत्र दशमौलिंगढ़ कहलाया. वर्तमान में यह क्षेत्र जनपद चमोली में पट्टी दशोली के नाम से प्रसिद्ध है. दशमौलिंगढ़ में ही रावण ने अपने राज्य की उत्तरी सीमा निर्धारित कर चौकी स्थापित की थी. जहाँ की सुरक्षा का दायित्व पहले ताड़का के पास था और बाद में सूर्पणखा और खर-दूषण के पास आया था.

बैरासकुण्ड तीर्थ यात्रा के लिये एक मार्ग नन्द प्रयाग कस्बे से होकर जाता है. लगभग 10 किलोमीटर की चढ़ाई पार करनी पड़ती है. दूसरा मार्ग ग्राम थिरपाक-गण्डासू होकर जाता है. इस मार्ग से 7 किलोमीटर की चढाई तय करनी पड़ती है. समुद्रतल से इस स्थान की ऊँचाई लगभग 6500 फिट है. इसके पृष्ठ भाग में स्थित पंचजूनी पर्वत एवं उसकी शाखा देवांग्नी की ऊँचाई लगभग 8000 से 10,000 फिट है.

देवांग्नी पर्वत पर वनदेवियों, ऐड़ी-आच्छरी आदि वन देवताओं का निवास माना जाता है. घोर वन प्रान्तों से घिरा हुआ यह पर्वत शिखर नैसर्गिक छटा और प्राकृतिक वैभव को संजोये हुए हैं. जंगल की तलहटी में यहाँ एक जोगीमढ़ी है जो आज खण्डहर के रूप में भूतकाल का इतिहास दोहराता है. इसी के नीचे पगनों गाँव है. पंचजूनी वीहड जंगल होने से स्थानीय लोग उस क्षेत्र में कम ही जाते हैं शीतकाल में सम्पूर्ण क्षेत्र हिमाच्छादित रहता है.

बैरासकुण्ड में वसिष्ठेश्वर महादेव मन्दिर का निर्माण शास्त्रीय विधि से हुआ है. खान से पत्थर निकालकर उसी रूप में मन्दिर पर लगाये गये हैं. मन्दिर के पत्थरों पर होने वाली क्षरण क्रिया (Eroson) से ज्ञात होता है कि इस मन्दिर का निर्माण ईसा की छठी-सातवीं शताब्दी से पूर्व हुआ है. मन्दिर निर्माण से पूर्व वसिष्ठेश्वर लिंग खुले व्योम के नीचे दिगम्बर भेष में रहा होगा. सतयुग-त्रेता में, वैसे भी, देवतागण प्रत्यक्ष दर्शन देते थे. पूजा आदि सम्पन्न करने हेतु मन्दिर निर्माण की आवश्यकता ही नहीं थी.

मन्दिर का मुख्य द्वार दक्षिण दिशा की ओर है. जिसके ईशान कोण में नारायण एवं वीरभद्र प्रतिष्ठापित हैं. आग्नेय कोण में भगवती दुर्गा (पार्वती) और नैऋत्य कोण में विघ्नविनाशक गणेश तथा वरूण कलश प्रतिष्ठापित हैं. वायिव्य कोण में सूर्य आदि नवग्रहों की स्थापना हुई है. प्रवेश द्वार के सामने नन्दी वृष स्थापित है.

ईशान और आग्नेय दिशा के बीच सोमसूत्र के मध्य कटा हुआ शिवलिंग है. लिंग सूक्ष्म अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि धरती के भीतर होने वाली रासायनिक क्रिया के कारण अनेक धातुओं के मिश्रण से यह लिंग आकार में आया. इसी प्रकार रासायनिक क्रिया द्वारा शालिंगराम शिला भी स्वर्ण आदि धातुओं के मिश्रण से आकार में आते हैं.

उक्त कटे लिंग के साथ एक दन्त कथा भी जुड़ी हुई है. जनश्रुति है कि कहीं दूर से एक गाय आकर शिवलिंग के ऊपर दूग्धधार छोड़ती थी. एक दिन गाय का पीछा करते हुआ ग्वाला भी उस स्थान पर आया. उसने गाय के इस कृत्य को देख लिया. उसने कुल्हाड़ी मारकर लिंग को नष्ट करना चाहा. लिंग पर दरार पड़ी किन्तु वह नष्ट नहीं हुआ. अनुमान यह लगता है कि किसी अनुभवी व्यक्ति ने इस लिंग को शालिंगराम पत्थर या पारस पत्थर समझा. उसने इसे काट कर ले जाने का प्रयास किया. बाद में इस कृत्य ने दन्तकथा का रूप ले लिया.

मन्दिर के ठीक सामने लगभग 20 फिट की दूरी पर बैरासकुण्ड जलाशय है जो जल से आपूर्ण रहता है. जलाशय की लम्बाई लगभग 28 (18 हाथ) फिट और चौड़ाई लगभग 22.5 फिट (15 हाथ) होगी. बैरासकुण्ड के ईशान कोण में विरहवती और नैऋत्य कोण में नन्दाकिनी नदी बहती है. इसके मध्य में मणिभद्र सरोवर है, जहाँ से मणिभद्रा नदी निकलती है. इस स्थान पर एक वटवृक्ष है. स्थानीय लोग इस नदी को “भद्रा’ कहते हैं. अब इसका नाम “भनार गधेरा” हो गया है. केदार खण्ड में इसका आख्यान मिलता है

ततो दक्षिणतो भदे महाभदा नदीपरा.
तत्रैक चिन्हमारव्येयं ऋण स्वस्येन चेतसा..

इस तीर्थ में पूजा-अर्चना का विशेष महत्व बतलाया गया है. वसिष्ठेश्वर की पूजा करने से त्याग-वैराग्य-सदाचार-परोपकार एवं आत्मिक विकास आदि दैवी गुणों की समृद्धि होती है. दया-प्रेम-क्षमाशीलता, नगता एवं सेवाभाव जैसे गुणों का विकास होता है.

यहां मन्दिर में दैनिक भोग एवं पूजा का विधान है. इस व्यवस्था के लिये ग्राम पगनों, काण्डेई, मटई, वैरास, वगडी, सरतोली, पाणिगैर आदि मन्दिर के नाम लगे हैं. गांवों से, भोग-पूजा के लिये, नाली (आटा-चावल) आने की प्रथा है. पूर्व में कुछ अन्य गांवों से भी नाली-कटाली आने की प्रथा थी. पूजा अर्चना के लिये नैष्टिक ब्रह्मचारी की नियुक्ति का विधान है. वही यहाँ का महाधीश भी होता है. पूजारी की मृत्यु हो जाने पर उनकी इसी क्षेत्र में समाधि लगती हैं. यहाँ वर्तमान में 30 समाधियाँ अस्तित्व में हैं. विश्वास किया जा सकता है कि पुजारी परम्परा का सम्बन्ध लकुलीश शैव सम्प्रदाय से है, जो लिंग पूजक होते हैं.

वैष्टिक सन्यासी के अलावा स्थानीय ब्राह्मण पुजारी भी यात्रियों की पूजा सम्पन्न करवाते हैं. ब्राह्मण पुजारियों में नोटियाल, भट्ट, पुरोहित मुख्य हैं. इन्हें यहाँ हक-हकूक तथा दस्तूर मिलने की प्रथा है जिन्हें यजमानों की ओर से कृषि भूमि भी दान में मिली है.

अन्य स्थानीय देवताओं में यहाँ क्षेत्रपाल, भूम्याल, (दाणू देवता) आदि भी हैं. मन्दिर से कुछ ही दूरी पर “उलका देवी” का मन्दिर है. मन्दिर के गर्भ गृह में देवी की एक फुट ऊँची प्रस्तर मूर्ति है. जिसमें विशेष कला-कृति का अभाव है. यहाँ पुरोहित जाति के ब्राह्मण द्वारा उलका देवी की दैनिक पूजा होती है.

परगना दशोली के अन्तर्गत ग्राम सभा कोट-कण्डारा की सीमा पर पहाड़ियों से घिरे हए एक टीले पर “दशोली गढ़ी” है. समुद्रतल से यह स्थान लगभग 5 हजार फिट की ऊँचाई पर है. इसी स्थान पर दशोली गढ़ के राज परिवार की कुलदेवी भगवती नन्दा का मन्दिर था. जिसे दशमद्वार कहा जाता था. कालान्तर में ग्राम कण्डारा के निवासी नन्दा की शिलामूर्ति तथा मन्दिर के पत्थरों को उठाकर कण्डारा गाँव में ले आयें और द्यौल नामक स्थान पर स्थापित कर दिया.

गढ़ी के ही दूसरी ओर नाले के पार सोनधारियों नामक स्थान है, जहाँ दो जलधारायें (जौल मंगरी) थी. धाराओं के कटे पत्थर स्वर्ण मण्डित थे. जौल मंगरी के ही पली पार पहाड़ की तलहटी में गधेरे के दाहिने किनारे पर दक्षिण काली का मन्दिर है. गढ़-सामन्तों के शासनकाल में यहाँ प्रथम नवरात्रि पक्ष में नर बलि देने की प्रथा थी. दूसरी नवरात्रि पक्ष में दयोलीगढ़ में नन्दा देवी की पशु बलि से पूजा होती थी. नरबलि की प्रथा काफी लम्बे समय तक जारी रही. दर्शनार्थियों में से कोई भी व्यक्ति स्वयं आवेश में आकर काली के थान में सिर झुका देता था.

लगभग 150 वर्ष पूर्व ग्राम जंगास के किसी तांत्रिक ने काली की मूर्ति को उलटा गाद कर इस प्रथा को बन्द करा दिया और नयी मर्ति की स्थापना करवाने की सलाह दी. अब यहाँ पशुबलि द्वारा पूजा सम्पन्न होती है. मन्दिर के भीतर नवविजय, शील-सुशाल द्वारपालों की आदमकद मूर्तियाँ हैं, जिन्हें देखकर भय लगता है. रात्रि निवास के लिये यहाँ धर्मशाला तथा मिलन केन्द्र भवन है. परन्तु लोगों में भय व्याप्त रहने से यहाँ कोई ठहरता नहीं है.

यद्यपि दशमद्वार नाम से किसी तीर्थ स्थल का वर्णन पुराणों में नहीं मिलता तथापि कहा जा सकता है कि दशमौलि रावण ने जब तपस्या के उद्देश्य से उत्तराखण्ड हिमालय में प्रवेश किया तो इसी स्थान से होकर उसने वैरासकुण्ड जैसे तपस्या करने योग्य भूमि में प्रवेश किया था दशमोलिगढ़, जिसे आज दशोलीगढ़ कहा जाता है, में उसकी रक्षा के लिए सेना की टुकड़ी थी. वह स्वयं दक्षिण काली का उपासक था. इसलिये उसने यहाँ दक्षिणकाली की स्थापना की थी और नरबलि की प्रथा चलाई. शिव की आराधना के निमित्त कैलास गमन के समय भी, उसने इसी मार्ग का अनुगमन किया. इसलिये यह क्षेत्र दशमौलिद्वार या दशमद्वार कहलाया. राम काल तक भी उसकी सीमा सुरक्षा सेना यहाँ रही थी. वैरासकुण्ड में रात्रि निवास के लिये पर्याप्त स्थान है. यात्रियों की संख्या अधिक होने पर भी यहाँ भोजन-व्यवस्था तथा रात्रिविश्राम-व्यवस्था की कमी नहीं रहती है. यहाँ का प्राकृतिक सौन्दर्य अति रमणीय और आकर्षक है.

शिवराज सिंह रावत ‘निःसंग’ का यह लेख पुरवासी 2003 से साभार लिया गया है।

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