नैनीताल में देवताओं के गुरु वृहस्पति का वास है

Pahado Ki Goonj

देवताओं के गुरु वृहस्पति का वास है,जनपद नैनीताल के इस स्थान पर
समूचे विश्व में देवगुरु का अपने तरह का एक मात्र अनोखा दुर्लभ मंदिर –राजेन्द्रपन्त ‘रमाकान्त’।
ओखलकाड़ां।(नैनीताल)देवात्मा हिमालय के महत्व व उसकी महिमां का वर्णन अनन्त है यह पावन भूमि सनातन काल से तपस्पियों की तपस्या का केन्द्र रहा है ऋषि मुनियों ने ही नही बल्कि देवताओं ने भी इस पावन धरा पर तपस्या करके अपने कर्तव्य पथ को सवांरा है।कदम कदम पर देव मंदिरो की श्रृंखला यहां के कण कण में देवत्व का अहसास कराती है। प्राकृतिक सौदर्य की दृष्टि से भारत का ही नही अपितु विश्व का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र है यहां के पर्यटक एंव तीर्थ स्थलों का भ्रमण करते हुए जो आध्यात्मिक अनूभूति होती है वह अपने आप में अद्भुत है।पर्यटन की दृष्टि से ही नहीं बल्कि तीर्थाटन की दृष्टि से भी यह पावन भूमि महत्वपूर्ण है इसी कारण यहां का भ्रमण अन्य क्षेत्रों की अपेक्षा श्रेष्ठ एंव संतोष प्रदान करने वाला है ऐसे ही परम संतोष का पावन केन्द्र है देवगुरु बृहस्पति मन्दिर।     जनपद नैनीताल में स्थित देवगुरू का यह दरबार ऐसा मन भावन  स्थान है जहां पहुचते ही आत्मा दिव्य लोक का अनुभव करती है।समूचे विश्व में यह एक मात्र मन्दिर है जहां देवगुरु साक्षात् रुप से विराजमान माने  जाते है।देवताओं के गुरु वृहस्पति महाराज के इस पावन दरबार में मांगी गई मनौती सदा ही पूरी होती है ऐसा इनके भक्तों का अचल विश्वास है*जनपद नैनीताल के ओखलकांडा क्षेत्रं में स्थित देवगुरू वृहस्पति महाराज का यह एकमात्र मंदिर है जो समूचे हिमालयी भूभाग में परम पूज्यनीय है।इस मंदिर की महिमां के बारे में अनेकों दंतकथाएं प्रचलित है।कहा जाता है कि सत्युग में एक बार देवराज इन्द्र ब्रह्महत्या के पाप से घिर गये थे।इस पाप से व्यथित होकर  पाप की मुक्ति के उद्देश्य से वे यहां के वियावान जंगलों की गुफाओं में छिपकर तपस्या करने लगे उनके द्वारा अचानक गुपचुप तरीके से स्वर्गछोड़ देने के कारण समूचा स्वर्ग व वहां के देवता अपने राजा को न पाकर त्राहिमाम हो गये।काफी ढूढ़ खोज के बाद भी जब देवराज इन्द्र का पता नही चला तो सभी देवगण निराश होकर अपने गुरु बृहस्पति महाराज की शरण में गये तथा उन्होनें देवगुरु इन्द्र को खोजनें का अनुरोध किया देवताओं की विनती पर देवगुरु ने इन्द्र की खोज आरम्भ की खोजते खोजते वे धरती लोक में पहुचें एक गुफा में उन्होनें देवराज इन्द्र को भयग्रस्त अवस्था में व्याकुल देखा देवगुरू ने इन्द्र की व्याकुलता दूर कर उन्हें अभयत्व प्रदान कर वापिस भेज दिया तथा इस स्थान के सौदर्य व पर्वतों की रमणीकता देखकर वे मन्त्रमुग्ध हो इस स्थान पर तपस्या में बैठ गये तभी से यह स्थान पृथ्वी पर देवगुरु धाम के नाम से जगत में प्रसिद्व हुआ ।इस स्थान का महत्व संसार में अतुलनीय है क्योंकिं समूचे विश्व में यही एक ऐसा मंदिर है जहां देवताओं के गुरु साक्षात् रुप से विद्यमान है।देवगुरू के भक्तों के लिए यह स्थान परम पूज्यनीय है। भूमण्डल में यह देवगुरू का सर्वोच्च स्थान है दूर दराज इलाकों से यहां आकर इनके भक्त इन्हें श्रद्वापूर्वक शीष नवाते है।मान्यता है कि इस स्थान पर देवगुरू के प्रति की गई आराधना कभी भी निष्फल नहीं होती है। जो जिस कामना से यहां आता है उसकी मनोकामनां अवश्य पूरी होती है।
नागाधिराज हिमालय की रमणीक वादियों में ऊंचे पर्वत की चोटी पर इस देवालय में स्त्रियों का प्रवेश व उनकी पूजा अस्वीकार्य है।इस संदर्भ में यह दंतकथा लोक में काफी प्रसिद्ध है।कहा जाता है कि पहले यहां पूजा का दायित्व स्त्री सभांलती थी वर्ष पूर्व एक बार पुजारिन पूजा की तैयारियां करके देवगुरू जी को भोग लगानें के उद्देश्य से दूध की खीर बना रही थी।इसी बीच मौसम ने करवट ली खराव मौसम के चलते पुजारीन की अधीरता बढ़ती गई आनन फानन  जल्दबाजी में गर्म खीर पुजारिन ने देवगुरू को समर्पित कर दी खीर के पिण्डी में पड़ते ही पिण्डी फट गई कुपित देवगुरू ने उसी दिन से नाराज होकर स्त्रियों को पूजा के अधिकार के साथ साथ दर्शन के अधिकार से भी वंचित कर दिया तब से यहां स्त्रियों के लिए दर्शन व पूजन पर यहां प्रतिबन्ध है।तब से यहां पुजारी का दायित्व पुरुष वर्ग संभाले हुए है।कहते है कि इस घटन%

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