साइंटिफिक-एनालिसिस,लोकतंत्र में मुख्य न्यायाधीश की प्रतिष्ठा व गरिमा नहीं तो राष्ट्रपति की कैसे होगी

Pahado Ki Goonj

30 मई  पत्रकारिता दिवस  पर आयोजित समारोह विष्णु दत्त  उनियाल  स्मृति पुरस्कार ,सम्मान समारोह प्रारंभ किया जारहा है  राज्य में एक पत्रकार को  जूरी ने  चुना है  ।

 

साइंटिफिक-एनालिसिस

लोकतंत्र में मुख्य न्यायाधीश की प्रतिष्ठा व गरिमा नहीं तो राष्ट्रपति की कैसे होगी

नई संसद-भवन के उद्घाटन न कि राष्ट्र को समर्पित के साथ विवादों के काले वबंडर छाने लगे हैं। भारत की जनता को सबसे ज्यादा उम्मीद उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश से थी क्योंकि वो ही संविधान संरक्षक “राष्ट्रपति” को पद की प्रतिष्ठा, गरिमा, कर्तव्य, जवाबदेही व संविधान को बनाये रखने ही शपथ दिलाते हैं ।

अंग्रेजों से चली आ रही प्रथा के अनुरूप मुख्य न्यायाधीश उच्चतम न्यायालय के लम्बे ग्रीष्मकालीन अवकाश पर चल रहे हैं | इस कारण उन्होंने राष्ट्रपति पद की संवैधानिक प्रतिष्ठा व गरिमा पर ध्यान देना उचित नहीं समझा | आजादी के बाद अपने सिनियर रहे मुख्य न्यायाधीशों के एक आदमी की चिट्ठी व मीडिया में चल रहे सर्वाधिक राष्ट्रहीत के बवाल पर स्वत: संज्ञान लेने की परम्परा को जारी रखने में विश्वास नहीं दिखाया, शायद यह उनके निजी जीवन के आन्नद में उन्होंने कानूनी रूप से खलन माना हो ।

आजादी के बाद से लोकतंत्र के रूप में जनता की सरकार के अन्तर्गत वे आजतक अपने स्वयं के पद की गरिमा व प्रतिष्ठा नहीं बचा सके इसलिए उन्होंने जिनको शपथ दिलाई उसकी गरिमा, प्रतिष्ठा व मर्यादा बचाते यह बात बेइमानी लगती हैं | राष्ट्र हर वर्ष गणतंत्र दिवस बनाता हैं व अपने शहीदों को राष्ट्रीय सलामी देकर लम्बी प्रेड के रूप में दुनिया को अपनी ताकत व उन्नति की झलक दिखाता हैं । इस मंच पर राष्ट्रपति, विदेश से आये मेहमान व राष्ट्रपति से संवैधानिक पद की शपथ लिये उपराष्ट्रपति, लोकसभा स्पीकर व प्रधानमंत्री अपनी धर्मपत्नियों के साथ बैठते हैं । धर्मपत्नी को स्थान देना भारतीय धार्मिक सभ्यता व संस्कृति हैं जो महिलाओं को आदर देता हैं । यह रीवाज मानव प्रजाति के प्रारभ्य से हर धर्म, सम्प्रदाय में रहा हैं । यदि धर्मपत्नी का निधन हो गया हैं या संविधान के कानूनों के अन्तर्गत तलाक हो गया हैं तो अलग बात हैं ।

राष्ट्र के इस गौरवान्वित लोकतंत्र के पर्व पर उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश मंच से करीबन 15 फुट नीचे अपनी संविधान कुर्सी के साथ बैठाये जाते हैं व सभी धार्मिक रीति रिवाज, संस्कृति के वितरित जाकर आने वाले मेहमानों का स्वागत व
विदाई करते हैं जबकि शपथ दिलाने वाले / देने वालों का हाथ ऊपर रहता हैं। राष्ट्रपति भी पद की शपथ लेकर उन्हें हाथ जोड़ धन्यवाद करते हैं | आप रामायण, महामारय कालीन से अब तक पुरा धार्मिक एवं राजशाही वाला इतिहास उठाकर देख ले। विष्णु अवतार माने जाने वाले भगवान राम के दरबार में तो गुरू जो राज्याभिषेक करता था उसका सिहांसन सदैव उनके सिहांसन से ऊपर होता था। ऐसा धर्म के स़रक्षक साधु-संत अपनी कथाओं में बताते आये हैं ।

राजदंड सेंगोल के नाम पर धार्मिक कर्त्तव्यप्ररायणता की बात करनी हैं तो अधुरी नहीं करनी चाहिए व दिखने में भी वैसी होनी चाहिए। सेंगोल को प्रधानमंत्री वाले पद को देना व लोकसभा स्पीकर की कुर्सी के पास रखना भगवान शिव के नंदी के प्रतिक रूप में अन्याय करना व खिल्ली उडाने जैसा हैं। संवैधानिक रूप से तो राष्ट्रपति की कुर्सी सबसे बड़ी होती हैं तो उसे निचे वाले लोगों की कुर्सी के पास रखना क्या दर्शायेगा।

जब यह राजदंड नेहरू को दिया गया तब राजा महाराजाओं की अलग-अलग विरासतों एवं शासन को मीलाकर राष्ट्रीय एकीकरण का दौर था। यह उन्हें एक धार्मिक रूप से राजशाही सत्ता के विलय के प्रतीक में दिया था।

राजशाही कभी की खत्म हो गई अब इसे संग्रहालय से वापस लाकर सत्ता में रखना एक नये विवाद को जन्म देगी। इससे देश की अन्य विरासतें जो भारत के एकीकरण मे शामिल हुई वो भडकेगी और राज्यों में विभाजनों को दौर शुरु हो जायेगा।

राजघरानों के विलय में देश ने एकीकरण के नाम पर ब्रिटेन के शासन की अगुवाई में कानूनी रूप से एग्रीमेंट हुआ वो अब परेशानी पैदा करेगा । ये राजशाही विरासतें सवाल उठा सकती हैं कि हमने अपनी-अपनी सत्ता का विलय राष्ट्रीय एकीकरण के लिए करा न की किसी अन्य राजशाही सत्ता के अधीन रहने के लिए ….. इस विवाद को मुख्य न्यायाधीश अपनी कौनसी प्रतिष्ठा के तहत देखेंगे यह बहुत बडा प्रश्न है ।

शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक

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