पेशावर क्रांति के नायक गैरसैंण राजधानी के जनक वीर चंद्र सिंह गढ़वाली को शत शत नमन

Pahado Ki Goonj

देहरादून:उत्तराखंड राज्य निर्माण को गैरसैंण राजधानी बनाने के लिए हमेशा टिन का भौंपू हाथ मे हर समय रख कर जहाँ पर भी कुछ आदमियों को देखते हुए अपने जीवन का अनुभव बताते हुए पहाडोंकी पीड़ितों को लेकर चिंता करते हुए सभी लोग को लड़ाई में शरीक होने के लिए कहते थे। उनको पेशावर कांड के दिवस पर उन्हें शत शत नमन करते हुए उत्तराखंड की जनता को याद दिलाने के लिए कि उनके आत्मा को शांति तबही मिलेगी जब राजधानी गैरसैंण जाएगी।

उनके बारे में कॉमरेड इंद्रेश मैखुरी  ने लिखा है

3 अप्रैल 1930 को पेशावर में चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली फौज ने निहत्थे पठान स्वतन्त्रता सेनानियों पर हमारे पूर्वज राहुल सांकृत्यायन लिखते हैं कि “काकुल छावनी में एक मस्जिद थी। उसमें एक बूढ़ा मौलवी रहता था। मौलवी के साथ एक छोटा शायद उसका पोता था। मस्जिद के आँगन में पानी का नल लगा हुआ था। चंद्र सिंह वहाँ रोज टट्टी-पेशाब से आकर हाथ-मुंह धोने तथा पीने के लिए पानी लाने के लिए जाया करते थे। गोरे सिपाही लोहे की जंजीर से जकड़कर उन्हें वहाँ ले जाते थे।लेकिन टट्टी में बैठने के समय तथा नल पर हाथ मुँह धोते समय हथकड़ियाँ खोल देते थे। इस तरह मस्जिद के पास चंद्र सिंह का आना जाना होने लगा। कैदियों के साथ सहानुभूति दिखलाना धार्मिक मुसलमान अपना कर्तव्य समझते थे। लेकिन चंद्र सिंह तो उन गढ़वालियों के अगुवा थे,जिन्होंने पेशावर में मुसलमान पठानों के ऊपर गोली न चलाकर अपने प्राणों के लिए संकट मोल लिया था। इसलिए मुसलमानों और खासकर पठानों में गढ़वालियों के प्रति बहुत स्नेह पैदा हो गया था।गोरों के डर के मारे बूढ़ा मौलवी पहले चंद्र सिंह से कोई बात नहीं करता था। उसने उसके लिए एक दूसरा तरीका निकाला। वह,उनको सुनाने के लिए बच्चे से बात करता. मौलवी पढ़ा-लिखा था।अखबार पढ़ता था। वह पढ़ी हुई बातों को बच्चे को सुनाता- “बेटा,आज मुसलमानी दुनिया में इन लोगों के लिए हर एक मस्जिद में ख़ुदा-पाक से दुआ मांगी जा रही है।” इस तरह बंबई, कलकत्ता, दिल्ली, लाहौर की जो खबरें आती,उन्हें मौलवी बच्चे को सुनाया करता. गोरे भाषा समझ नहीं सकते थे,इसलिए उन्हें मालूम नहीं था कि बूढ़ा क्या कह रहा है। एक दिन मौलवी ने अपने पोते से कहा – “बेटा,यह जो कैदी है, इसको अगर हम कुछ खाने की चीज दें, तो खाएगा ?”

चंद्र सिंह ने जवाब दिया “बाबा,मुझे आपका खाना खाने से कोई ऐतराज नहीं है,लेकिन पहले पहले मैं इन गोरे सिपाहियों से पूछ लूँ।” उन्होंने गोरे सिपाहियों से इजाज़त मांगी. आखिर वे भी सिपाही थे,उनमें से भले मानुषों की कमी नहीं थी। उनके इजाजत देने पर बूढ़े बाबा ने तंदूरी रोटी और कुछ मक्खन दिया। अगले दिन से बूढ़े बाबा रोज सबेरे-शाम लेमनेड की बोतल,खुबानी,रोटी और कभी मक्के के लड्डू देने लगे. अखबारों में जो खबरें आती,उनको वह उसी तरह सुनाते. उन्हीं बूढ़े बाबा से चंद्र सिंह को मालूम हुआ कि गढ़वालियों के लिए काम करने के कारण लाहौर के डॉ.आलम और चंद्र प्रकाश तथा प्रताप सिंह पकड़ लिए गए हैं. बंबई में पुलिस ने औरतों के जुलूस पर लाठी बरसाई. ये खबरें चंद्र सिंह और उनके साथियों के लिए भारी महत्व रखती थी.देश की इन खबरों को पाकर उनकी हिम्मत बढ़ती थी.”

अंग्रेजों ने पेशावर में पठानों पर गोली चलाने के लिए गढ़वाली पलटन का चुनाव, हिन्दू-मुस्लिम विभाजन की खाई को और चौड़ा करने के लिए किया था. चंद्र सिंह गढ़वाली और उनके साथियों ने अपनी नौकरी और प्राणों को संकट में डाल कर सांप्रदायिक सौहार्द की अभूतपूर्व मिसाल कायम कर दी. सांप्रदायिक उन्माद की राजनीति के फलने-फूलने के दौर में कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली वो प्रकाश स्तम्भ हैं,जो अपना सब कुछ दांव पर लगा कर भी सांप्रदायिक सौहार्द और गंगा-जमनी तहजीब को बुलंद करने की राह हमको दिखाते हैं।

पेशावर क्रांति के नायक कॉमरेड चंद्र सिंह गढ़वाली को क्रांतिकारी सलाम।
कॉमरेड इंद्रेश मैखुरी 3 अप्रैल 1930 को पेशावर में चंद्र सिंह गढ़वाली के नेतृत्व में गढ़वाली फौज ने निहत्थे पठान स्वतन्त्रता सेनानियों।

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