वो गाँव जहां सरकारी योजनाएं और अफसर कोई नहीं पहुंच पाता

Pahado Ki Goonj

महाराष्ट्र। यह सफर आसान नहीं है। खोबरामेंढा ग्राम पंचायत से नारेक्ल के लिए 12 किलोमीटर लंबी पैदल यात्रा है।
यहाँ के ज्यादातर इलाकों में ऐसे ही जाया जा सकता है। इस सफर के बीच नदी, नाले और पहाड़ आते हैं जो गंतव्य तक पहुंचते-पहुंचते बेहाल कर देते हैं। नदियों पर पुल नहीं होने के कारण लोग या तो भीगते हुए नदी पार करते हैं या कपड़े उतारकर।
हम जब उस पार पहुंचे तो फिर एक नई दुनिया से सामना हुआ। यहां लोगों की जिंदगी में विज्ञान का कोई योगदान नहीं है और लोग प्रकृति के भरोसे ही जी रहे हैं।
यहां बिजली के खंभों को गढ़े अरसा बीत गया है, लेकिन आज भी बिजली नदारद है। एक ग्रामीण ने निराशाजनक लहजे में कहा कि अब बिजली क्या आएगी, हम तो उम्मीद ही छोड़ बैठे हैं। गढ़चिरौली महाराष्ट्र के सबसे पिछड़े इलाकों में से एक है और यहाँ घने जंगलों की श्रृंखला है। सैकड़ों गाँव ऐसे हैं जहाँ पहुंचना ही अपने-आप में बहुत मुश्किल काम है।
यहाँ रहने वाले आदिवासियों की जिंदगी बहुत मुश्किल है और इनके रास्ते बहुत दुर्गम. इन्हें जिंदा रहने के लिए रोज नया संघर्ष करना पड़ता है। चाहे वो इस जिले का कोई भी छोर हो. यानी कुरखेड़ा, कोरची से लेकर एटापल्ली, भाम्रागढ़ तहसील ही क्यों ना हों। आज भी यहाँ ऐसा लगता है कि सुदूर अंचल में रहने वाले आदिवासी आदि काल में ही रह रहे हैं। मेरा सामना नारेक्ल के आदिवासियों से हुआ जो अपने भीगे हुए कपड़े उतार कर दूसरे कपड़े पहन रहे थे। इन्होंने गाँव वापस आने तक दो नदियों को पैदल पार किया था। बातचीत में वो बताते हैं कि उन्होंने इस बार चुनाव के बहिष्कार का मन बना लिया है। उनका गाँव खोबरामेंढा ग्राम पंचायत के अंतर्गत आता है जो 12 किलोमीटर दूर है. यह सफर पैदल ही तय किया जा सकता है।
उनकी तहसील कोरची है जो 40 किलोमीटर दूर है। पंचायत समिति भी 40 किलोमीटर दूर कुरखेड़ा में है। जबकि पटवारी कोटगुल में बैठते हैं जो 35 किलोमीटर दूर है.इसका मतलब ये हुआ कि अगर किसी योजना के लिए उन्हें आवेदन देना है तो उन्हें इन सब दफ्तरों का चक्कर लगाते रहना पड़ेगा जो अलग-अलग दिशाओं में हैं और वहां तक जाना मुश्किल है।
गाँव में रहने वाले नवनु लच्छू पुनगाती कहते हैं कि हमारा गाँव ऐसा है कि हमारी ग्राम पंचायत कहीं है, तहसील कहीं है, पंचायत समिति कहीं और है। हमें एक कागज लेकर सौ किलोमीटर के चक्कर लगाने पड़ते हैं। यहाँ दूर-दूर तक न कोई जेरॉक्स मशीन है न ही आने जाने का साधन। कई दिनों तक पैदल चलते रहना पड़ता है। क्या हम देश के नागरिक नहीं हैं। फिर हमें क्यों अलग-थलग कर दिया गया है। सरकारी दफ्तरों का पहुंच से दूर होना और सुविधाओं का अभाव एक बड़ा कारण है कि गाँव के लोग योजनाओं के लिए आवेदन ही नहीं कर पाते। चाहे उज्ज्वला योजना हो या फिर पेंशन योजना।
हमारी मुलाकात एक और आदिवासी ग्रामीण जगतपल टोप्पो से हुई जिनका कहना था कि योजनाएं सिर्फ शहरी लोगों के लिए हैं। इनका लाभ उन लोगों को ही मिलता है जो शहरों के पास रहते हैं। वो कहते हैं, हमारे पास ना नेता आता है न अधिकारी. क्योंकि वो यहाँ तक आ ही नहीं सकते। वहीं तक आते हैं जहाँ तक गाड़ी आती है। हमारे गाँव का सफर तो पैदल का है। वो भी 15 किलोमीटर. कौन आएगा। आदिवासी इलाकों के लिए सरकार ने कई योजनाएं बनायीं हैं। जिससे यहाँ की जनजाति के लोगों की जिंदगी बेहतर हो सके, लेकिन सरकारी अफसरों के लिए यहाँ पर तैनाती ही एक सजा है।
यही वजह है कि योजनाओं का लाभ लेने को इच्छुक आदिवासी समुदाय के लोग सरकारी दफ्तरों के चक्कर लगा-लगा कर थक जाते हैं लेकिन अधिकारी उन तक नहीं पहुँचते। नसीर हाश्मी गढ़चिरौली के वरिष्ठ पत्रकार हैं। वो कहते हैं कि गढचिरौली में जब किसी अधिकारी की तैनाती होती है तो वो इसे एक सजा की पोस्टिंग मान कर चलते हैं। नसीम हाश्मी कहते हैं कि अब आप बताइए जब कोई सजा काट रहा है तो वो लोगों के लिए क्या करेगा और उसे योजनाएं सुदूर इलाकों में पहुंचाने में कितनी दिलचस्पी होगी।

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