महादेव द्वितीय केदार मध्यमेश्वर में नाभि रूप में विराजमान है

Pahado Ki Goonj

उत्तराखंड पूरी दुनिया में केवल पर्यटन के लिए ही नहीं लेकिन अपने स्वच्छ वातावरण के लिए भी जाना जाता है। यहां की खूबसूरत वादियां अपनी ओर अनायास ही खींच लेती हैं। ऐसी ही सुंदर और मनोरम घाटियों के बीच बसा है “मध्यमेश्वर” ।

मध्यमेश्वर भगवान शिव की भूमि है, जहां कुदरत ने चारों ओर अलौकिक सौंदर्य की छटा बिखेरी है। यहां आकर थके मन को शांति मिलती है। यह स्थान आस्था ही नहीं बल्कि पर्यटन की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। यह देवभूमि उत्तराखंड की सुरमय घाटियों के बीच बसे रुद्रप्रयाग जिले में पड़ता है। मध्यमेश्वर समुद्र तल से लगभग 3300 मीटर की ऊंचाई पर है। यह पंचकेदारों में द्वितीय केदार है, जहां केदारेश्वर भगवान शिव की नाभि की पूजा होती है। शिव के मध्यभाग के दर्शन के कारण इसे मध्यमेश्वर कहा जाता है। यहां मौजूद शिवलिंग की आकृति नाभि के समान है। केदारघाटी की विषम भौगोलिक परिस्थितियां यहां आने वाले तीर्थयात्रियों की संख्या को सीमित कर देती है,

मध्यमहेश्वर भगवान शिव के पंचकेदार मंदिरों में से एक है। पंचकेदारों में भगवान शिव के विभिन्न अंगों की पूजा की जाती है। शिवपुराण के अनुसार महाभारत युद्ध के पश्चात पांडवों को गुरु हत्या, गोत्र हत्या, अपने भाइयो की हत्या का दुःख सताने लगा। इसके प्रायश्चित का उपाय जानने के लिए लिए वे श्रीकृष्ण के पास गए, उनके समझाने पर भी जब पांडव प्रायश्चित करने का हठ नहीं छोड़ा तो श्रीकृष्ण ने उनसे वेदव्यास जी के पास जाने को कहा। वेदव्यास ने उन्हें कैलाश क्षेत्र में जा के भगवान शिव की तपस्या करने को कहा और उन्हें प्रसन्न कर अपने पाप से मुक्ति पाने का मार्ग बताया। बहुत समय हिमालय में भ्रमण के दौरान जब एक स्थान पर आकर कुछ दिन वही भगवान शिव की स्तुति करने लगे तब थोड़ा आगे एक विशालकाय बैल पर उनकी नज़र पड़ी। माना जाता है स्वयं भगवान शिव उन की परीक्षा लेने हेतु बैल रूप में वहां प्रकट हुए थे, लेकिन गोत्र हत्या के दोषी पांडवो से नाराज़ थे और उन्हें दर्शन नहीं देना चाहते थे। परन्तु पांडवो ने उन्हें पहचान लिया था और उनका पीछा करने लगे। एक समय ऐसा आया की बैलने अपनी गति बढ़ानी चाही लेकिन भीम दौड़कर बैल के पीछे आने लगे। ये देख भगवान शिव रुपी बैल ने स्वयं को धरती में छुपाना चाहा, जो हि बैलका अग्र अर्ध भाग धरती में समाया, वैसे ही भीम ने बैल की पूंछ अपने हाथो से पकड़ ली। यही पीछे का भाग केदारनाथ के रूप में विद्यमान हुआ। कहा जाता है की बैलका अग्र भाग सुदूर हिमालय क्षेत्र में जमीन से निकला जो की नेपाल में था, जो की प्रसिद्ध पशुपति नाथ नाम से पूजा गया। बैल का शेष भाग यानी भुजाएं तुंगनाथ में, नाभि या मध्य भाग मदमहेश्वर में, मुख रुद्रनाथ में (शेष नेपाल पशुपति नाथ में) तथा जटा एंकल्पेश्वर में निकली।

कुछ साल पहले तक यह यात्रा मॉनसून से शुरू होती थी। मनसूना ऊखीमठ और उनियाना के बीच में है। तब यात्री पैदल ही मनसूना से उनियाना तक पहुंचते थे, लेकिन उनियाना के सड़क मार्ग से जुड़ने से ये दूरी कम हो गई है। उनियाना के बाद पैदल यात्रा का रोमांचकारी सफर शुरू होता है। उनियाना के बाद अगला गांव पड़ता है रांसी, जहाँ माता राकेस्वरी का प्राचीन मंदिर है। उसके बाद रांसी से हल्की सी चढाई के बाद गौण्डार गांव दिखाई देता है। गौण्डार तक सीधी ढलान है, घने जंगलों की पगडंडियों से होकर गौण्डार पहुंचा जाता है। यह इस घाटी का आखिरी गांव है। रांसी और गौण्डार के बीच में कई जंगल है, जिसमे कई झरने बहते हैं।

गौण्डार से करीब डेढ किलोमीटर आगे चलने पर खटरा चट्टी (चट्टी यात्रियों के रुकने का स्थान) आती है । यहां से मध्यमेश्वर. की दूरी सात किलोमीटर है। यहां से आगे निकलकर तीसरी चट्टी आती है- नानू चट्टी, इसके बाद जंगली रास्ता शुरू हो जाता है और यहाँ से आधे किलोमीटर के बाद मध्यमेश्वर मंदिर के दर्शन होते हं। घने जंगल और झरनों को पार करने के बाद की थकान मध्यमेश्वर मंदिर के सूंदर विहंगम दृश्य को देख कर पल भर में हवा हो जाती है।

बूढ़ा मध्यमेश्वर:
मध्यमेश्वर के पास ही एक चोटी है, जिसका रास्ता कम ढलान वाला है। इस रास्ते में पेड़ नहीं हैं। इस ढलान पर मखमली बुग्याल (उत्तराखंड में मिलने वाली घास) की चादर फैली रहती है। चोटी पर डेढ-दो किलोमीटर चलने पर ऊपर एक छोटा सा मंदिर आता है, जिसे बूढा मध्यमेश्वर. कहते हैं। जैसे-जैसे ऊपर चढ़ते जाते हैं तो कई प्रकार की जंगली वनस्पतियां ओर सूंदर फूल देखने को मिलते है। उत्तराखण्ड का राज्य पुष्प, ब्रह्म कमल भी यहाँ मिलता है। जिसे रोज सुबह और शाम की पूजा में मध्यमेश्वर. मंदिर में भगवान शिव को चढ़ाय जाता है।

बूढ़े केदार से चौखंभा का नजारा:
बूढ़ा केदार से चौखंभा पर्वत के दर्शन भी होते हैं। चौखंभा की चोटी को देखकर ऐसा लगता है मानो हाथ बढाकर उसे छू लें। इतनी ऊंचाई पर बुग्यालों को देखकर एक अलग आनंद की अनुभूति होती है और ऐसा महसूस होता है कि हम किसी दूसरी ही दुनिया में आ गए हों।

मध्य नवंबर तक यमुनोत्री, गंगोत्री, केदारनाथ, तुंगनाथ, रुद्रनाथ और कल्पेश्वर के कपाट बंद हो जाते हैं बस बद्रीनाथ और मध्यमेश्वर के कपाट खुले होते हैं।
मध्यमेश्वर जाने के लिए सबसे पहले दिल्ली से हरिद्वार ऋषिकेश होते हुए रुद्रप्रयाग जाना पड़ता है। रुद्रप्रयाग से केदारनाथ जाने वाली सड़क पर गुप्तकाशी से कुछ पहले कुण्ड नामक जगह आती है जहां से ऊखीमठ के लिए सडक अलग होती है। ऊखीमठ पहुंचकर उनियाना के लिए टैक्सियां, जीपें और बसें मिल जाती है। उनियाना से पैदल यात्रा शुरू होती है जो 23 किलोमीटर लंबी है और रांसी, गौण्डार होते हुए मध्यमेश्वर पहुंचती है। यहां केवल सीजन में ही जाया जा सकता है, जब तक भी कपाट खुलते हैं। आमतौर पर मध्यमेश्वर के कपाट केदारनाथ के लगभग साथ ही खुलते हैं और केदारनाथ के कपाट बन्द होने के बाद बन्द होते है। सीधी सी बात है कि अगर आप केदारनाथ जा रहे हैं तो मदमहेश्वर भी जा सकते हैं।

( मदन पैन्यूली बडकोट उत्तरकाशी)

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