प्रभु प्रेमी संघ ,पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम् आत्मसात किजयेगा

Pahado Ki Goonj

 प्रभु प्रेमी संघ ,पूज्य सद्गुरुदेव आशीषवचनम्
।। श्री: कृपा ।।
देहरादून, पहाडोंकीगूँज,पूज्य “सदगुरुदेव” जी ने कहा – परमात्मा की पारमार्थिक सत्ता धरती-अम्बर, जल, पवन, प्रकाश, वृक्ष-वनस्पतियों आदि के रूप में अभिव्यक्त है, एतदर्थ प्राकृतिक नियामकों के अनुरूप वृक्ष-अरण्य सरिताओं और अन्य पर्यावर्णीय कारकों का संवर्धन भी दैव आराधन ही है …। पृथ्वी की सुंदरता उसके वन्य जीवन में है। मनुष्य की तरह, सभी जीवित प्राणी प्राकृतिक अनुकूलन में भागीदार हैं और पर्यावरण के संतुलन को बनाए रखने में परस्पर सहयोगी हैं। वन्यजीवों का समर्थन करने के लिए सुरक्षित स्थानों और अभयारण्यों के निर्माण से जैव-पारिस्थितिकी संतुलन में सहायता मिलती है। वृक्ष से हमारी संस्कृति जुड़ी हुई है। हर वृक्ष-वनस्पति पर किसी न किसी देवी-देवता का वास है। इसलिए इनका संरक्षण आवश्यक है। प्राचीनकाल से ही गोबर के कंडों से ही होली जलाने की परंपरा है। इसके लिए लकड़ियों का इस्तेमाल उचित नहीं है। उन्होंने कहा कि गाय के गोबर से बने कंडों से होली जलाने से हमारी गोशालाएँ आत्म-निर्भर बनेंगी और पर्यावरण का संरक्षण होगा। परमात्मा ने पहले ब्रह्मा और फिर कमल बनाया है। सृष्टि के निर्माण के साथ ही वृक्ष-वनस्पति हैं। वृक्ष से ही धरती पर प्राण वायु का संचार होता है। वे ही बादलों को बरसने के लिए प्रेरित करते हैं। उनसे ही ईंधन की प्राप्ति होती है। पूज्य “आचार्यश्री जी” ने कहा कि पेड़ों का संरक्षण करना हमारी संस्कृति है। भारत में अधिक मात्रा में वृक्ष कटे हैं, चाहे वह अज्ञानता में ही कटे हों। वृक्ष परिजन्यों को आकर्षित करते हैं। वे हमें सब कुछ देते हैं। वैदिक काल में पेड़ों को नहीं काटा जाता था। उन्हीं लकड़ियों का इस्तेमाल किया जाता था, जिन्हें वृक्ष ने स्वयं से अलग कर दिया है। वृक्ष लगाने से दोष दूर होते हैं। उन्होंने कहा कि वृक्ष लगाना पुणित कार्य है। पितरों के नाम से वृक्ष लगाकर उनकी सेवा करने से पितृ दोष दूर होता है। धरती पर जितने भी संसाधन हैं, वे वृक्षों से प्राप्त होते हैं। इनका संग्रहण और संरक्षण वृक्ष करते हैं। यज्ञ के लिए सामग्री प्राप्त होती है। अतः वृक्ष एक तपस्वी के समान है …।

 पूज्य “आचार्यश्री जी” ने कहा – वर्तमान में मनुष्य की अनियंत्रित भोग-वांछाओं; प्रकृति-पर्यावरण में असंतुलन के कारण अनेक वन्य-जीवों का अस्तित्व संकट में है। धरा पर निरापद जीवन के लिए पेड़-पौधे, नदियाँ-झील, जलाशय एवं अन्य जीव जंतुओं को संरक्षण दें। भारत में जड़-चेतन सभी में ईश्वर का अंश देखने की परंपरा रही है। इसका मूलभूत आशय कर्मकांड तक सीमित नहीं है। प्रकृति की पूजा वस्तुत: सभी के प्रति संवेदनशील व्यवहार के मनोविज्ञान से प्रेरित है। “यावद् भूमंडलम् धत्ते वन काननम्। यावद् तिष्ठति मोदिन्याम् संतति: पुत्र पौत्रिकी …”॥ श्रीदुर्गासप्तशती के इस मंत्र का आशय यह है कि जब तक हम हरे वन, वृक्ष, वनस्पतियों तथा पर्वतों की सम्पदा का विनाश नहीं करते हैं, तब तक हमारी धरती माता हमारी ही नहीं, बल्कि हमारी भावी संतति का भी संवर्धन करती रहेंगी। भारतीय संस्कृति का विकास सघन वनों में ही हुआ। हमारी संस्कृति के सजीव केन्द्र तपस्थल और आश्रम वनों में ही स्थित थे। इसीलिए हमारी संस्कृति में वृक्षों को प्रेम, सहानुभूति और आदर प्राप्त है। हम पेड-पौधों को चेतन मानते हैं, उनके सुख-दु:ख में विश्वास करते हैं। यहाँ वृक्ष को काटना पाप माना गया है। सर जगदीशचंद्र बसु ने तो वैज्ञानिक रूप से सिद्ध कर दिया कि मनुष्य की तरह सुख, दु:ख, मृत्यु, शोक तथा हर्ष इत्यादि का प्रभाव पौधों पर भी पडता है। इस दृष्टि से देखें तो वृक्ष पूजन का विज्ञान सूक्ष्म अनुसंधान का सूचक है। वैसे तो सभी वृक्ष लाभकारी हैं, परंतु बड़, नीम, पीपल, तुलसी, आँवला आदि के वृक्ष रासायनिक दृष्टि से बड़े ही उपयोगी हैं। तुलसी का पौधा घर में लगाना, नित्य प्रात:काल उसका पूजन और जल देना हम भारतीयों की दिनचर्या के अनिवार्य हिस्से जैसा है। वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि तुलसी के संसर्ग से वायु शुद्ध रहती है। इससे विषैले कृमियों का नाश होता है। इसी प्रकार मंदिरों में पीपल लगाने और पूजने का विधान है। पीपल के फलों में अनेक तत्व होते हैं। इनका चूर्ण पौष्टिक होता है। पलाश, आँवला और बड़ भी बड़े उपयोगी वृक्ष हैं। इनमें जीवनी शक्ति बढ़ाने वाले कई तत्व हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि हे धनंजय ! सम्पूर्ण वृक्षों में मैं पीपल का वृक्ष हूं। हमारे धर्म और संस्कृति में जो स्थान विद्या-व्रत, ब्रह्मचर्य, गऊ, देव, मंदिर, गंगा, गायत्री एवं गीता-रामायण आदि धार्मिक ग्रंथों का है; वैसे ही वृक्षों को भी पूजनीय एवं श्रेष्ठ महत्व दिया गया है। यह महत्व उनसे मिलने वाले लाभों को देखते हुए ही दिया गया है। संसार में जितनी वनस्पतियाँ हैं, सभी औषधि रूप हैं। ऐसा आयुर्वेद में वर्णित है। इस तरह से छोटे-बड़े सभी पेड़-पौधे मनुष्यों के लिए लाभदायी हैं। बेल, आँवला, नीम, तुलसी, पीपल आदि के फल औषधियों में भी प्रयुक्त होते हैं। कई वृक्षों की डालियाँ और छालें भी दवाओं के काम आती हैं। पीपल आदि की समिधाओं से यज्ञ करके कई असाध्य रोग दूर करने का विधान भी ग्रंथों में मिलता है। कहते हैं, भगवान शिव ने मानवता के रक्षार्थ विष पी लिया था। ये सब पेड़-पौधे भी हमारे द्वारा छोडा गया कार्बन डाईआक्साइड पीकर हमें जीवनदायी ऑक्सीजन देते हैं। अतः ऋषि-मुनियों के आदेशों के मूल में निहित सूक्ष्म भावों को भले ही न जान सके हों, पर उनके आदेशों का पालन करके हम लाभान्वित हो रहे हैं …।

पूज्य “आचार्यश्री” जी ने कहा – विश्व की सभी संस्कृतियाँ अपने-अपने ढ़ंग से प्रकृति के साथ हमारे सम्बन्धों को निर्देशित करने के लिए नैतिक मूल्य और आदर्श प्रदान करती हैं। हमें सभी पेड-पौधों के संरक्षण व संवर्धन के लिए एक आचार संहिता की आवश्यकता होगी। यह मानवीय आत्मा को सृष्टि के संवर्धन और दैवीय उद्देश्यों की पहचान के लिए नई सार्वलौकिक चेतना प्रदान करेगी तथा इसी से भौतिक तथ्यों और आध्यात्मिक आदर्शो को समन्वित किया जा सकेगा। पीपल, वट, तुलसी, शमी आदि की पूजा के पीछे ध्येय यह है कि मनुष्य इनकी उपयोगिता को समझे एवं इनका रक्षण-संवर्धन करे। आर्थिक दृष्टि से भी वन-सम्पदा को सहेजे रखने का बहुत महत्व है। मनुष्य को प्राणवायु तो वृक्षों से ही मिलती है। भारतवर्ष में वृक्षों की पूजा तथा वन संरक्षण का महत्व अनादिकाल से रहा है। इसका एक उदाहरण महात्मा विदुर और धृतराष्ट्र के संवाद हैं। महात्मा विदुर कहते हैं – “न स्याद् वनमृते व्याघ्रान् व्याघ्रा न स्युऋतु वनम्। वनं हि रक्षते व्याघ्रौव्र्याघ्रान रक्षति काननम् …”॥ महाभारत के इस श्लोक से वनों के संरक्षण की परंपरा की प्राचीनता का ज्ञान होता है। प्राचीनकाल में वन-संरक्षण के कार्य को धर्म से जोड़ दिया गया था और वन संरक्षण की जिम्मेदारी पूरे गाँव अथवा शहर की होती थी। आज भी प्रायः हम देखते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय देवता को वृक्षों के नीचे स्थापित किया जाता है। उस देवता के साथ उस बड़, पीपल, नीम, आँवला, शमी आदि वृक्षों की भी पूजा और रक्षा होती है। इसलिए हमारे ऋषि-मुनियों तथा आधुनिक वैज्ञानिकों ने पेड-पौधों के संरक्षण तथा संवर्धन पर विशेष बल दिया है। यही वह उपाय है जिससे हमारा पर्यावरण संतुलित रहे और हमें प्रकृति का कोपभाजन भी न बनना पड़े। प्रकृति के साथ छेड़छाड़ का परिणाम भयानक ही होगा। इसलिए यदि पेड़-पौधे संरक्षित रहेंगे तो हमारे औषधीय पौधे और वृक्ष भी विद्यमान रहेंगे। अतः कुछ विशेष पेड़-पौधों को धर्म से जोड़ कर उन्हें संरक्षित किया गया है। इनका मूलभूत मंतव्य केवल कर्मकांड का निर्वाह नहीं, बल्कि प्रकृति के प्रत्येक तत्व के महत्व और समाज के लिए उसकी उपयोगिता को समझते हुए उसके प्रति संवेदनशीलता का व्यवहार करना है। अतः आध्यात्मिकता का वास्तविक अर्थ भी प्रकृति मात्र के प्रति संवेदनशील होने में ही निहित है । हरि ॐ

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