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दीवाली के त्योहार पर  परंपराओं के साथ पर्यावरण की भी लें सुध

Pahado Ki Goonj
 दीवाली के त्योहार पर  परंपराओं के साथ पर्यावरण की भी लें सुध
विजय गर्ग
जैसे-जैसे दिवाली पास आ रही है, उसकी तैयारी तेज होती जा रही है। पर, उसके साथ ही एक चिंता भी गहराती जा रही है कि इस बार भी प्रदूषण का स्तर कितना बढ़ जाएगा ? प्रदूषण के इस फिक्र को अचानक से फुर्र तो नहीं किया जा सकता है, पर उसे कम करने की ओर समझदारी भरे कदम जरूर बढ़ाए जा सकते हैं। इसके लिए आपको दिवाली मनाने के तरीके और मिजाज दोनों में बदलाव करने होंगे। और इसकी शुरुआत आपको अपने घर से करनी होगी: दीया से जगमग करें घर हम शॉर्टकट में इतना ज्यादा विश्वास करते हैं। कि दीये के भी विकल्प खोज चुके हैं। मोमबत्ती, दीये जैसी दिखनी वाली लाइटें अब हमारी दिवाली को रोशन करने लग गई हैं। पर, क्या कभी सोचा है कि हम सरसों के तेल के दीये क्यों जलाते थे? छोटे से ये दीये सिर्फ रोशनी नहीं देते हैं बल्कि प्रदूषण, कीट पंतगों को भी भगाते हैं। नैचुरोपैथ डॉ. राजेश मिश्र की मानें तो सरसों के तेल में मैग्नीशियम, ट्राइग्लिसराइड और एलिल आइसोथियोसाइनेट होता है। एलिल कीट- पंतगों को अपनी ओर आकर्षित करता है। दीपक के पास आपने सफेद कण जमा देखे होंगे, जो तेल के मैग्नीशियम के कारण मुमकिन हो पाता है। विषैले तत्व भारी होकर जमीन पर आ गिरते हैं, हवा हल्की हो जाती है और हम आसानी से सांस ले पाते हैं। आप मिट्टी के दीयों के साथ ही गाय के गोबर से बने दीयों को भी प्रयोग कर सकती हैं, जिनको जलाने के बाद आप आप पेड़ों में खाद के तौर पर भी प्रयोग कर सकती हैं।
प्राकृतिक चीजों का करें प्रयोग
बिना सजवाट दिवाली की कल्पना करना थोड़ा मुश्किल सा है। पर, इको-फ्रेंडली दिवाली मनाने के लिए इस बार अपनी सजावट में प्रकृति के रंगों को ज्यादा से ज्यादा भरने की कोशिश कीजिए। प्लास्टिक के आर्टिफिशियल फूलों और बंदनवार की जगह घर के दरवाजे को ताजे फूलों की लड़ियों और फूल-पत्तियों के बंदनवार से सजाइए। आप घर की सजावट के लिए गुलाब का प्रयोग कर सकती हैं। यह मन को शांत करने के साथ ही तनाव भी दूर करेगा। चमेली सकारात्मक ऊर्जा का प्रसार करती है। इस फूल की खुशबू पूरे माहौल को तनाव मुक्त बना देती है । रंगोली को भी केमिकल वाले रंगों से मुक्त रखने की कोशिश कीजिए। इसके लिए फूलों से लेकर अनाज तक की रंगोली बनाई जा सकती है।
सुंगध को कीजिए शामिल
सुगंध दिवाली के मौके पर हमारे घर के साथ ही साथ हमारे व्यक्तित्व पर भी असर डालेगी। मनोचिकित्सक डॉ.  बताती हैं कि खुशबू हमारे दिमाग के उस हिस्से पर असर डालती है, जो याददाश्त और मूड के लिए जिम्मेदार होता है। यह हमारी ऊर्जा में इजाफा कर सकती है। साथ ही साथ सुगंध हमारे तनाव में भी खासी कमी लाती है। यह हमारे डर के भावों को भी खत्म करने में मददगार साबित हो सकती है। कहते हैं कि सुगंध के सही प्रयोग से एकाग्रता में भी इजाफा किया जा सकता है। इतना ही नहीं, इससे आप स्नायु तंत्र से जुड़ी और अवसाद सरीखी समस्याओं से भी निजात पा पाती हैं। तो यकीनन इस दिवाली खुशबू से अपना और अपने घर नाता जोड़ ही लीजिए। घर को खुशबूदार रखने के लिए डिफ्यूजर की मदद लें।
पकवानों में दें देसी तड़का
त्योहार मतलब खाने खिलाने का दौर। जहां आपके पास ढेरों विकल्प मौजूद हैं। पर, यहां पर परंपरा या यूं कहें देसी तड़का ही फायदे का सौदा होगा। लिहाजा, अपने पकवानों को देसी मसालों के स्वाद से सजाकर ही परोंसे। डॉ. स्मिता की मानें तो हमारे देसी मसाले भी हमारे तनाव को कम करने का काम करते हैं। जैसे दालचीन, लौंग वगैरह की खुशबू हमारे दिमाग को संतुलित करने का काम करती है। हल्दी में मौजूद करक्यूमिन में एंटी-इंफ्लामेट्री गुण होते हैं जो ऑक्सीडेटिव स्ट्रेस से बचाते हैं। आतिशबाजी से दूरी अच्छी
हर साल दिवाली के पटाखों की धुंध सांस लेने में परेशानी पैदा कर जाती है। चारों जमा स्मॉग भी हमारी आफत को बढ़ा जाता है। तो क्यों न इस बार दिवाली बिना पटाखे वाली रखी जाए। चलाना ही है तो स्पार्कलर सरीखे पर्यावरण के अनुकूल विकल्पों को चुनें। कंदील, स्काई लालटेन सरीखे विकल्पों को चुनकर भी दिवाली का जश्न खूबसूरती के साथ मना सकती हैं।
तोहफों में भी झलकाइए समझदारी इस त्योहार में तोहफों का आदान-प्रदान तो बनता ही है। पर, उसके साथ आया अनचाहा कचरा यानी उसको आकर्षक बनाने के लिए लपेटी गई पैकिंग हमारी प्रकृति के लिए बड़ी मुसीबत बन जाती है। यह मुसीबत और न बढ़ने पाए इसके लिए उपहार देने के लिए कपड़े या जूट के बैग का आप प्रयोग कर सकती हैं। उपहार भी पर्यावरण फ्रेंडली रखे जा सकते हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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चलते रहना रहना बेहतर
विजय गर्ग
दो स्त्रियां एक खास उम्र से जुड़ी होती हैं। अमूमन स्कूल और कालेज की दोस्तियां ही स्थायी होती हैं। एक समय के बाद दोस्ती मुश्किल होती जाती है। हर किसी के खास दोस्त वही होते हैं जो स्कूल या कालेज से उनके साथ जुड़े रहे हों। यह रिश्ता विश्वास पर टिका होता है, लेकिन यह बहुत समय और समझ भी मांगता है। कालेज के बाद बेरोजगारी और दुनियादारी की समस्याओं के बीच किसी नए व्यक्ति के लिए जगह नहीं बचती । धीरे-धीरे पुरानी दोस्तियां औपचारिक होती जाती हैं, क्योंकि वे संदर्भ बदल जाते हैं, जिनसे वे बनी थीं। मनुष्य समय के साथ कुछ और होता जाता है और इस ‘कुछ और’ में होने वाले भाव को पहले से जुड़े लोगों के साथ साझा करना मुश्किल होता है। अपने बारे में लंबे समय से बनी छवि से बाहर निकलना खुद के लिए भी मुश्किल भरा हो है। ऐसे में नई दोस्ती की जरूरत व्यक्ति को हमेशा होती है ।
दरअसल, नई दोस्तियां व्यक्ति को नया करती हैं। जब हम किसी व्यक्ति के गहन संपर्क में आते हैं तो केवल सामने वाले को ही नहीं समझते, खुद को भी नए सिरे से समझने लगते हैं। हर दूसरा व्यक्ति किसी के लिए भी एक तरह की खिड़की है, जिससे वह दुनिया को देखने के अपने तरीके को विस्तृत करता जाता है। हम उन चीजों को फिर से सोचते हैं जो हमारे लिए पुरानी पड़ चुकी हैं, लेकिन उन्हें जिन्होंने हमें निर्मित किया है। अतीत का मूल्यांकन राष्ट्र और परंपराओं के लिए ही आवश्यक नहीं हुआ करता, एक मनुष्य के लिए, उसके निजी जीवन के लिए भी जरूरी होता है । अतीत के मूल्यांकन के बिना भविष्य धुंधला होकर दौड़भाग तक सीमित हो जाता है। दूसरे को जानने की प्रक्रिया में मनुष्य खुद को फिर से जानने लगता है। जब किसी व्यक्ति से हम बात करते हैं तो हर बार कुछ उतना ही और जानते हैं । नई दोस्ती व्यक्ति को अपनी नजर में प्रासंगिक बनाए रखती है, यह सही है कि गहराई वक्त के साथ आती है, लेकिन रिश्तों शुरुआती निवेश की फसल को ही व्यक्ति अक्सर भुनाता रहता है । वह यह मानकर चलता है कि अब दोस्ती जैसे झंझटों की उसे जरूरत नहीं रही। पारिवारिक और सामाजिक दायित्व भी मनुष्य को गहरे रिश्तों से दूर करते हैं । आज दूसरे से परिचय जितना आसान हो गया है, रिश्ते उतने ही मुश्किल हो गए हैं। मनुष्य हर वक्त एक मुखौटे के साथ दूसरों का, दुनिया का सामना करता है। हर कोई चाहता है कि वह इस मुखौटे के बगैर बात कर सके, लेकिन ईर्ष्या, प्रतिस्पर्धा और कितने ही अनजाने डर उसे खुलने नहीं देते। एक उम्र के बाद मनुष्य सोचता है कि इन सबसे कुछ भी फायदा नहीं होना, क्योंकि अपने पारिवारिक दायरे में वह इतना धंस चुका होता है कि सिर्फ जरूरी काम करने का आदी हो जाता है । वह जिम्मेदारियों और परंपराओं की भाषा में सोचने लगता है। मनुष्य अपनों के दुखी होने के डर से अपनी समस्याओं और अकेलेपन को अपने परिवार वालों को बताकर परेशान नहीं करना चाहता और धीरे-धीरे अपने में सिकुड़ने लगता है। नए लोगों के साथ ऐसी समस्या नहीं होती, इसीलिए अक्सर लोगों को अजनबियों के साथ खुलने में कम दिक्कत होती है।
एक बड़ा भ्रम यह भी है कि अच्छी दोस्तियां लंबी चलती हैं या चलनी चाहिए और आजकल किसी चीज की उम्र नहीं होती, इसलिए कोई रिश्तों के पचड़ों में नहीं पड़ना चाहता। इस बात पर ध्यान देने की जरूरत है कि दोस्ती की उम्र सदैव उसकी गुणवत्ता के समानुपाती ही हो, यह जरूरी नहीं होता । अक्सर थोड़े वक्त के लिए मिले लोग हमारी जिंदगी में वह परिवर्तन लाने में सक्षम होते हैं जो जमाने से जुड़े लोगों से संभव नहीं होते। मनुष्य के शुरुआती दोस्त उसके स्वभाव को पूरी तरह जानते हैं, इसलिए वे उसे वैसा ही स्वीकार लेते हैं, उसके वैसा होने में कोई खामी है या किसी आदत को बदलकर वह बेहतर भी हो सकता है, ऐसा वे नहीं सोचते । बचपन में देखा और महसूस किया सब कुछ इतना प्राकृतिक लगने लगता है कि हर कोई उसके बारे में सोचना ही बंद कर देता है। मगर एक उम्र के बाद मिले अनजाने लोग हमें यह अहसास दिलाने में सक्षम होते हैं कि हम क्या है और क्यों हैं ?
स्कूल और कालेज की दिनचर्या से जुड़ी दोस्तियों के बाद भी मनुष्य को हर उम्र और हर पड़ाव पर नए दोस्तों की जरूरत होती है । इस वक्त में दोस्ती की गहराई चाहिए होती है, लंबाई नहीं । क्षणभंगुर जीवन को स्वीकार करके शाश्वत रिश्तों को तलाशना अपने आप से ही नहीं, दूसरे से भी बड़ी मांग है। जब सब कुछ पूरा होता है तो रिश्ते को भी एक समय में पूरा होना ही होता है । पुराने जब जाते हैं तो नए के लिए जगह भी तो बनती है। किसी पुराने के गम में सामने दिख रहे जीवन को ठुकराना भी ठीक नहीं। दोस्ती दो लोगों के बीच विश्वास, समझदारी और प्रेम से बनती है। जब एक समय के बाद इनमें से कुछ भी कम होने लगे तो समझदारी की ही सबसे ज्यादा जरूरत होती है। रिश्तों का टूटना उनका अंत होना नहीं होता । मनुष्य को उनसे बहुत कुछ मिलता है। एक समय के बाद जब जानने को कुछ नहीं बचता तो उनमें गतिशीलता नहीं रहती। ऐसे में उनको जिंदा रखना उनके साथ ज्यादती होती है। लेकिन वे पूरे होकर मनुष्य के किसी हिस्से को भी पूरेपन का अहसास दिलाते हैं, हमें इस सोच के साथ चलना चाहिए। अपने को सदैव के लिए बंद करने से जीवन ठहर जाता है । उसे चलते रहने देना ही बेहतर है। इसलिए खुले मन से चलना चाहिए।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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 परिवर्तन की भाषा
 विजय गर्ग
 भाषा केवल संचार के माध्यम से कहीं अधिक है। यह एक शक्तिशाली उपकरण है जो धारणाओं को आकार देता है, कार्रवाई को प्रभावित करता है और समावेशिता-या बहिष्करण को बढ़ावा देता है। विकास क्षेत्र में, जहां परिवर्तन और प्रगति अक्सर संचार पर निर्भर करती है, भाषा की भूमिका और भी अधिक स्पष्ट हो जाती है। जब सही शब्दों का उपयोग किया जाता है, तो हाशिए पर रहने वाले समुदाय देखा, सुना और सम्मानित महसूस करते हैं। जब हानिकारक या बहिष्करणकारी भाषा बनी रहती है, तो यह विकास को अवरुद्ध कर सकती है और समानता लाने के प्रयासों में बाधा उत्पन्न कर सकती है। इसलिए, जिस तरह से संगठन भाषा का उपयोग करते हैं उसका लैंगिक असमानता को दूर करने की उनकी क्षमता पर गहरा प्रभाव पड़ता है। भारत जैसे देश में, जहां लिंग जाति, वर्ग और धर्म जैसे कई कारकों से जुड़ा हुआ है, भाषा और भी महत्वपूर्ण हो जाती है। लिंग-समावेशी भाषा अब केवल ‘अच्छी बात’ नहीं रह गई है। यह एक आवश्यक, परिवर्तनकारी शक्ति है। लैंगिक सहयोग में भाषा की भूमिका लिंग-समावेशी भाषा का उपयोग करना लिंग सहयोगीता का एक रूप है जो सांकेतिक इशारों से आगे बढ़कर सार्थक कार्रवाई की ओर बढ़ता है। इस प्रकार की मित्रता खेल में शक्ति की गतिशीलता की गहरी समझ को दर्शाती है और सक्रिय रूप से मौजूदा संरचनाओं को नष्ट करने का प्रयास करती है। लैंगिक सहयोग न केवल महिलाओं या गैर-बाइनरी व्यक्तियों का समर्थन करने के बारे में है, बल्कि हम सभी के सोचने और बातचीत करने के तरीके को नया आकार देने के बारे में भी है। भाषा उस संज्ञानात्मक बदलाव को बनाने में मदद करती है। लिंग आधारित भाषा हानिकारक शक्ति गतिशीलता को कायम रख सकती है। अपशब्द, ऐसी भाषा का एक दुर्भावनापूर्ण उपसमूह, लंबे समय से व्यक्तियों को उनके लिंग या यौन पहचान के आधार पर अपमानित करने, चुप कराने और कमतर करने के लिए उपयोग किया जाता है, और लोगों के आत्म-मूल्य और गरिमा पर स्थायी प्रभाव छोड़ सकते हैं। वे समावेशन में बाधाएँ हैं, पूर्वाग्रहों को सुदृढ़ करते हैं और प्रणालीगत उत्पीड़न को कायम रखते हैं। इस प्रकार की भाषा एक हथियार के रूप में कार्य करती है, जो व्यक्तियों की अवसरों तक पहुंच को सीमित करती है और उन्हें समाज के हाशिये पर धकेल देती है। लिंग-तटस्थ भाषा हर किसी को देखा और सम्मानित महसूस करने की अनुमति देती है। उदाहरण के लिए, सर्वनाम परिचय का सामान्यीकरण या लिंग-तटस्थ सर्वनाम जैसे ‘वे/वे’ का उपयोग केवल राजनीतिक शुद्धता का कार्य नहीं है; यह एक ऐसे वातावरण को बढ़ावा देने के बारे में है जहां हर कोई आराम से रह सके। कई सेटिंग्स में, बातचीत या मीटिंग की शुरुआत में सर्वनाम का परिचय देने से लिंग-विविध व्यक्तियों को संकेत मिल सकता है कि वे एक सुरक्षित स्थान पर हैं। यह अधिक विश्वास और सहयोग की संभावनाएं खोलता है। जबकि लिंग-विविध समुदायों को इस परिवर्तन का नेतृत्व करना चाहिए, सहयोगियों के पास इन परिवर्तनों को बड़े पैमाने पर प्रभावशाली बनाने की शक्ति है विकास क्षेत्र हाशिए पर मौजूद समुदायों के साथ सीधे संपर्क करता है, इसलिए इसे सामाजिक परिवर्तन में सबसे आगे रहना चाहिए। इस दिशा में पहला कदम यह हो सकता है कि कार्यक्रमों को ऐसे तरीके से तैयार और संप्रेषित किया जाए जो सभी लिंगों के लिए सम्मानजनक और समावेशी हो। विकास गैर-लाभकारी संस्था ACDI/VOCA की 2020 की वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार, जो भाषा लैंगिक पहचान के विविध स्पेक्ट्रम को स्वीकार करने में विफल रहती है, वह कमजोर आबादी को हाशिये पर धकेल देती है और विकास कार्यक्रमों की प्रभावशीलता में बाधा डालती है। संवाद बॉक्स_लिंग समावेशी भाषा के साथ महिलाओं का एक कोलाज    सार्वजनिक संचार में समावेशी भाषा का सावधानीपूर्वक उपयोग समय के साथ सामाजिक दृष्टिकोण को बदलता है।  भाषा हमारे सोचने और कार्य करने के तरीके को कैसे बदल देती है भाषा केवल वास्तविकता का वर्णन नहीं करती बल्कि उसे आकार देती है। हम जिन शब्दों का उपयोग करते हैं वे हमारे सोचने के तरीके और हमारे आसपास की दुनिया को समझने के तरीके को प्रभावित करते हैं। उदाहरण के लिए, जिन भाषाओं में लिंगवाचक संज्ञा और सर्वनाम होते हैं, जैसे अंग्रेजी, वे अक्सर अधिक प्रतिबिंबित करती हैंपुरुषों और महिलाओं के लिए कठोर सामाजिक भूमिकाएँ। दूसरी ओर, लिंग-तटस्थ सर्वनाम वाली भाषाएँ – जैसे हिंदी (‘आप’), कन्नड़ (‘अवारु’), या तमिल (‘अवारकल’) – लिंग भूमिकाओं पर अधिक तरल और न्यायसंगत विचारों को प्रोत्साहित करती हैं। इसका विस्तार इस बात पर है कि विकास कार्यक्रम कैसे तैयार किये जाते हैं। जब नीतियों में लिंग-विशिष्ट भाषा का उपयोग किया जाता है, तो यह अनजाने में गैर-द्विआधारी व्यक्तियों को बाहर कर सकता है या पारंपरिक लिंग मानदंडों को सुदृढ़ कर सकता है। विचार करें कि गैर-बाइनरी लोगों को शामिल किए बिना कितनी बार सार्वजनिक कार्यक्रमों का विपणन ‘माताओं’, ‘पिताओं’, ‘बेटों’ और ‘बेटियों’ के लिए किया जाता है। विकास परियोजनाओं और पहलों के निर्माण में लिंग-समावेशी भाषा को शामिल करके इसे संबोधित किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, वित्तीय साक्षरता प्रशिक्षण के लिए ‘गृहिणियों’ को लक्षित करने के बजाय, कार्यक्रम को ‘देखभाल करने वालों’ के समर्थन के रूप में तैयार करने से उन पुरुषों और गैर-बाइनरी व्यक्तियों को शामिल किया जाएगा जो देखभाल करने वाले कर्तव्यों का पालन भी करते हैं। शब्दों में यह छोटा बदलाव यह सुनिश्चित करता है कि पहल अधिक समावेशी है और उन लोगों के व्यापक दायरे तक पहुंचती है जिन्हें समर्थन की आवश्यकता है। जैसा कि ऑक्सफैम ने अपने समावेशी भाषा गाइड में बताया है, सार्वजनिक संचार में समावेशी भाषा का सावधानीपूर्वक उपयोग समय के साथ सामाजिक दृष्टिकोण को बदल देता है। जो छोटे, सूक्ष्म परिवर्तन प्रतीत हो सकते हैं वे व्यापक सामाजिक स्वीकृति और परिवर्तन का कारण बन सकते हैं। भेदभावपूर्ण भाषा का उपयोग करने की कीमत आहत भावनाओं से कहीं अधिक है – यह बहिष्कार के चक्र को कायम रखती है और असमानता को गहरा करती है। ट्रांसजेंडर, गैर-बाइनरी और लिंग-गैर-अनुरूपता वाले लोगों सहित लिंग-विविध व्यक्ति पहले से ही बुनियादी मानवाधिकारों के लिए प्रणालीगत लड़ाई लड़ रहे हैं। जब भाषा उन्हें बाहर कर देती है, तो यह उनकी अदृश्यता को मजबूत करके उनके संघर्ष को जटिल बना देती है। समावेशी भाषा सिर्फ सम्मान का मामला नहीं है; यह हाशिए पर मौजूद समूहों के अस्तित्व और दृश्यता को सुनिश्चित करने के लिए एक महत्वपूर्ण उपकरण है। स्वास्थ्य देखभाल पहुंच का उदाहरण लें। चिकित्सा सहायता चाहने वाली एक ट्रांसजेंडर महिला को उचित देखभाल मिलने की संभावना कम हो सकती है यदि स्वास्थ्य प्रपत्रों पर या चिकित्सा प्रणालियों के भीतर की भाषा सख्ती से द्विआधारी है। जब आधिकारिक दस्तावेज़ और प्रपत्र यह मानते हैं कि सभी व्यक्ति दो श्रेणियों में से एक में फिट होते हैं – पुरुष और महिला – तो यह इन बायनेरिज़ के बाहर के लोगों को उन स्थानों पर नेविगेट करने के लिए मजबूर करता है जो उनके लिए डिज़ाइन नहीं किए गए हैं। यह मुद्दा स्वास्थ्य सेवा से परे शिक्षा, रोजगार और कानूनी प्रणालियों तक फैला हुआ है – इन सभी तक पहुंच समाज में समृद्धि के लिए आवश्यक है। भारत जैसे देश में, जहां हिजड़ा समुदाय और अन्य लिंग-विविध समूहों को ऐतिहासिक रूप से कलंक का सामना करना पड़ा है, भेदभावपूर्ण भाषा पूरी आबादी को हाशिए पर डाल देती है और एक ऐसा वातावरण बनाती है जहां लोगों को उनके मूल अधिकारों से केवल इसलिए वंचित कर दिया जाता है क्योंकि वे पारंपरिक लिंग श्रेणियों में फिट नहीं होते हैं। लिंग-समावेशी भाषा में सामाजिक दृष्टिकोण को बदलने की शक्ति होती है लिंग-समावेशी भाषा परिवर्तन का एक शक्तिशाली एजेंट है। अध्ययनों से पता चला है कि जो देश और संस्कृतियाँ लिंग-समावेशी भाषा को प्राथमिकता देते हैं, वे लैंगिक समानता के प्रति अधिक प्रगतिशील सामाजिक दृष्टिकोण प्रदर्शित करते हैं। उदाहरण के लिए, ऑस्ट्रेलिया में विक्टोरिया सरकार ने अपनी वेबसाइट पर लिंग-समावेशी भाषा के उपयोग की समीक्षा करने के लिए एक प्राकृतिक भाषा प्रसंस्करण (एनएलपी) दृष्टिकोण लागू किया। एक अध्ययन में पाया गया कि जैसे-जैसे राज्य में लिंग-समावेशी शब्द अधिक आम होते गए, सार्वजनिक धारणा लिंग-विविध व्यक्तियों की अधिक स्वीकार्यता की ओर स्थानांतरित हो गई। समावेशी भाषा दृष्टिकोण को नया आकार दे सकती है। जबकि कई भारतीय भाषाओं में लिंग-तटस्थ सर्वनाम हैं, चुनौती स्थापित सामाजिक मानदंडों को बदलने में है। उसिनशैक्षिक अभियानों या सरकारी कार्यक्रमों में तटस्थ भाषा पारंपरिक मानदंडों को चुनौती दे सकती है और लिंग की अधिक समावेशी समझ को बढ़ावा दे सकती है। उदाहरण के लिए, छोटे बच्चों को घर पर लिंग तटस्थता की अवधारणा से परिचित कराया जा सकता है जब खाना पकाने और सफाई की भूमिकाएँ स्वचालित रूप से माँ को नहीं सौंपी जाती हैं। हम घरेलू कामकाज को लिंग-तटस्थ के रूप में प्रस्तुत करके शिक्षा प्रणाली के माध्यम से भी कहानी को पलट सकते हैं। हाल ही में, केरल ने समानता को बढ़ावा देने के लिए स्कूल की पाठ्यपुस्तकों में लिंग-तटस्थ छवियां पेश कीं। ये छवियां रसोई में काम करते हुए पुरुष आकृतियों को दिखाकर पारंपरिक लिंग भूमिकाओं और रूढ़िवादिता को चुनौती देती हैं। फ़्रेमिंग में इस विरोधाभास का एक उदाहरण माता-पिता की भागीदारी से संबंधित शैक्षिक कार्यक्रमों में देखा जा सकता है। एक पारंपरिक दृष्टिकोण यह कहा जा सकता है: “यह कार्यक्रम बच्चों के लिए पोषण के महत्व पर माताओं को शिक्षित करने के लिए बनाया गया है।” इसके विपरीत, एक लिंग-समावेशी वाक्यांश होगा: “यह कार्यक्रम बच्चों के लिए पोषण के महत्व पर देखभाल करने वालों को शिक्षित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।” लिंग-तटस्थ संदर्भ सेटिंग की जांच करने का एक और आसान तरीका ‘फ्लिप टेस्ट’ करना होगा – जब कोई विशेष कथन या कार्य महिलाओं या पुरुषों से जुड़ा हो, तो संदर्भ को पलटें और देखें कि क्या यह दूसरे लिंग के लिए उपयुक्त होगा। यदि यह पलटता नहीं है, तो हमें इसे लिंग तटस्थ बनाने की आवश्यकता है। विकास क्षेत्र की पहुंच और प्रभाव इसे लिंग-समावेशी भाषा को अपनाने में अग्रणी बनने में सक्षम बनाता है। आंतरिक रूप से: संगठनों के भीतर, कर्मचारी हैंडबुक से लेकर आंतरिक संचार तक, संचालन के हर पहलू में समावेशी भाषा को शामिल किया जाना चाहिए। यह सुनिश्चित करने के लिए लिंग-समावेशी शैली मार्गदर्शिकाएँ विकसित की जानी चाहिए कि सभी संचार लिंग विविधता की समझ को प्रतिबिंबित करें। इसके अतिरिक्त, क्षेत्र अनुसंधान, सर्वेक्षण और कार्यक्रम डिजाइन में विविध लिंग पहचान को समायोजित किया जाना चाहिए। उदाहरण के लिए, सर्वेक्षण में उत्तरदाताओं को पुरुष और महिला श्रेणियों तक सीमित रखने के बजाय लिंग विकल्पों की एक श्रृंखला शामिल हो सकती है। बाह्य रूप से: हाशिये पर पड़े समुदायों के साथ सीधे काम करने वाले गैर-लाभकारी संगठनों के पास सार्वजनिक संचार में समावेशी भाषा का उपयोग करने का अवसर और जिम्मेदारी दोनों है। यह इतना सरल हो सकता है जितना यह सुनिश्चित करना कि सभी आउटरीच सामग्री तटस्थ शब्दों का उपयोग करती हैं जो द्विआधारी लिंग भूमिकाओं को सुदृढ़ नहीं करती हैं। उदाहरण के लिए, बाल कल्याण अभियानों में ‘माँ’ के स्थान पर ‘माता-पिता’ या ‘पिता’ के स्थान पर ‘अभिभावक’ को शामिल करना उन्हें अधिक समावेशी बना सकता है। संगठनों को अपने दृश्य संचार में विविध लिंग प्रतिनिधित्व को उजागर करने का भी लक्ष्य रखना चाहिए। जब छवियां, केस अध्ययन, या प्रशंसापत्र लगातार लैंगिक भूमिकाओं के बारे में एक संकीर्ण दृष्टिकोण दर्शाते हैं (उदाहरण के लिए, गुलाबी रंग में महिलाएं या आधिकारिक व्यक्ति के रूप में पुरुष), तो यह हानिकारक रूढ़िवादिता को मजबूत करता है। इसके बजाय, दृश्य कहानी कहने में विभिन्न प्रकार के चेहरे और लिंग पहचान की विशेषता समावेशिता का एक शक्तिशाली संदेश भेज सकती है। अनिताबी.ओआरजी का वार्षिक ग्रेस हॉपर सेलिब्रेशन (जीएचसी), महिला प्रौद्योगिकीविदों का दुनिया का सबसे बड़ा जमावड़ा, सक्रिय रूप से विविध लिंग प्रतिनिधित्व का उपयोग करता है। जीएचसी में, हम यह सुनिश्चित करते हैं कि हमारा दृश्य संचार लिंग पहचान और भूमिकाओं के व्यापक स्पेक्ट्रम को प्रतिबिंबित करता है। केवल सिजेंडर महिलाओं को चित्रित करने के बजाय, यह कार्यक्रम नेतृत्व और नवाचार सहित विभिन्न तकनीकी क्षेत्रों में विविध व्यक्तियों-महिलाओं, ट्रांस व्यक्तियों, गैर-बाइनरी लोगों और सहयोगियों को प्रदर्शित करता है। लिंग-समावेशी भाषा को लागू करने में चुनौतियाँ भारत में लिंग-समावेशी भाषा को अपनाना देश की विशाल भाषाई विविधता के कारण विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण है। जबकि कुछ भारतीय भाषाएं ऑफर करती हैंलिंग-तटस्थ सर्वनाम, जैसे हिंदी में ‘आप’ (आप), वे अभी भी लिंगवाचक संज्ञाओं और क्रियाओं से भरे हुए हैं जो पारंपरिक भूमिकाओं को मजबूत करते हैं। उदाहरण के लिए, हिंदी में, व्यवसायों के लिए उपयोग किए जाने वाले शब्द, जैसे ‘शिक्षक’ (पुरुष शिक्षक) और ‘शिक्षिका’ (महिला शिक्षक), लिंग द्विआधारी को दर्शाते हैं। लिंग के आधार पर क्रियाएं भी बदलती हैं, उदाहरण के लिए, ‘वो गई’ (वह गई) और ‘वो गया’ (वह गया)। इससे लिंग पर ज़ोर दिए बिना लोगों या भूमिकाओं पर चर्चा करना मुश्किल हो जाता है। इसी तरह, तमिल में, हालांकि ‘अवारका’ (वे) जैसे सर्वनाम मौजूद हैं, लिंग भेद ‘आसिरियार’ (पुरुष शिक्षक) और ‘आसिरियाई’ (महिला शिक्षक) जैसे शब्दों में अंतर्निहित हैं। यह जटिलता गुजराती और मराठी जैसी भाषाओं में बढ़ जाती है, जहां क्रिया और संज्ञा अक्सर लिंग के आधार पर बदल जाती हैं, जिससे समावेशी समकक्ष ढूंढना मुश्किल हो जाता है। भारत भर में आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त 22 भाषाओं और अनगिनत बोलियों में लैंगिक समावेशिता की अवधारणाओं का अनुवाद करना और भी जटिल हो जाता है। एक भाषा की बारीकियाँ हमेशा दूसरी भाषा में नहीं चलती हैं, जिससे समावेशन प्रयासों में अंतराल पैदा होता है। इसके अलावा, कई गैर-लाभकारी संस्थाओं में नेतृत्व की भूमिकाएं पुरुष-प्रधान होती हैं, जिससे लिंग-तटस्थ भाषा पर जोर देना एक कठिन लड़ाई बन जाती है। ग्रामीण क्षेत्रों में, जहां साक्षरता दर अक्सर कम होती है और मौखिक संचार को प्राथमिकता दी जाती है, केवल लिंग-समावेशी भाषा पर लिखित सामग्री वितरित करना पर्याप्त नहीं हो सकता है। इसके बजाय, सामुदायिक कार्यशालाएँ, इंटरैक्टिव कहानी सुनाना और भूमिका निभाने वाली गतिविधियाँ अंतर को पाटने में मदद कर सकती हैं। ये विधियां सुविधाकर्ताओं को समुदायों के साथ सीधे जुड़ने की अनुमति देती हैं, एक ऐसे वातावरण को बढ़ावा देती हैं जहां वास्तविक समय में लिंग मानदंडों पर सवाल उठाया जा सकता है और चर्चा की जा सकती है। उदाहरण के लिए, गाँव की बैठकें यह प्रदर्शित करने के लिए भूमिका निभा सकती हैं कि भाषा कैसे धारणाओं को प्रभावित करती है, समुदाय के सदस्यों को यह समझने में मदद करती है कि लिंग-विशिष्ट शब्दों जैसे ‘शिक्षक’ या ‘शिक्षिका’ के बजाय ‘शिक्षक’ जैसे समावेशी शब्दों का उपयोग करना क्यों महत्वपूर्ण है। एक अभियान जो भाषा को ‘महिला उद्यमी’ (महिला उद्यमी) से बदलकर केवल ‘उद्यमी’ (उद्यमी) कर देता है, यह संदेश देता है कि किसी के सफल होने की क्षमता में लिंग एक निर्णायक कारक नहीं है। कथा आकार देने वालों के रूप में मीडिया की महत्वपूर्ण भूमिका पत्रकारों, संपादकों और मीडिया आउटलेट्स के पास या तो हानिकारक रूढ़िवादिता को मजबूत करने या अपनी भाषा विकल्पों के माध्यम से समावेशिता को बढ़ावा देने की शक्ति है। जब मीडिया गरिमा, सम्मान और सटीकता के साथ लिंग-विविध व्यक्तियों पर रिपोर्ट करता है, तो यह न केवल सार्वजनिक धारणा को बदलता है बल्कि इन समुदायों को बहुत जरूरी दृश्यता भी प्रदान करता है। हम नियमित रूप से समाचार रिपोर्टों को गैर-द्विआधारी व्यक्तियों की यात्रा के प्रति असंवेदनशील होते हुए देखते हैं, जिसमें उनका नामकरण किया जाता है, गलत शब्दों का उपयोग किया जाता है, या संज्ञा के रूप में ‘ट्रांसजेंडर’ शब्द का उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि मीडिया के लिए लिंग संवेदीकरण एक पूरक कार्रवाई नहीं है बल्कि यह सुनिश्चित करने के लिए एक अभिन्न कदम है कि हम जो कहानियां सुनाते हैं वे उत्थानकारी हैं और इसमें सभी को शामिल किया गया है। उदाहरण के लिए, इंडियन एक्सप्रेस की समाचार रिपोर्ट में मणिपुर देश का पहला ऐसा राज्य बन गया है, जहां पूरी तरह से ट्रांसजेंडर फुटबॉल टीम है, जिसमें टीम में ट्रांसमेन, ट्रांसवुमेन और अन्य समलैंगिक व्यक्तियों सहित अलग-अलग लिंग पहचान निर्दिष्ट की गई हैं। इस प्रकार रिपोर्टिंग न्यायसंगत और समावेशी तरीके से की गई। अनिताबी.ओआरजी इंडिया में, हम मीडिया के प्रभाव को पहचानते हैं और हमने लैंगिक संवेदनशीलता को अपनी पहुंच का केंद्रबिंदु बनाया है। पत्रकारों के लिए कार्यशालाओं के माध्यम से, हमारा लक्ष्य उन्हें लिंग-विविध समुदायों का सटीक प्रतिनिधित्व करने और हानिकारक कथाओं को चुनौती देने के लिए उपकरणों से लैस करना है। चुनौतियों के बावजूद, आगे बढ़ेंलिंग-समावेशी भाषा कहीं न कहीं से शुरू होनी चाहिए। छोटे कदम दृष्टिकोण बदलने और सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकते हैं। लगातार समावेशी भाषा का उपयोग करके, विकास संगठन अन्य क्षेत्रों के अनुसरण के लिए एक शक्तिशाली उदाहरण स्थापित कर सकते हैं। गैर-लाभकारी संस्थाएं लैंगिक समावेशिता और भाषा पर केंद्रित कार्यशालाओं और प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन या उनमें भाग ले सकती हैं। इसके अतिरिक्त, मीडिया हाउस और संचार टीमें संगठन की सामग्री में विविध लिंग प्रतिनिधित्व को शामिल करने के लिए सक्रिय रूप से प्रयास कर सकती हैं। वास्तव में समावेशी भाषा की दिशा में यात्रा जारी है और इसके लिए निरंतर सीखने और अनुकूलन की आवश्यकता है। जैसे-जैसे हम आगे बढ़ते हैं, लिंग-विविध समुदायों से प्रतिक्रिया के लिए खुला रहना आवश्यक है, यह सुनिश्चित करते हुए कि समावेशिता के हमारे प्रयास वास्तव में उनकी आवश्यकताओं और अनुभवों को प्रतिबिंबित करते हैं। इस संवाद को विकसित करके और अपने दृष्टिकोण को लगातार परिष्कृत करके, हम एक ऐसे समाज का निर्माण कर सकते हैं जहां भाषा एक बाधा के बजाय एक पुल के रूप में कार्य करेगी।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
[3)
कहानी
भगवान की चिट्ठी
विजय गर्ग
एक घर में मां बेटी रहती थी रात का समय था।  दरवाजे पर खटखटाने की आवाज आई मां और बेटी बहुत गरीब थे।  छोटे से घर में रहते थे बेटे ने दरवाजा खोला तो वहां पर कोई नहीं था नीचे देखा तो चिट्ठी पड़ी हुई थी बेटी ने चिट्ठी खोलकर पढ़ी तो हाथ कांपने लगा  और जोर से चिल्लाई मां इधर आओ चिट्ठी में लिखा था बेटी मैं तुम्हारे घर आऊंगा तुमसे और तुम्हारी मां से मिलने और नाम की जगह नीचे लिखा था भगवान।
 मां ने कहा यह शायद हमारी गली के किसी लड़के ने तुम्हें छेड़ने के लिए बहुत ही गंदी शरारत की है लेकिन बेटी को मां की बात पर यकीन ही नहीं हो रहा था बेटी बोली मां पता नहीं क्यों मुझे यह सच लग रहा है मां को मना कर बेटी और मां दोनों तैयारी में लग गई घर भले ही छोटा सा था लेकिन दिल बहुत अमीर।
 घर पर एक चटाई थी मेहमानों के लिए थे   निकाल कर बिछा  दी और रसोई घर में जाकर देखा तो खाने का एक दाना नहीं था।  बेटी और मां दोनों गहरी सोच में पड़ गए हैं यदि भगवान सच में आ गए तो खाने में कुछ नहीं दे पाएंगे।  आगे पीछे का कुछ नहीं सोचा बचत के 300 रुपए  बेटी के पास थे पैसे लेकर वे दोनों छाता और कंबल लेकर किराने की दुकान के लिए निकल पड़े बारिश होने वाली थी और ठंड भी बहुत ज्यादा थी एक पैकेट दूध एक मिठाई का बॉक्स और कुल 200 रुपये  की चीजें खरीद कर वापस लौट आए।  क्योंकि उन्हें लगा शायद भगवान घर पर पहुंच गए होंगे घर से थोड़ी दूर पहुंची तो देखा कि जोर से बारिश शुरू हो गई और सड़क किनारे एक पति-पत्नी खड़े थे और ऑटो पास से गुजरा तो लड़की ने देखा उनके हाथ में छोटा बच्चा रो रहा था स्थिति कुछ ठीक नहीं लग रही थी है ऑटो  घर के दरवाजे पर पहुंचा मां ऑटो से उतरी थी की बेटी से रहा नहीं गया बोली ऑटो वाले भैया जरा ऑटो  को उनके पास ले लो पास जाकर देखा तो बच्चे को तेज बुखार था और उनके पास खाने के लिए कुछ नहीं था एक तरफ भगवान घर पर आने वाले हैं और दूसरी तरफ यह समस्या बेटी ने सोचा भगवान को मना लूंगी लेकिन यदि इन्हें ऐसे ही हाल में छोड़ दिया गया तो भगवान बिल्कुल भी माफ नहीं करेंगे।
बेटी  ने जो-जो खरीदा था सब  उनके हाथ में थमा दिया और तो और बचे हुए पचास रुपए भी दे दिए और बोली अभी मेरे पास इतना ही है इसलिए रख लीजिए बारिश हो रही थी तो छाता भी दे दिया और बच्चे को ठंड न लगे इसलिए कंबल भी दे दिया।
 वहां से फटाफट घर पहुंचे यह सोचकर कि भगवान आ गए होंगे लेकिन दरवाजे पर मां खड़ी थी बोली आने में इतनी देर क्यों लगा दी बेटी और यह देख एक और चिट्ठी आई है।
पता नहीं किसकी है बेटी ने पढ़ना शुरू किया उसमें लिखा था बेटी आज तुमसे मिलकर बहुत खुशी हुई पहले से दुबली हो गई हो लेकिन आज भी उतनी ही सुंदर हो मिठाई बहुत अच्छी थी और तुम्हारे दिए हुए कंबल से बहुत आराम मिला छाता देने के लिए धन्यवाद बेटी।
 अगली बार मिलते ही लौटा दूंगा बेटी के तो होश उड़ गए निशब्द होकर पीछे मुड़कर सड़क किनारे देखा तो वहां कोई नहीं था चिट्ठी में आगे लिखा था इधर उधर मत ढूंढो मुझे मैं तो कण-कण में हूं जहां पवित्र सोच हो  मैं हर उस मन में हूं यदि दिखे कोई जरूरतमंद तो मैं उस हर जरूरतमंद  मे हूं बेटी जोर से रो पड़ी और मां को सब बताया दोनों बहुत भावुक हो गए और पूरी रात सो नहीं पाए दोस्तों अब आप सभी से एक प्रश्न है यह बेटी सच में गरीब थी जरा  सोचिए और अपने दिल से इस सवाल का जवाब दीजिएगा क्योंकि व्यक्ति मरने के बाद अपने साथ पैसे नहीं बल्कि कर्म लेकर जाता है और जरूरी नहीं कि हर पैसे वाला व्यक्ति अच्छे कर्म लेकर जा रहा हो इसीलिए कोशिश करें कि पैसों से अमीर हो या गरीब लेकिन कर्मों से अमीर जरूर बने..
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल मलोट
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