पंचमू की ब्वारी का क्या रखा है पहाड़ में बोलने वाले देवर को सोशल मीडिया में जबाब।
आज सतपुली में बारिश झुरमुर झुरमुर हो रही थी, पंचमू की ब्वारी ने बुखाणा भूज कर लायी थी दुकान में बैठकर भूखाण चबा रही थी, तभी दुकान में उनका ममे ससुर का बेटा बसन्तू जो दिल्ली में रहता है, आ गया। चौबट्टाखाल से दिल्ली जाने वाले मैक्स कैब से वह दिल्ली जा रही थी। सतपुली में लंच करने के लिये आधा घन्टा सतपुली में रूकती है, बसन्तू ने सोचा कि चलो थोड़ी देर भौजी से मुलजात कर चलूं, तब वह पंचमू को मिलने बुटीक में गया। दोनों में दुवा सलाम हुई और घर के हाल समाचार एक दूसरे से पूछे। पंचमू के ब्वारी ने कहा कि देवर जी आज यंही रूक जाओ, कल चले जाना।। बसन्तू ने कहा कि भाभी जी आज जाना जरूरी है ,फिर कभी रुकेंगे। उन दोनों में पलायन पर चर्चा शुरू हो गयी, बसन्तू ने कहा कि भाभी जी पहाड़ में रोजगार नही, खेती नही, अस्पताल नही , शिक्षा नही, किसलिये कोई इस पहाड़ में रहेगा, पलायन होना तो स्वाभाविक है। इन्ही बातों पर दोनों में काफी तर्क वितर्क होते रहे, थोड़ी देर बाद जिस गाड़ी से बसन्तू गाँव से आया था, उसने दिल्ली जाना था, उसके छत पर बहुत से कट्ठे रखे थे, जिंसमे बसन्तू के तीन कट्ठे थे, जिसमें, अरबी, आलू, हल्दी, गहथ, चूंन छीमी, लहसून, उड़द, अदरक, जैसा घर का बहुत सारा सामान बसन्तू की माँ ने रखा था। पंचमू की ब्वारी ने बसन्तू को जब कहा कि रात यंही रुको तब बसन्तू ने कहा कि भाभी जी गाड़ी में यह सब सामान रखा है, गाड़ी से उतारना मुश्किल होगा। यह देखकर पंचमू की ब्वारी को हैरानी हुई कि अभी बसन्तू कह रहा था कि अगर पहाड़ में कुछ नही रखा है तो फिर हर रोज गाड़ी के छतों में ये कट्ठे भरकर किस चीज के जाते हैं, इन कठ्ठो मे रखा सामान भी तो पहाड़ से पलायन कर रहा है। इस बात से पंचमू की ब्वारी को बहुत गुस्सा आया तब उन्होंने उस गाड़ी कि फ़ोटो ली और सोशल मीडिया के माध्यम से अपनी बात कुछ इस तरह से रखी।
हमारे पहाड़ आज भी हरे भरे हैं, आज भी हम ताजी भुज्जी खाते हैं, पहाड़ी गौड़ी का ताजा दूध पीते हैं, साफ पानी और हवा लेते हैं, जो प्रवासी लोग कहते हैं कि पहाड़ में क्या रखा है, उनसे मैं यह कहना चाहती हूँ कि हमारे पहाड़ में बहुत कुछ अभी वैसा की वैसा ही है जैसे पहले था। आज भी सब लोग भले सुविधा के अभाव के कारणों से यँहा से शहरों में बस गए हो, लेकिन आज भी वह वँहा जाकर शाम को ढूढंते तो चूंन, गहथ, भटवाणी, कंडाली ही है, घर की सब्जी का स्वाद तो आज भी उनके मुंह से नही गया। तभी तो जब घर आते है तो गाँव से कट्ठे भर भरकर अपने लिये लेकर जाते हैं, भले ही वह खोखले सपने शहरों में रहकर पालते हो लेकिन दिल तो उनका पहाड़ में ही बसता है।
बसन्तु को ही देख लो, अपनी बूढ़े माँ बाप की मेहनत की कमाई को भी दिल्ली लेकर जा रहा है, ऐसे हर रोज इस पहाड़ से सभी चीजें गाड़ी की छतों में हर रोज जाता है, तब लोग कहते हैं कि क्या रखा है, पहाड़ में, यदि कुछ नही रखा है पहाड़ में तो ये गाड़ियों की छतों में क्या जा रहा है। आज भी खेती जैसे पहले जैसे होती है, लेकिन करने वालो की संख्या कम हो गयी है, खेती सिमटकर घर के पास आ गई है, जिस कारण जंगली जानवर भी घर के नजदीक आ गए हैं।
पहले खेती हर जगह होती थी तो जानवर दूर के खेतों में ही नुकसान पहुँचाते थे, तब नजदीक के खेतों की फसल बची रहती थी, लेकिन अब खेती बहुत ही कम मात्रा में होंने से जानवर उस खेती को नुकसान पहुचाने लगे हैं, क्योकि उनके घर यानी जंगल मे केवल झाड़ी ही बची है, जंगलों में फलो के पेड़ कम हो गए हैं, या खेती ना के बराबर होने से वह घर की खेती को ही नुकसान कर रहे हैं। लेकिन इसके बावजूद भी बूढ़े माँ बाप आज भी अपने नाती नतनो के लिये दो चार खेत करके अनाज उगा रहे हैं, वो अनाज भी पलायन होकर शहरों की तरफ जा रहा है।
अतः किसी को यह कहने का कोई अधिकार नही है कि पहाड़ो में क्या रखा है, अगर किसी को यह लगता है कि कुछ नही रखा है तो वह फिर अपने खाने के लिये पहाड़ का अनाज ना ढूंढे, वह अरसो को देखकर मुंह से लार ना टपकाये, गहथ का फाणु को देखकर उनका गला टर टर ना करे, और घिंडक्या थिवचवाड़ी देखकर ललचाया मत करो, अगर ऐसा होता है तो अपने को पहाड़ी कहने में शरमाया मत करो। अरे आज भी हमारे पहाड़ में पहले की तरह वैसा ही नैसर्गिक है जैसे वर्षो से है, बस भौतिकवादी सुख सुविधा थोड़ा कम है, लेकिन जो भौतिक वादी सुखों से लवरेज है, क्या वह हमसे ज्यादा सुखी है, कहते है ना कि दूर के ढोल सुहाने होते हैं। चलो अब से कोई मत कहना कि क्या रखा है पहाड़ में, अगर कुछ नही रखा तो फिर गाड़ियों की छतो में कठ्ठो को भरकर मत ले जाना, ऊँन्हे इस पहाड़ के पहाड़ियों को छोड़कर चले जाना, लेकिन यदि गर्व से कहोगे की बल हम तो पहाड़ी है, तो जरूर दयवता पूजने आना रूडीयूँ की छुट्टी में मेरे पहाड़ में दयवता नचाकर खूब कट्ठे भरकर ले जाना तब तुम साथ मे।
पँचमू की ब्वारी सतपुली से।
©®@हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।।✒???✒