हरिद्वार,नमामि गंगे परियोजना के तहत गंगा घाटों और गंगा को स्वच्छ रखने के लिए हर साल करीब ₹5 करोड़ रुपया खर्च किया जाता है लेकिन आज आपको वह हकीकत दिखाते हैं जिससे साफ होता है कि इस योजना को चलाने वाली संस्था आकांक्षा वेस्ट मैनेजमेंट प्राइवेट लिमिटेड नामक संस्था किस तरह शहर की सड़कों को गंदा कर जहां सरकार को हर साल करोड़ों का चूना लगा रही है वहीं शहर की आम जनता को भी कूड़े में रहने को मजबूर कर रही है गंगा घाटों की सफाई को लेकर सत्ता में बैठे नेता और अधिकारी तो योजना बनाकर पैसा बांट देती है लेकिन वह शायद यह देखना भूल जाती है कि उस पैसे का सही उपयोग हो भी रहा है नहीं। हालात यह है कि घाटों से उड़द उठाए गए टनो कूड़े को शहर से दूर डंप कराने के बजाय शहर की सड़कों पर बिखेरा जा रहा है जिसे शायद कोई रोकने वाला नहीं है
आपको बता दें कि जहां गंगा घाटों की सफाई की जिम्मेदारी आकांक्षा नामक संस्था को दी गई है वहीं शहर के तमाम कूड़े को उठाने की जिम्मेदारी केआरएल नामक संस्था को दी गई है यह संस्था शहर से कूड़े को उठाकर डंपिंग यार्ड तक पहुंचाती है लेकिन आकांक्षा के कर्मचारी उठाए गए थोड़े को निर्धारित स्थान पर डम कराने के बजाय शहर की सड़कों पर डाल भूल जाते हैं आकांक्षा के पास 68 ऐसे गंगा घाटों की सफाई की जिम्मेदारी है जिन पर उड़ा ढलता है हैरानी की बात यह है कि 68 घाटों में से 14 घाट ऐसे हैं जिनका अभी तक निर्माण भी पूरा नहीं हुआ है लेकिन संस्था इन घाटों की सफाई के नाम पर पैसा लगातार लूट रही है गंगा घाटों से उठने वाले कूड़े खुलेआम हरिद्वार की सड़कों पर डाल उन्हें गंदा किया जा रहा है इस कूड़े को साफ करने की जिम्मेदारी केआरएल नामक संस्था की नहीं है लेकिन इसके बावजूद वे इस कूड़े को उठाने को मजबूर हैं कई बार आकांक्षा नामक संस्था को इस संबंध में सूचित करने के बावजूद आकांक्षा के कर्मचारियों के बर्ताव में कोई बदलाव आता नजर नहीं आ रहा है हैरानी की बात है कि जहां 68 घाटों की सफाई की जिम्मेदारी आकांक्षा को देकर उसे साल करीब 5 करोड़ रुपए दिए जा रहे हैं वही पूरे शहर को साफ सुथरा रखने की जिम्मेदारी बखूबी निभा रही केआरएल नामक संस्था को महज सवा तीन करोड़ रुपए ही दिए जा रहे हैं यदि 5 करोड़ रुपया लेने के बाद भी आकांक्षा नामक संस्था ने यह पूरा शहर की सड़कों पर ही डालना है तो उसे किस बात का इतना मोटा भुगतान किया जा रहा है ऐसा नहीं कि इसकी जानकारी आला अधिकारियों को नहीं है लेकिन इसके बावजूद शायद कोई कुछ करने को तैयार ही नहीं है लगता है की अंदरूनी सेटिंग का खेल गंगा घाटों को बर्बाद करने में लगा हुआ है गंगा को स्वच्छ रखने के जितने दावे संस्था करती है और उसके एवज में जितना पैसा वसूलती है उसका अधिकतर हिस्सा कंपनी के मालिकों और अधिकारियों की जेबों में जाता है हालात यदि यही रहे तो आने वाले दिनों में धर्म नगरी की हालत और बदतर हो जाएगी।