देहरादून : उत्तराखंड के लिए 2017 सबसे बड़े बदलाव का साल साबित हुआ। गुजरे सोलह साल और तीन विधानसभा चुनाव में जो नहीं हुआ, सूबे के अवाम ने वह कर दिखाया। इस साल की शुरुआत में हुए चौथे विधानसभा चुनाव में भाजपा ने ऐतिहासिक जीत के साथ सत्ता में वापसी की। यह पहला मौका रहा, जब किसी पार्टी को विधानसभा चुनाव में इतना बड़ा जनादेश हासिल हुआ। भाजपा विधानसभा की 70 में से 57 सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल हो गई। सोलह सालों की राजनैतिक अस्थिरता खत्म कर उत्तराखंड ने मजबूत सरकार की ओर कदम बढ़ा दिए। यही नहीं, यह भी पहली बार हुआ कि सत्ता हासिल करने वाली पार्टी ने मुख्यमंत्री ऊपर से नहीं थोपा और किसी निर्वाचित विधायक को सरकार की बागडोर सौंपी।
साल 2016 में अस्थिरता का चरम
वर्ष 2016 में उत्तराखंड ने राजनैतिक अस्थिरता का चरम देखा था। दस कांग्रेस विधायकों के विद्रोह कर देने से तत्कालीन कांग्रेस सरकार संकट में घिर गई। ये सभी विद्रोही कांग्रेस विधायक भाजपा में शामिल हो गए। भाजपा ने विधानसभा चुनाव से पहले ही सत्ता पर काबिज होने की कोशिश की मगर कांग्रेस छोडऩे वाले विधायकों की सदस्यता विधानसभा अध्यक्ष द्वारा समाप्त कर दिए जाने से उसके मंसूबे पूरे नहीं हो पाए। हाईकोर्ट होते हुए मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा और फ्लोर टेस्ट के जरिये तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीश रावत सरकार बचा ले गए। उत्तराखंड जैसे छोटे से राज्य ने राजनीति के इस स्वरूप को पहली बार देखा। तब शायद कांग्रेस और खासकर मुख्यमंत्री हरीश रावत को लगा कि इस घटनाक्रम को अपने पक्ष में सहानुभूति लहर के रूप में भुनाया जा सकता है लेकिन जनता की सोच अलग निकली।
खिन्न मतदाता ने दिया सटीक जवाब
राजनीति के इस विद्रूप चेहरे से रूबरू हुए उत्तराखंड के मतदाताओं ने विधानसभा चुनाव में इसका सटीक जवाब अपने ही अंदाज में दे दिया। हालांकि उत्तराखंड में अब तक हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस और भाजपा बारी-बारी से सत्ता हासिल करते रहे हैं लेकिन इस बार मतदाताओं ने भाजपा के पक्ष में लगभग एकतरफा जनादेश दे डाला। एक तरह से इसे राजनैतिक अस्थिरता से उपजे जनमत के रोष की अभिव्यक्ति कहा जा सकता है। दरअसल, उत्तराखंड ने कैशौर्य तक पहुंचते-पहुंचते सोलह सालों में इतनी ज्यादा राजनैतिक उठापटक देखी कि जनता भी इससे आजिज आ गई। सोलह सालों में आठ मुख्यमंत्री, यानी हर दो साल बाद नया मुख्यमंत्री। अब अस्थिरता की इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है। लाजिमी तौर पर इसका असर राज्य के विकास पर भी पड़ता रहा।
सबक लिया तो नहीं दोहराया इतिहास
जिस तरह का चरित्र उत्तराखंड के मतदाता दिखाते आए हैं उसके मुताबिक चौथे विधानसभा चुनाव में भाजपा को सत्ता में वापसी का मजबूत दावेदार माना जा रहा था मगर इसके बावजूद चुनाव के वक्त तक भी किसी को भी यह अंदाजा नहीं था कि भाजपा ऐतिहासिक जीत की ओर बढ़ रही है। इससे पहले अब तक हुए तीन विधानसभा चुनाव में सत्ता तक पहुंचा दल या तो बहुमत तक पहुंच ही नहीं पाया या फिर मामूली बहुमत से सत्ता पाई। वर्ष 2002 के पहले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने 36 सीटें जीती, यानी बहुमत को छुआभर। साल 2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा 34 सीटें लेकर सबसे बड़ी पार्टी तो बनी मगर बहुमत से दूर रही और सरकार बनाने को निर्दलीयों का सहारा लेना पड़ा। वर्ष 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस 32 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी लेकिन बाहरी मदद से ही सत्ता में आ सकी
बदलाव के रूप में एकतरफा जनादेश
पिछली तीन विधानसभाओं में सत्ताधारी दल को सुविधाजनक बहुमत न मिलने के कारण सूबे में लगातार अस्थिरता व्याप्त रही। राजनैतिक ब्लैकमेलिंग कहें या दबाव की राजनीति, सरकार और मुख्यमंत्री कुर्सी बचाने को हमेशा तुष्टिकरण में ही जुटे रहे। इस वजह से उत्तराखंड विकास की राह पर उस गति से आगे नहीं बढ़ पाया, जिस अपेक्षा के साथ इसका जन्म हुआ था। शायद यही सबसे बड़ी वजह भी रही कि इस चुनाव में मतदाता ने भाजपा के पक्ष में तीन-चौथाई से अधिक बहुमत दे दिया ताकि राजनैतिक अस्थिरता को ही सिरे से खत्म किया जा सके। हालांकि भाजपा की इतनी बड़ी जीत में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर चल रही लहर का सबसे महत्वपूर्ण योगदान रहा लेकिन इसे भी जनता में विकास के लिए बढ़ती तड़प के रूप में ही देखा जा सकता है। खासकर केंद्र व राज्य में एक ही दल की सरकार होने, यानी डबल इंजन से विकास की गाड़ी सरपट दौडऩे की उम्मीद।
हाईकमान ने नहीं थोपा मुख्यमंत्री
यह भी उत्तराखंड में पहली दफा हुआ कि पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने विधानसभा चुनाव के बाद किसी को ऊपर से मुख्यमंत्री बनाकर नहीं थोपा, बल्कि एक निर्वाचित विधायक को कुर्सी सौंपी। नौ नवंबर 2000 को उत्तराखंड गठन के वक्त नित्यानंद स्वामी को भाजपा आलाकमान ने मुख्यमंत्री बनाया था तो साल 2002 में कांग्रेस ने तत्कालीन नैनीताल सांसद नारायण दत्त तिवारी को सरकार की कमान सौंपी। फिर वर्ष 2007 के विधानसभा चुनाव में भाजपा भी इसी परिपाटी पर चली और गढ़वाल सांसद भुवन चंद्र खंडूड़ी को मुख्यमंत्री पद के लिए चुना। अगले विधानसभा चुनाव, 2012 में कांग्रेस ने फिर किसी निर्वाचित विधायक के स्थान पर तत्कालीन टिहरी सांसद विजय बहुगुणा को मुख्यमंत्री के रूप में तरजीह दी। यह परिपाटी चौथे विधानसभा चुनाव में तब खत्म हुई, जब भाजपा ने निर्वाचित विधायक त्रिवेंद्र सिंह रावत को मुख्यमंत्री बनाया।