Paryushan Mahaparva is a celebration of purifying a person from within: Journalist Pankaj Jain
हमें सत्य के मार्ग पर चलना सिखाता हैं पर्युषण महापर्व : पत्रकार पंकज जैन
आगरा। जैन धर्म के सभी त्योहारों में पर्युषण पर्व बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। जैन धर्म के श्वेतांबर और दिगंबर समाज के लोग भाद्रपद मास में पर्युषण पर्व मनाते हैं। पावन पुनीत पर्व की शुरुआत 12 सितंबर से हो गयी है। जिसका समापन 19 सितंबर को होगा। श्वेतांबर जैन धर्म के लोग 8 दिन पर्युषण पर्व मनाते हैं। इसमें जैन धर्म के लोग व्रत, उपवास, तप, करते हैं। और इसके साथ ही अपने आराध्य महावीर स्वामी जी की पूजा करते हैं।
इस अवसर पर पत्रकार पंकज जैन ने कहा कि पर्युषण महापर्व व्यक्ति को अंदर से शुद्ध करने का उत्सव हैं। पर्युषण पर्व हमें सत्य के मार्ग पर चलना सिखाता हैं। पर्युषण महापर्व का सार – “परी का अर्थ है सभी तरफ और उषा न का अर्थ है स्वयं के करीब आना और आठ शुभ दिन एक भक्त के लिए सभी तरीकों से सच्चे स्व के करीब आने का अवसर हैं। आध्यात्मिक प्रवचन, भक्ति गीत, तपस्या या यहाँ तक कि जप भी हैं। यह अवधि वह समय है जब साधक आंतरिक शुद्धि प्राप्त करने और अधिक आध्यात्मिक ऊंचाइयों को प्राप्त करने के लिए अपनी जागरूकता बढ़ाने के उद्देश्य से दुनिया से अलग हो जाता है और स्वयं से जुड़ जाता है।
पर्युषण महापर्व का मुख्य उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक उपक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना होता हैं। जैन धर्म के पर्युषण पर्व मनुष्य को उत्तम गुण अपनाने की प्रेरणा हैं। इन दिनों में लोग व्रत, तप, साधना कर आत्मा की शुद्धि का प्रयास करते हैं और स्वंय के पापों की आलोचन करते हुए भविष्य में उनसे बचने की प्रतिज्ञा करते हैं। भगवान महावीर जी के जीवन काल से प्रभावित होकर पर्युषण पर्व को मनाया जाने लगा। माना जाता है जिस दौरान भगवान महावीर जी ने शिक्षा दी थी उस समय को ही पर्युषण पर्व कहा गया था। यह हमें सत्य के मार्ग पर चलना सिखाता है।
जैन धर्म के पाँच मूलभूत सिद्धांत क्रमबद्ध रूप से हमें इस प्रकार जीवन जीना सिखाते हैं। जिससे हम अपने भीतर रही अनंत शांति एवं आनंद की अनुभूति कर सकें। नंबर एक अहिंसा : जीवन का पहला मूलभूत सिद्धांत देते हुए भगवान महावीर जी ने कहा है ‘अहिंसा परमो धर्म’। इस अहिंसा में समस्त जीवन का सार समाया है। इसे हम अपनी सामान्य दिनचर्या में तीन आवश्यक नीतियों का पालन कर समन्वित कर सकते हैं। कायिक अहिंसा यानी कष्ट न देना : यह अहिंसा का सबसे स्थूल रूप है। जिसमें हम किसी भी प्राणी को जानते अनजाने अपनी काया द्वारा हानि नहीं पहुंचाते। मानव जीवन की अमूल्यता इसी तथ्य में निहित है, कि उसके पास दूसरों को कष्ट से बचाने की अद्भुत शक्ति है। अतः स्थूल रूप से अहिंसा को मानने वाले किसी को भी पीड़ा, चोट, घाव आदि नहीं पहुँचाते। मानसिक अहिंसा यानी अनिष्ट नहीं सोचना : अहिंसा का सूक्ष्म स्तर है। किसी भी प्राणी के लिए अनिष्ट, बुरा, हानिकारक नहीं सोचना। हिंसा से पूरित मनुष्य सामान्य रूप से दूसरों को क्षति पहुँचाने के वृत्ति से भरा होता है, लेकिन अहिंसा के सूक्ष्म स्तर पर किसी की भी भावनाओं को जाने अनजाने ठेस पहुँचाने का निषेध है। बोद्धिक अहिंसा यानी घृणा न करना : अहिंसा के सूक्ष्तम स्तर पर ऐसा बोद्धिक विकास होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति,परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग हो जाता है।
श्री जैन ने आगे कहा कि हम निरंतर अपने आस पास रही उन वस्तु, व्यक्ति, परिस्थितियों के प्रति घृणाभाव से भरे रहते हैं। जो हमारे प्रतिकूल हों अथवा जिन्हें हम अपने अनुकूल न बना पा रहें हों। यह घृणा की भावना हमारे भीतर अशांति, असंतुलन व असामंजस्य उत्पन करती है। अतः अहिंसा का सूक्ष्मतर स्तर पर प्रयोग करने के लिए हमें किसी भी प्राणी से घृणा न करते हुए जीवन की हर परिस्थिति को सहर्ष स्वीकार करने की कला सीखनी होगी। हमें जीवन में रही वस्तु-व्यक्ति-परिस्थिति को हटाने का प्रयत्न नहीं करना अपितु उनके प्रति रहा अपना घृणा भाव हटाना है। नंबर दो ब्रह्मचर्य : जब अपने ही शरीर से मोह नहीं रहता है तब किसी शरीर से भोग की तृष्णा को छोड़ पाना अत्यंत सरल हो जाता है। नम्बर तीन सत्य : हम अपने बच्चों व युवा पीढ़ी को जैन सिद्धांत समझाते हुए हमेशा सत्य बोलने की प्रेरणा देते हैं। हमें अपने मन और बुद्धि को इस प्रकार अनुशासित व संयमित करना है कि जीवन की प्रत्येक परिस्तिथि में हम सही क्रिया व प्रतिक्रिया का चुनाव करें। अतः ‘सत्य’ सिद्धांत का अर्थ है। उचित व अनुचित में से उचित का चुनाव करना,शाश्वत व क्षणभंगुर में से शाश्वत का चुनाव करना हैं। नंबर चार अचौर्य : अचौर्य सिद्धांत का अर्थ केवल दूसरों की वस्तुएँ चुराना नहीं अथवा हड़पने की सोचना नहीं, मात्र इतना नहीं अपितु इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है। जैसे जल से भरी मटकी का कार्य केवल जल को अपने भीतर संभालना हैं, मटकी जल नहीं है। प्यास जल से बुझती है, मटकी से नहीं। इसी प्रकार चेतना इस शरीर -मन -बुद्धि में व्यापक है परंतु वह ‘मैं’ अर्थात स्वरुप नहीं है। अपनी अज्ञान अवस्था से बाहर आकर जब हम अपने शुद्ध आत्मिक स्वरुप को ही ‘मैं व मेरा’ मानते हैं। तभी भगवान द्वारा प्रदत्त अचौर्य के सिद्धांत का पालन होता है। नंबर पांच अपरिग्रह : जीवन की हर अवस्था में अपरिग्रह का भाव दृष्टिगोचर होता है। तथा भगवान महावीर जी के पथ पर उस भव्यात्मा का अनुगमन होता है।
अपरिग्रह के निम्नलिखित तीन आयाम हैं – वस्तुओं का अपरिग्रह, व्यक्तिओं का अपरिग्रह, विचारों का अपरिग्रह। कोई भी विचार परम या संपूर्ण नहीं हो सकता क्योंकि केवल शुद्ध चैतन्य स्वरुप ही परम व संपूर्ण है। जिसे विचारों के पार जाकर ही अनुभव किया जा सकता है। इस प्रकार जैन धर्म के यह पांच सिद्धांत जीवन व्यापन की ऐसी शैली प्रदान करते हैं। जिससे हम इस मानवीय शरीर से मुक्ति मार्ग की ओर अग्रसर हो सकें। पर्युषण पर्व के समय 5 कर्तव्य का विशेषकर ध्यान रखा जाता है। पर्युषण पर्व तैयारी दो भाग में की जाती है। पहला तीर्थंकरों की पूजा करना और उन्हें स्मरण करना हैं। दूसरा इस व्रत को शारीरिक और मानसिक रूप से अपने आप को समर्पित करना हैं। इसका व्रत करने से बुरे कर्मों का नाश होता है और मोक्ष की राह आसान होती है। पर्युषण पर्व के आखिरी दिन को महापर्व के रूप में मनाते हैं। अतः इसी विचार के साथ समस्त शहर/ प्रदेश / देशवासियों को जैन समाज के सत्य, त्याग, तपस्या और अहिंसा के पर्युषण महापर्व की शुभकामनाएँ। यह पर्व हमें भगवान महावीर स्वामी जी द्वारा बताए गए सिद्धांतों (सत्य और अहिंसा के मार्ग ) पर चलने की प्रेरणा देता रहें।