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नया “संसद-भवन” अपनी जगह परन्तु देश “गुलाम मानसिकता” से आजाद हो

Pahado Ki Goonj

साइंटिफिक-एनालिसिस

नया “संसद-भवन” अपनी जगह परन्तु देश “गुलाम मानसिकता” से आजाद हो

सेन्ट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना के नाम से 10 दिसम्बर 2020 को भूमिपूजन के साथ शुरू हुये नये संसद-भवन, केन्द्रीय सचिवालय, सम्भावित नये उपराष्ट्रपति-भवन व प्रधानमंत्री आवास में अब तक 26,045 मीट्रीक टन स्टील, 63807 मीट्रीक टन सिमेंट और 9689 क्यूबिक मीटर फ्लाई ऐश का इस्तेमाल हो चुका हैं जो अनुमानित लागत राशि 862 करोड (US $ 10 मिलियन) के अन्दर समाहित हैं | इसे बाद में लागत वृद्धि के कारण 200 करोड़ रूपये बढाने की खबर थी | बिल्डिंग की डिजाइन व कंसल्टेंसी का 229.75 करोड़ का टेंडर अलग से निकाल व दिया गया वो इस राशि में शामिल हैं या नहीं वो स्पष्ट नहीं हैं |

नये संसद-भवन पर लगाया 20 फीट ऊंचाई, 9500 kg वजन का विशालकाय कांस्य से बना अशोक स्तम्भ जो 6500 किलोग्राम वजन वाले स्टील की एक सहायक संरचना पर टीका वो अनावरण के साथ ही विवाद का विषय बना व उसे दुबारा सम्राट अशोक के पुराने सांची के सपूत जैसा दिखने वाले को बनाने का आदेश हुआ | इसके चलते नये संसद-भवन को राष्ट्र को समर्पित करने से पहले जनता के लिए खोला गया ताकि विवाद से बचा जा सके परन्तु अब यह शक्ल नहीं अक्कल की कसौटी पर तौला व परखा जायेगा | इसे ही अविरल आगे की ओर गतिशील समय-चक्र कहते हैं | इस समय रूपी छाते के नीचे छांव में आकर ही सबकुछ स्थापित होता हैं अन्यथा सृष्टि की कोई भी बड़ी से बड़ी घटना/चमत्कार/प्रादुर्भाव शून्य में समाने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं. ….

नये “संसद-भवन” व सेन्ट्रल विस्टा पुनर्विकास परियोजना के नाम से जनता के खून-पसीने की कमाई पर वसूले टैक्स की डोरी से बंधे इस ईंट, स्टील, सीमेंट, पत्थर व धातुओं के ढांचे के नाम पर देश के विकास, उन्नति व लोकतंत्र को मजबूत व जनता के लिए ज्यादा सहयोगी व हितैषी होने की बात जोर-शोर व दम से प्रचारण एवं प्रसारण से दसों दिशाओं में गुंजाई जा रही हैं |

इसका विज्ञान के सिद्धांतों के आधार पर “साइंटिफिक-एनालिसिस” करे तो यह भारत के असली व दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में सिर्फ एक बिल्डिंग का मामूली फोटो बदलने जितना सा काम हैं | इससे वर्तमान में चल रही व्यवस्था, उसकी प्रक्रियाओं, जनता के जीवन व अधिकारों पर एक मिट्टी के कण मांत्र भी फर्क नहीं पडेगा | नये भवन की कीमत, आकार, सुख-सुविधाएं, कैन्टीन के स्वादिष्ट व्यंजन, सजावट, लाईट डेकोरेशन व नये नामकरण इत्यादि-इत्यादि भौतिक सुख-सुविधाओं के हिस्सें हैं | इससे फोटो, सेल्फी, लाईट की जगमगाहट में तस्वीर अच्छी बन सकती हैं परन्तु “व्यवस्था” “लोकतंत्र” “संविधान” न तो बन सकता हैं और न ही विकसित हो सकता हैं |

हमने राष्ट्रपति को अपने आविष्कार की फाईल के साथ उनके पद की गरीमा व सम्मान के रूप में वर्तमान लोकतंत्र/व्यवस्था का एक प्रारूप ग्राफिक्स के रूप में 8 नवम्बर 2011 को भेजा जो 11 नवम्बर को आधिकारिक तौर पर दर्ज हुआ | यह दुनिया का पहला ग्राफिक्स था जिसमें लोकतंत्र को पहली बार फोटो के रूप में उकेरा गया जिससे जनता के सामने व्यवस्था व उसकी प्रक्रियाएं अविरल , स्वच्छ, निर्मल जल की तरह पारदर्शी हो जाये | आप उस ग्राफिक्स के रूप में आज की व्यवस्था को देखे व समझे तो चुटकी में समझ जायेंगे की नया संसद-भवन लोकतंत्र/व्यवस्था में सिर्फ एक छोटी सी फोटो बदलने भर का काम हैं | 64500 वर्ग मीटर एरिया की जगह बने संसद के ढांचे की जगह एक मीटर बाई एक मीटर वाले एरिया पर बने ढांचे की फोटो होती तब भी लोकतंत्र / व्यवस्था उतनी प्रभारी होती जितनी नये संसद-भवन के बाद होगी |

भौतिक सुख-सुविधाओं व बैठने की जगह अपर्याप्त हो ने के आधार पर आप भ्रमित व शंकाओं से ग्रसित हो सकते हैं | मन्दिर में भगवान की मूर्ति छोटी होती हैं उसके चारों ओर के मन्दिर आकार, कलाकारी व सजावट से क्या फर्क पड़ता हैं? संत / महात्मा / ज्ञानी / बुद्धिजीवी अपना उपदेश पेड़ की छांव के नीचे बैठकर दे और खुले में दूर–दूर तक कितने लोग बैठकर सुनते हैं उससे क्या फर्क पडता हैं ? एक प्रमोटर मंच पर खड़ा होकर डिटेल बताता हैं वो कान पर लगे वाईफाई से कितने लोगों से जुडा हैं और वे कितने दूद-दूर बैठे हैं उससे क्या फर्क पडता हैं ? हम किसी आंफिस/संस्था/कम्पनी को कस्टमर केयर पर सम्पर्क करते हैं तो कितने ऐसी वाली बिल्डिंग के कौनसे मंजिल पर बैठे हैं उससे क्या फर्क पड़ता हैं? हम भी यहां लोकतंत्र/व्यवस्था के विकास व आम नागरिकों को मिलने वाली सहुलियत, न्याय, सामाजिक जीवन, अच्छे दिन व उनके बच्चों के भविष्य की बात कर रहे हैं |

नये संसद-भवन की सजावट, सुविधाएं, खान-पीन, भव्यता, सुरक्षा आदि उत्तम कोटि की हैं | इसको “लोकतंत्र” में संविधान के अनुसार देश की असली मालिक आम जनता जो अपनी सरकार बनाती हैं उसके नजरिये से विज्ञान के सैद्धांतिक, नैतिक, मानवीय व मौलिक अधिकारों के अनुरूप व्याखित करे तो मालिक ने नये “संसद-भवन” के रूप में अपने नौकरों/कर्मचारियों/सेवकों को अपने व बच्चों का पेट काट अच्छे रहन-सहन, खाने-पीने, नई आधुनिक सुविधाओं से सुज्जित कार्यस्थल दिया हैं व हर माह पहले से निर्धारित उच्चतम मेहनताना/पगार तो हैं ही वो भी बुढ़ापे में सहारे के लिए उच्चतम स्तर की पेंशन के साथ इस उम्मीद में की ये उनके लिए अच्छा काम करके दु:ख, तकलीफ, पीड़ा, परेशानी को समय पर दूर करेंगे |

नये संसद-भवन का भव्य, विशाल ढांचा खरबों रूपये की जगह अरबों रूपये की कम लागत व निश्चित समय में तैयार हुआ हैं तो वह व्यवस्था/लोकतंत्र पर कोई अहसान या उपकार नहीं कर रहा हैं अपितु वह स्वयं वर्तमान व्यवस्था जैसी भी हैं उसका अहसानमंद हैं उसकी वजह से ही आवश्यक सामग्री, जरूरतों, दक्षता वाले कर्मियों एवं पैसों की जरूरतों को पुरा करके इस मूर्त रूप में सामने आया हैं |

शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक

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