रवीश कुमार /गणि कुगशाल
कांग्रेस और बीजेपी ने सीबीआई के स्पेशल कोर्ट के जज बृजगोपाल हरिकिशन लोया की मौत को लेकर जो सवाल उठे हैं, उस पर कोई सक्रियता नहीं दिखाई है। त्रिपुरा में अखबारों के अपने संपादकीय पन्नों के खाली छोड़ने की ख़बर दिल्ली में छपी है मगर दिल्ली में सीबीआई जज की मौत को लेकर जो प्रेस कांफ्रेंस हुआ है, उसकी ख़बर कहीं नज़र नहीं आ रही है।
जबकि बुधवार के प्रेस कांफ्रेंस में कैमरों को देखकर आपको अंदाज़ा हो जाएगा कि आए थे तो थे इतने चैनल फिर भी वो ख़बर कहां गई। एक जज की मौत को लेकर सवाल हों, क्या उसकी भी ख़बर लिखने की हिम्मत नहीं बची है तो एक सवाल आप खुद से पूछिए कि हर महीने केबल और अखबार का बिल क्यों देते हैं। किसी मंदिर में दान क्यों नहीं कर देते हैं इतना पैसा। किसी ग़रीब का भला ही हो जाएगा। हमने सारे चैनल तो नहीं देखे मगर दर्शकों ने ही बताया कि है यह ख़बर कहीं दिख नहीं रही है, सिर्फ प्रेस कांफ्रेंस में कैमरे नज़र आ रहे हैं। पत्रकार भी नज़र आ रहे हैं फिर भी 23 नवंबर के अंग्रेज़ी और हिन्दी अख़बारों में यह ख़बर क्यों नहीं है। जजों और वकीलों को सोचना नहीं चाहिए अगर उनकी बिरादरी के किसी ज़िम्मेदार की मौत पर सवाल उठ जाए और वो छपे ही न तो फिर सिस्टम के सामने उनकी भी क्या हैसियत रह जाती है। बात बात में वकीलों को ठेस पहुंचती है तो वे देश की अदालतों में हंगामा मचा देते हैं मगर एक जज की मौत हुई है, सब चुप क्यों हैं। जज लोगों की अपनी बिरादरी भी भारत के स्तर पर कम छोटी नहीं है, वे क्यों चुप हैं।
त्रिपुरा के अख़बारों ने संपादकीय ख़ाली छोड़ कर साहस का काम किया है, दिल्ली के अख़बार एक जज की मौत पर सिंगल कालम की ख़बर नहीं लगा पाए। हमारा लोकतंत्र डरपोकतंत्र में बदल रहा है। जिसका नतीजा आम जनता को ही भुगतना होगा। सीबीआई तो बोल सकती थी, जज बृजगोपाल हरिशंकर लोया की मौत पर जो सवाल उठे हैं, वो तो सीबीआई के ही स्पेशल जज थे। सीबीआई को बोलने से कौन रोक रहा है। दिल्ली में विपक्षी दलों की भी चुप्पी बताती है कि उनकी कमर भी कितनी कमज़ोर हो चुकी है। हमने कांग्रेस के नेता पी चिदंबरम और मनीष तिवारी का ट्वीटर हैंडल देखा, इस मसले पर कोई ट्वीट नहीं है जबकि दोनों ही वकील हैं। आम आदमी पार्टी के नेता आशुतोष ने ज़रूर इस पर तीन ट्वीट किये हैं। कैरवां की दोनों रिपोर्ट को ट्वीट किया है और वायर की रिपोर्ट को भी। आशुतोष ने तीन बार ट्वीट किया है और कहा है कि जज लोया की मौत पर निष्पक्ष जांच होनी चाहिए। रिपोर्ट गंभीर सवाल खड़े करती है जिसके जवाब ज़रूरी हैं। सीपीएम ने एक बयान जारी किया है। मीडिया के कुछ हिस्सों में सीबीआई जज की मौत की परिस्थितियों को लेकर जो खुलासे हुए हैं वो गंभीर सवाल खड़े करते हैं। जस्टिस लोया के परिवार ने आरोप लगाया है कि सुनवाई के दौरान रिश्वत देने की कोशिश की गई है। धमकी भी दी गई है।
गुजरात चुनाव के कारण विपक्षी दल बोलने की औपचारिकता से आगे नहीं बढ़ रहे। शायद उनके मन में यह है कि इस मामले को लेकर ध्रुवीकरण न हो जाए लेकिन मामला तो एक जज की मौत का है। क्या एक जज की मौत को लेकर भी इस डर से चुप रहा जा सकता है, वो भी जिनके नाम में शुरू से लेकर अंत बृज के कृष्ण ही हैं। बृजगोपाल हरिकिशन लोया। ख़ैर राजनीति अपना समय तय करती रहेगी लेकिन क्या यही मजबूरी अदालत की भी है, क्या यही मजबूरी कानून मंत्रालय या सीबीआई की भी है। रिटायर जस्टिस एपी शाह ने हमारे सहयोगी श्रीनिवासन जैन से बात की है। जस्टिस एपी शाह का कहना है कि जज लोया की छवि एक ईमानदार और सख़्त जज की थी। जस्टिस एपी शाह ने कहा है कि बांबे हाईकोर्ट के मुख्य न्यायधीश को इस मामले की जांच करनी चाहिए।
बात जांच की भी है और जांच पर भरोसे की। जब बहुत सारे सवाल उठ जाएं तो मौत की परिस्थितयां संदिग्ध हो जाती हैं। इन सवालों के जवाब जांच से ही मिलेंगे, जिसके बारे में अभी तक कुछ पता नहीं है। वरना ये सारे सवाल जो काफी ठोस लगते हैं नाहक अटकलों को जन्म देंगे। मैं सोच रहा हूं कि वो दो जज क्यों नहीं बोल रहे हैं जिन्होंने जज लोया को नागपुर चलने पर ज़ोर डाला। वे उसी कालोनी में रहते हैं या थे, जहां जज लोया रहते थे फिर उनकी मौत के डेढ़ महीने तक उनके परिवार से नहीं मिले। क्या वे कुछ बता सकते हैं।
22 नवंबर के प्राइम टाइम में मुझसे एक चूक हुई। मैंने कहा आटो में जज लोया को ले जाने वाला कौन था, मगर उसी स्टोरी में लिखा है कि जज लोया को दो जज आटो में अस्पताल लेकर गए जो उन्हें मुंबई से नागपुर लेकर गए थे। बहन अनुराधा बियानी के अनुसार दोनों जजों ने उन्हें यह बात बताई, मौत के डेढ़ महीने बाद जब वे मिलने आए थे तब। जब दिल का दौरा पड़ा तब उसी वक्त दोनों जजों ने परिवार को फोन क्यों नहीं किया। दो जजों में से एक तो फोन कर ही सकते थे। क्या इन दो जजों को सरकारी गेस्टहाउस रवि भवन में कोई गाड़ी नहीं मिली, जिस वीआईआपी गेस्टहाउस में जज, आईएएस, आईपीएस या मंत्री ठहरते हैं वहां एंबुलेंस वगैरह या कारें तो होती ही होंगी। क्या उस वक्त गेस्टहाउस के कैंपस में एंबुलेंस था? क्या उन्हें पता था कि शव को लेने के कागज़ात पर लोया का चचेरा भाई बनकर कौन दस्तख़त कर रहा था, क्या उन्होंने पता करने की कोशिश की कि शव कौन ले रहा है और कैसे जा रहा है। इसलिए कितना कुछ धुंध हट सकता है उनके सामने आने से।
इसलिए जांच ज़रूरी है। तभी पता चलेगा कि उन्हें क्या वाकई 100 करोड़ के रिश्वत की पेशकश की गई थी। दूसरा सवाल यह है जांच कौन करेगा। किसकी निगरानी में होगा। एक सवाल परिवार की सुरक्षा का भी है। जज लोया के बेटे ने 18 फरवरी 2015 को एक पत्र भी लिखा है जिसमें उसने अपनी जान को ख़तरा बताया है। उसने लिखा है कि ‘मुझे डर है कि ये नेता मेरे परिवार के किसी भी सदस्य को कोई नुकसान पहुंचा सकते हैं और मेरे पास इनसे लड़ने की ताकत नहीं है. मुझे डर है कि उनके ख़िलाफ़ हमें कुछ भी करने से रोकने के लिए वे हमारे परिवार के किसी भी सदस्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। हमारी ज़िंदगी ख़तरे में है।’
कैरवां की स्टोरी में जज लोया के पिता ने निरंजन टाकले से कहा है कि वे 85 साल के हो चुके हैं। मुझे अब मौत का डर नहीं है। मैं इंसाफ भी चाहता हूं लेकिन मुझे अपनी बच्चियों और उनके बच्चों की जान की बेहद फिक्र है। निरंजन ने लिखा है कि यह बोलते हुए 85 साल के पिता रोने लगे। मौत से जुड़े सवाल ख़तरनाक तो है हीं, रिपोर्ट के बाद की चुप्पी डरावनी है। ऐसा लगता है कि सब डर गए हैं। सब पर्दे के पीछे से प्राइम टाइम देख रहे हैं। उन्हें तनाव हो रहा है। वो बचना चाहते हैं कि अगले दिन कोई इस बारे में पूछ न ले। दिल्ली में बर्फ की सिल्ली जम गई है। हम खोज रहे हैं कि इस मसले पर कौन कहां बोल रहा है। बहुत मुश्किल से कोई आवाज़ सुनाई देती है। बीजेपी के सांसद शत्रुघ्न सिन्हा ने आज अली अनवर की किताब भारत के राजनेता अली अनवर के लांच के समय इस सवाल को उठाया।
newslaundry.com, scroll.in, thewire.in, thehoot.org, mediavigil.com, janchowk.com जैसी वेबसाइट अखबारों के पन्ने पलट रही हैं कि किस किस ने जज बृजगोपाल हरिमोहन की मौत से जुड़े सवालों को कवर किया है, छापा है। अजीब विडंबना है। जिसके नाम में कृष्ण है वो गीता के किरदारों के बीच भटक रहे हैं, पांडवों की तरफ देखें या कौरवों की तरफ। दिख तो सब रहे हैं मगर शायद उनकी आत्मा को कुरुक्षेत्र का मैदान ही नहीं दिख रहा है। आप देख रहे हैं कि सिस्टम चाहे तो सीबीआई के जज की मौत के सवाल को कालीन के नीचे सरका दे, परिवार को असुरक्षित छोड़ दे, सिस्टम चाहे तो एक बस के कंडक्टर को मार मार कर अधमरा कर दे और उससे हत्या का गुनाह कबूल करवा ले। एक तरफ पुलिस एक जज के शव को ड्राईवर के भरोसे छोड़ देती है कि वह उनके गांव ले जाए। उसे शक तक नहीं होता कि कुछ गड़बड़ है। दूसरी तरफ गुरुग्राम की पुलिस बस के एक कंडक्टर पर इतना शक करती है कि उसे फांसी तक पहुंचाने की हद तक चली जाती है।