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बसंती बिष्ट ने शुरू की जागर गाने की परंपरा

Pahado Ki Goonj

देहरादून : उत्तराखंड में जागर (देवी-देवताओं का आह्वान गीत) का जिक्र होते ही हर किसी के जेहन में पद्मश्री बसंती बिष्ट का चेहरा तैरने लगता है। देवभूमि में सदियों से जागर गाने की परपंरा रही है, लेकिन इसे पुरुष ही गाया करते थे। मंच हो या पूजा-अनुष्ठान, महिलाओं को जागर गाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन, बसंती बिष्ट ने जागर गाकर न सिर्फ इस परंपरा को तोड़ा, बल्कि महिलाओं के लिए प्रेरणास्रोत भी बनीं। इसके लिए ही महिला सशक्तीकरण एवं बाल विकास मंत्रालय की ओर से उन्हें ‘फर्स्‍ट लेडी’ के सम्मान से नवाजा गया।

चमोली जिले के सीमांत गांव ल्वाणी में जन्मीं बसंती बिष्ट का 13 वर्ष की आयु में ही ल्वाणी निवासी रणजीत सिंह से विवाह हो गया। पति सेना में थे। एक दिन उन्होंने बसंती को जागर गुनगुनाते सुना तो विधिवत संगीत सीखने की सलाह दी। तब वह 32 वर्ष की थीं। पहले तो बसंती राजी नहीं हुई, लेकिन बाद में मान गईं।

पांच साल तक शास्त्रीय संगीत की शिक्षा ली और 40 वर्ष की आयु में पहली बार जागर की एकल प्रस्तुति के लिए देहरादून के परेड मैदान में गढ़वाल सभा के मंच पर पहुंचीं। मखमली आवाज में जैसे ही उन्होंने मां नंदा का आह्वान किया, समूचा माहौल तालियों की गडग़ड़ाहट से गूंज उठा। फिर तो उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उन्होंने जागरों पर शोध भी किए। इसी का नतीजा है कि उन्हें मां नंदा के जागरों को किताब के रूप में संजोने में सफलता मिली। पति रणजीत सिंह बताते हैं कि बसंती के जागर गाने पर समाज में इसका खूब विरोध हुआ। वर्ष 1997 में तो उन्हें मंच से ही उतार दिया गया था, लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी।

पीड़ा को गीतों में पिरोया 

उत्तराखंड राज्य निर्माण आंदोलन में बसंती बिष्ट ने खटीमा, मुजफ्फरनगर व मसूरी गोलीकांड की पीड़ा को गीतों में पिरोया। इस दौरान वह अपने गीतों से आंदोलन को सशक्त करने का आह्वान करती रहीं।

बसंती बिष्ट को मिले सम्मान

-जनवरी 2018 में उत्तराखंड महिला आयोग की ओर से सशक्तीकरण सम्मान

-जनवरी 2017 में पद्मश्री सम्मान

-वर्ष 2017 में मध्यप्रदेश सरकार की ओर से राष्ट्रीय देवी अहिल्या सम्मान

-दैनिक जागरण के ‘स्वरोत्सव’ में लोक संवाहक सम्मान

-यंग उत्तराखंड सिने अवार्ड के तहत लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड

-बाबा अमीर गिरी सम्मान-2011

जागर गायिका पद्मश्री बसंती बिष्ट का कहना है कि ‘पहाड़ में आज लोकगीत गाने वाले लोग बहुत कम बचे हैं। हमारे संगीत में वैदिक ज्ञान है, ऋषि-मुनि से लेकर राजा-महाराजाओं की परंपरा भी समाहित है। महिलाओं को लोक गीतों के संरक्षण एवं संवर्धन को आगे आना चाहिए। साथ ही शहरों में बसे लोगों से भी अपील है कि वह अपनी जड़ों से जुड़े रहें।’

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