स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और पूर्व सांसद परिपूर्णानंद पैन्यूली का संघर्षों से भरा सफर ।
मदन पैन्यूली । बड़कोट । उत्तरकाशी ।
परिपूर्णानंद पैन्यूली का जन्म 19 नवंबर 1924 में टिहरी शहर के निकट छौल गांव में हुआ था। उनके दादा राघवानन्द पैन्यूली टिहरी रियासत के दीवान और पिता कृष्णानंद पैन्यूली इंजीनियर थे। उनकी माता एकादशी देवी के साथ ही पूरा परिवार समाजसेवा और स्वाधीनता आंदोलन के लिए समर्पित रहा। उनकी पत्नी स्व. कुंतीरानी पैन्यूली वेल्हम गर्ल्स में शिक्षिका थीं। उनकी चार बेटियां हैं, जिनमें से एक बेटी इंदिरा अमेरिका में रहती हैं। बेटी राजश्री वेल्हम स्कूल में शिक्षिका हैं और अन्य दो बेटियां विजयश्री और तृप्ति दिल्ली में रहती हैं।
संघर्षों से भरा सफर।
टिहरी के बाशिंदे एक ओर तो अंग्रेजी दासता की बेडिय़ों में जकड़े हुए थे, वहीं रियासत की ओर से लागू नियम, कायदे और प्रतिबंधों ने भी उन्हें घुट-घुटकर जीने पर मजबूर कर दिया था। यही वजह थी कि यहां के लोगों को आजादी की लड़ाई में अंग्रेजों के साथ राजसत्ता से भी संघर्ष करना पड़ा। पैन्यूली ने राजशाही के खिलाफ बगावत का झंडा उठाया, तो वहीं तख्तापलट क्रांति का नेतृत्व भी उन्होंने किया।
टिहरी रियासत के भारत में विलय के बाद वर्ष 1971 में उन्होंने कांग्रेस के टिकट पर पूर्व टिहरी नरेश मानवेंद्र शाह को लोकसभा चुनाव में भी शिकस्त दी।
टिहरी रियासत के इस क्रांतिकारी ने काशी विद्यापीठ से शास्त्री और आगरा से एमए (समाजशास्त्र) की उपाधि ग्रहण की। भारत छोड़ो आंदोलन में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। मेरठ, लखनऊ और टिहरी रियासत की जेलों में उन्होंने छह वर्ष से अधिक का बंदी जीवन बिताया। सन 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान मेरठ बम कांड में पकड़े जाने पर उन्हें पांच वर्ष की कैद हुई। मेरठ जेल में वह चौधरी चरण सिंह के भाई श्याम सिंह, बनारसी दास और भैरव दत्त धूलिया आदि के साथ रहे। इसी दौरान उन्होंने जेल से फरार होने का प्रयास भी किया मगर सफल नहीं हुए। जेल से ही रहकर उन्होंने इंटर की परीक्षा पास की।
ब्रिटिश सरकार की जेलों से मुक्त होने के बाद वह टिहरी आ गए और उसी दौरान वहां चल रहे किसान आंदोलन में शामिल हो गए। उनके भांजे बृजभूषण गैरोला ने बताया कि आंदोलन के दौरान पकड़े जाने पर 24 जुलाई 1946 को उन्हें टिहरी जेल भेजा गया। जेल की अमानवीय स्थिति के खिलाफ उन्होंने 13 से 22 सितंबर तक भूख हड़ताल भी की।
27 नवंबर 1946 को राजद्रोह के आरोप में उन्हें डेढ़ वर्ष के कारावास की सजा सुनाई गई। तब एक नाटकीय घटनाक्रम में 10 दिसंबर 1946 के दिन वह टिहरी जेल से फरार हो गए।
ठिठुरती रात में पार की भिलंगना-भागीरथी
टिहरी जेल से फरार होने के बाद परिपूर्णानंद पैन्यूली ने दिसंबर की कड़ाके की ठंड में भिलंगना और भगीरथी नदियां पार कीं और नंगधड़ंग साधू वेश में जंगलों से भटकते-भटकते चकराता पहुंच गए। वहां से साधू वेश में देहरादून आए और दूसरे ही दिन दिल्ली चले गए।
जहां उनकी मुलाकात जयप्रकाश नारायण और जवाहर लाल नेहरू से हुई। पैन्यूली के भतीजे संपूर्णानंद व विवेक पैन्यूली के अनुसार जयप्रकाश नारायण ने उन्हें ‘शंकर’ छद्म नाम देकर मुंबई भेज दिया। वहां एक राजनीतिक जलसे के दौरान उनकी मुलाकात संयुक्त प्रांत के प्रीमियर पंडित गोविंद बल्लभ पंत से हुई। उन्होंने पैन्यूली को ऋषिकेश में रहकर गतिविधियां चलाने की सलाह दी। ताकि टिहरी पुलिस उन्हें ब्रिटिश इलाके से पकड़ न सके।
ऋषिकेश में पैन्यूली ने टिहरी राजशाही के खिलाफ चल रहे आंदोलन के प्रमुख नेता भगवानदास मुल्तानी के घर को अपना ठिकाना बनाया। उस आंदोलन में मुल्तानी का घर श्रीदेव सुमन और नागेंद्र सकलानी जैसे बड़े आंदोलनकारी नेताओं का ठिकाना हुआ करता था। विलय की प्रक्रिया में रही अहम भूमिका
टिहरी में 26-27 मई 1947 को हुए अधिवेशन में परिपूर्णानंद पैन्यूली को उनकी अनुपस्थिति में ही प्रजामंडल का प्रधान और दादा दौलतराम को उप प्रधान चुन लिया गया। क्योंकि पैन्यूली जेल से भगोड़े थे और उनके प्रत्यर्पण की सारी औपचारिकताएं भी पूर्ण थीं इसलिए वह देश की स्वतंत्रता तक प्रतीक्षा करते रहे। 15 अगस्त 1947 को जैसे ही देश आजाद हुआ वह टिहरी चल पड़े।
उसी दिन उन्हें नरेंद्रनगर में गिरफ्तार कर जेल भेज दिया गया। जहां उनके साथ अमानुषिक बर्ताव हुआ। जिसके खिलाफ उन्होंने भूख हड़ताल की। पैन्यूली की गिरफ्तारी के बाद राजशाही के खिलाफ आंदोलन और अधिक भड़क उठा। भारी जनाक्रोश के चलते उन्हें सितम्बर 1947 में रिहा कर दिया गया।
उसके बाद उन्होंने राजशाही की हुकूमत पलटवाकर ही दम लिया। विलय की प्रक्रिया, टिहरी विधानसभा के चुनाव और अंतरिम सरकार के गठन में उनकी अहम भूमिका रही।
धारी गांव में गरीब बच्चों के लिए बनाया था आश्रम
राजशाही के अत्याचारों के खिलाफ आंदोलन के जननायक रहे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी एवं पूर्व सांसद परिपूर्णानंद पैन्यूली का दिल हमेशा गरीब और शोषित वर्ग के लिए धड़कता था। राजशाही के खिलाफ आंदोलन में गंगा घाटी के लोग परिपूर्णानंद पैन्यूली के साथ सक्रिय रहे।
स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चिंद्रिया लाल कहते थे कि जब भी वे मिलते, कहते थे मुझे बूढ़ा मत कहो, मैं अभी जवान हूं। बताओ कहां किस से लडऩा है। पैन्यूली वह व्यक्ति हैं जिन्होंने टिहरी रियासत के अंतरिम राजा रहे मानवेंद्र शाह को लोकसभा चुनाव में हराकर राज परिवार की लगातार जीत का तिलिस्म भी तोड़ा था।वह बताते थे कि राजेंद्र प्रसाद जब राष्ट्रपति बने तो उन्होंने राष्ट्रपति आवास को देखकर कहा था कि इतने बड़े आवास की क्या जरूरत, मेरे लिए तो एक चारपाई काफी है। यह सादगी और त्याग की भावना उन्हें महान बनाती है, लेकिन आज ऐसा नहीं है, हर व्यक्ति को विलासिता चाहिए। इस पूरी व्यवस्था के खराब होने में किसी दल विशेष या व्यक्ति विशेष का दोष नहीं है, यहां सब एक जैसे हैं। समाज सुधार की बात सभी कर रहे हैं, लेकिन हकीकत बहुत खराब है।
पिछड़ों के अधिकारों के लिए लड़े
परिपूर्णानंद पैन्यूली ने अनुसूचित जाति-जनजाति के अधिकारों के लिए भी लड़ाई लड़ी। वह उत्तराखंड हरिजन सेवा संघ के प्रमुख भी रहे और मंदिरों में दलितों के प्रवेश को लेकर भी आंदोलन किया। चार धामों के अलावा अन्य मंदिरों में भी उन्होंने दलितों के प्रवेश की शुरुआत कराई। इसके अलावा प्रखर पत्रकार और लेखक के रूप में भी उनकी ख्याति थी।
बोलंदा बदरीनाथ कभी नहीं हारते’, राजनीतिक घटनाओं का एक चौंकाने वाला मोड़ ।
मानवेन्द्र शाह ने इससे पहले 1957, 1962 और 1967 में लगातार तीन बार टिहरी गढ़वाल लोकसभा सीट जीती थी। खुद को राजनीतिक परिदृश्य में एक मजबूत ताकत के रूप में स्थापित किया था। पैन्यूली के हाथों उनकी हार कई लोगों के लिए आश्चर्य की बात थी, खासकर शाह की चुनावी सफलता के ट्रैक रिकॉर्ड को देखते हुए।
यह राजनीतिक घटनाओं का एक चौंकाने वाला मोड़ था जब टिहरी गढ़वाल के महाराजा मानवेंद्र शाह को बतौर निर्दलीय उम्मीदवार 1971 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस उम्मीदवार और स्वतंत्रता सेनानी परिपूर्णानंद पैन्यूली के हाथों हार का सामना करना पड़ा।