बाराणसी,संयुक्त राज्य अमेरिका की एजेन्सी नासा जिन ग्रहों की गति करोड़ों कीमत के यंत्रों से नापती है उसे बी यच यू के धर्म_विज्ञान_संकाय के पंडित 35 रु मात्र में आपको इसे प्रकाशित कर बता देते हैं। इसकी मांग विश्व भर में होती है।
ग्रहण कब पड़ेगा, किस महीने में किस दिन का सूरज कब अस्त होगा, कितने बजे उग जाएगा, उस दिन ग्रह नक्षत्र कहां होंगे, इसका महत्व क्या होगा धरती के लिये, मनुष्य के लिये यह सब बताता है, इसी पंचांग को बेचकर बी यच यू के गरीब छात्रों के लिये भोजन और वजीफे की निशुल्क व्यवस्था भी मालवीय जी ने बी यच यू में शुरू की। यह आज भी यथावत है।
इसका सम्पादन 1926 से लगातार महामना_मदन_मोहन_मालवीय जी के मार्ग दर्शन में उसी संकाय और विभाग के पंचांग कार्यालय में होता है जिसे लेकर शोर मच रहा है। बी यच यू प्रेस से इसे प्रकाशित किया जाता है। यह पंचांग विश्व भर के हिन्दुओं और ब्रह्मांड के ग्रहों की गति के गणित को समझने के लिये सबसे प्रामाणिक माना जाता है। यही है वह संस्कृत विद्या जिसे केवल भाषा का मुद्दा बताकर झूठ बोला जा रहा है और लोगों को भरमाया जा रहा है। इस परम्परा और क्या इस संस्कृत विद्या की रक्षा भविष्य में इसी भाव से की जाएगी।
93साल से इसका प्रकाशन आज तक कभी बंद नहीं हुआ
लेखक : राकेश उपाध्याय, भारत अध्ययन केंद्र, बी यच यू
वैदिक साहित्य में २ प्रकार की नक्षत्र गणना लगती है-जिसे हम आजकल सायन तथा निरयण पद्धति कहते हैं। आंख से या दूरदर्शन से देखने पर स्थिर तारा की तुलना में हई ग्रह स्थिति देखते हैं। गणना के लिये विषुव वृत्त तथा क्रान्ति वृत्त के मिलन विन्दु को शून्य मानते हैं क्योंकि वहीं से गोलीय त्रिभुज बनता है। शून्य विन्दु पर दोनों वृत्त कैंची की तरह मिलते हैं अतः उसे कृत्तिका कहते हैं। अतः कृत्तिकादि गणना कहा गया है, मेष या अश्विनी से दर्शन होता है। कृत्तिका के ठीक विपरीत दोनों शाखायें मिलती हैं, अतः उसे विशाखा (द्वि-शाखा) कहते हैं। स्थिर नक्षत्र-
न वा इमानि क्षत्राण्यभूवन्निति। तन्नक्षत्राणां नक्षत्रत्वम्। (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/७/१८/३)
चल नक्षत्र (सायन)-देवगृहा वै नक्षत्राणि (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/२/६)
यानि देवनक्षत्राणि तानि दक्षिणे परियन्ति (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/२/७)
रेवती पतन का अर्थ ज्योतिषीय ही है। इसके कई उदाहरण हैं। कार्त्तिकेय के काल में अभिजित् का पतन हुआ था तब धनिष्ठा से वर्ष आरम्भ हुआ था।
यदभ्यजयन्। तदभिजितोऽभिजित्वम्। — प्रजापतिः पशूनसृजत। ते नक्षत्रं नक्षत्रमुपातिष्ठन्त। ते समावन्त एवाभवन्। ते रेवतीमुपातिष्ठन्त॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, १/५/२/४)
अभिजित् से वर्षा तथा कृषि यज्ञ आरम्भ होता था, अतः यह अभिजित् हुआ। समा = समान वर्ष (१२x ३० +५) का अन्त रेवती से ही होता था। महाभारत, वन पर्व (२३०/८-१०)-
अभिजित् स्पर्धमाना तु रोहिण्या अनुजा स्वसा। इच्छन्ती ज्येष्ठतां देवी तपस्तप्तुं वनं गता॥८॥
तत्र मूढोऽस्मि भद्रं ते नक्षत्रं गगनाच्युतम्। कालं त्विमं परं स्कन्द ब्रह्मणा सह चिन्तय॥९॥
धनिष्ठादिस्तदा कालो ब्रह्मणा परिकल्पितः। रोहिणी ह्यभवत् पूर्वमेवं संख्या समाभवत्॥१०॥
यहां अभिजित् के पतन का अर्थ है, उत्तरी ध्रुव उससे दूर हट गया। तब धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा तथा वर्ष का आरम्भ हुआ (प्रायः १५,८०० ई.पू.) में।
पर समा का चक्र रेवती से ही था। अदिति काल में पुनर्वसु से विषुव संक्रान्ति होती थी (१७५०० ई.पू.)अदितिर्जातमदितिर्जनित्वम् (शान्ति पाठ, ऋक्, १/८९/१०)। अतः पुनर्वसु का देवता अदिति है।
बलराम के समय रेवती के पतन का एक अर्थ तो है कि अन्तरिक्ष यात्रा के कारण रेवती के लिये कम समय बीता था। ऐसी कथायें योगवासिष्ठ में भी हैं। अन्य अर्थ है कि स्वायम्भुव मनु से रेवती से आरम्भ होने वाला चक्र पूरा हो गया, जो २६,००० वर्ष का अयन चक्र है।
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
विष्णु पुराण, खण्ड ४, अध्याय १-
य एते भवतोभिमता नैतेषां साम्प्रतं, पुत्र पौत्रा-पत्या-पत्य-सन्तति-र्स्त्यवनी तले॥७४॥
बहूनि तवात्रैव गान्धर्वं शृण्वतश्चतुर्युगान्यतीतानि॥७५॥
साम्प्रतं महीतलेऽष्टाविंशतितम-मनोश्चतुर्युगमतीतप्रायं वर्तते॥७६॥
कुशस्थली या तव भूपरम्या पुरी पुराभूदमरावतीव। सा द्वारका साम्प्रति तत्र चास्ते स केशवांशो बलदेवनामा॥९१॥
यह नगर राजा रैवत का हो सकता है जो पूर्व कल्प के आनर्त देश में था बाद में समुद्र में डूब गया था। उसी वंश की रेवती की बलराम से विवाह हुआ था। इसका नाम कुशस्थली कहा गया है। यह द्वारका जैसा था तथा उसके निकट था, बिलकुल उसी स्थान पर नहीं। कुश के समय की नगरी के बाद कई युग बीत गये और पुरानी नगरी या परिवार का कोई चिह्न नहीं रहा।
भारत के मुख्य कैलेण्डर
१. स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) से-ऋतु वर्ष के अनुसार-विषुव वृत्त के उत्तर और दक्षिण ३-३ पथ १२, २०, २४ अंश पर थे जिनको सूर्य १-१ मास में पार करता था। उत्तर दिशा में ६ तथा दक्षिण दिशा में भी ६ मास। (ब्रह्माण्ड पुराण १/२२ आदि)
इसे पुरानी इथिओपियन बाइबिल में इनोक की पुस्तक के अध्याय ८२ में भी लिखा गया है।
२. ध्रुव-इनके मरने के समय २७३७६ ई.पू. में ध्रुव सम्वत्-जब उत्तरी ध्रुव पोलरिस (ध्रुव तारा) की दिशा में था।
३. क्रौञ्च सम्वत्-८१०० वर्ष बाद १९२७६ ई.पू. में क्रौञ्च द्वीप (उत्तर अमेरिका) का प्रभुत्व था (वायु पुराण, ९९/४१९) ।
४. कश्यप (१७५०० ई.पू.) भारत में आदित्य वर्ष-अदितिर्जातम् अदितिर्जनित्वम्-अदिति के नक्षत्र पुनर्वसु से पुराना वर्ष समाप्त, नया आरम्भ। आज भी इस समय पुरी में रथ यात्रा।
५. कार्त्तिकेय-१५८०० ई.पू.-उत्तरी ध्रुव अभिजित् से दूर हट गया। धनिष्ठा नक्षत्र से वर्षा तथा सम्वत् का आरम्भ। अतः सम्वत् को वर्ष कहा गया। (महाभारत, वन पर्व २३०/८-१०)
६. वैवस्वत मनु-१३९०२ ई.पू.-चैत्र मास से वर्ष आरम्भ। वर्तमान युग व्यवस्था।
७. वैवस्वत यम-११,१७६ ई.पू. (क्रौञ्च के ८१०० वर्ष बाद)। इनके बाद जल प्रलय। अवेस्ता के जमशेद।
८. इक्ष्वाकु-१-११-८५७६ ई.पू. से। इनके पुत्र विकुक्षि को इराक में उकुसी कहा गया जिसके लेख ८४०० ई.पू. अनुमानित हैं।
९. परशुराम-६१७७ ई.पू. से कलम्ब (कोल्लम) सम्वत्।
१०. युधिष्ठिर काल के ४ पञ्चाङ्ग-(क) अभिषेक-१७-१२-३१३९ ई.पू. (इसके ५ दिन बाद उत्तरायण में भीष्म का देहान्त)
(ख) ३६ वर्ष बाद भगवान् कृष्ण के देहान्त से कलियुग १७-२-३१०२ उज्जैन मध्यरात्रि से। २ दिन २-२७-३० घंटे बाद चैत्र शुक्ल प्रतिपदा।
(ग) जयाभ्युदय-६मास ११ दिन बाद परीक्षित अभिषेक २२-८-३१०२ ई.पू. से
(घ) लौकिक-ध्रुव के २४३०० वर्ष बाद युधिष्ठिर देहान्त से, कलि २५ वर्ष = ३०७६ ई.पू से कश्मीर में (राजतरंगिणी)
११. भटाब्द-आर्यभट-कलि ३६० = २७४२ ई.पू से।
१२. जैन युधिष्ठिर शक-काशी राजा पार्श्वनाथ का सन्यास-२६३४ ई.पू. (मगध अनुव्रत-१२वां बार्हद्रथ राजा)
१३. शिशुनाग शक-शिशुनाग देहान्त १९५४ ई.पू. से (बर्मा या म्याम्मार का कौजाद शक)
१४. नन्द शक-१६३४ ई.पू. महापद्मनन्द अभिषेक से। ७९९ वर्ष बाद खारावेल अभिषेक।
१५. शूद्रक शक-७५६ ई.पू.-मालव गण आरम्भ
१६. चाहमान शक-६१२ ई.पू. में (बृहत् संहिता १३/३)-असीरिया राजधानी निनेवे ध्वस्त।
१७. श्रीहर्ष शक-४५६ ई.पू.-मालव गण का अन्त।
१८. विक्रम सम्वत्-उज्जैन के परमार राजा विक्रमादित्य द्वारा ५७ ई.पू. से
१९. शालिवाहन शक-विक्रमादित्य के पौत्र द्वारा ७८ ई.से।
२०. कलचुरि या चेदि शक-२४६ ई.
२१. वलभी भंग (३१९ ई.) गुजरात के वलभी में परवर्त्ती गुप्त राजाओं का अन्त।
✍?अरुण उपाध्याय