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श्रमण-श्रावकों के लिए चातुर्मास अनुपम उपहार – आचार्य विमर्शसागर

Pahado Ki Goonj
श्रमण-श्रावकों के लिए चातुर्मास अनुपम उपहार – आचार्य विमर्शसागर

चक्रवर्ती भरत के भारतदेश की पवित्र भूमि पर विचरण करते परम तपस्वी संत श्रमण-श्रमणियों, उत्कृष्ट श्रावक-श्राविकाओं, अरिहंत कथित धर्म में दृढ़ श्रद्धा रखने वाले जिनोपासक – श्रमणोपासकों एवं सद्गृहस्थों के द्वारा परम अहिंसा धर्म का शंखनाद सदा से होता आ रहा है। सभी ‘‘परस्परोग्रहो जीवानाम्’’ सूत्र सूक्ति को चरितार्थ करते हुये ‘हम सम्यग्दृष्टि हैं’ ऐसी अनुभूति करते हैं। राग-द्वेष, बैर-विरोध, छल-ईर्ष्या से रहित निर्मल आत्मगुणों की उपासना करना ही मनुष्य जीवन का सार है।

चातुर्मास के अनुपम उपहार

1. गुरू पूर्णिमा –

 वैष्णव धर्म में गुरुपूर्णिमा का महत्व है, जैन परंपरा में भी गुरुपूर्णिमा का विशेष महत्व है। परमगुरु तीर्थंकर महावीर और शिष्य इन्द्रभूति गौतम का समवसरण सभा में मिलन ही जैन परंपरा में ‘गुरू पूर्णिमा’ है। इस दिन सभी शिष्यगण अपने परम उपकारी गुरू के उपकारों का स्मरण कर श्रद्धा भक्ति व्यक्त करते हैं। वर्तमान में गुरू पूर्णिमा पर्व के अवसर पर श्रावक एवं श्रमण कुछ ऐसा संकल्प करें जिससे जैन समाज में वात्सल्य बढ़े और सच्चे जैनधर्म की रक्षा हो।

श्रावक एवं विद्वान् जातिवाद, पंथवाद एवं ख्यातिलाभ के लिए पनप रहे संतवाद को बढ़ावा न देकर जिनागम  के अनुसार चर्या करने वाले पीछी-कमंडलुधारी निर्ग्रंथ जिनमुद्रा की श्रद्धा-भक्ति करके अपना कर्तव्य निर्वाह करें। कदाचित् सम्यग्दर्शन का स्वयं परिचय देते हुये स्थितिकरण अंग का पालन भी करें। किंतु जिनमुद्रा का कभी अनादर या निंदा न करें।

निर्ग्रंथ वीतरागी साधुजन मूलाचार कथित समाचार विधि का पालन करते हुये उपसंपत गुण का परिचय दें। उपसंपत् के पाँच भेद हैं। जिसमें विनयोपसंपत् गुण का वर्णन करते आचार्य भगवन् कहते हैं – ‘अन्य संघ से बिहार करते हुये आये मुनि को पादोष्ण या अतिथि मुनि कहते हैं। उनका विनय करना, आसन आदि देना, उनका अंगमर्दन करना, प्रिय वचन बोलना आदि।

आप किन आचार्य के शिष्य हैं? किस मार्ग से बिहार करते हुये आये हैं, ऐसा प्रश्न करना। उन्हें तृण संस्तर, फलक संस्तर, पुस्तक, पिच्छिका आदि देना, उनके अनुकूल आचरण करना तथा उन्हें संघ में स्वीकारना विनयोपसंपत है।

मूलाचार कथित विनयोपसंपत् गुण का पालन कर श्रमण संघ वात्सल्य अंग का परिचय दें जिससें ‘जीव मात्र का कल्याण हो’ ऐसा जिनोपदेश सार्थक हो सके। जो विद्वान् एवं श्रमण ऐसा नहीं करते वे जिनशासन को मलिन करते हैं, कहा भी है-

पण्डितैर्भ्रष्टचारित्रैर्बठरैश्च तपोधनैः।
शासनं जिनचन्द्रस्य निर्मलं मलिनीकृतम्।।

अर्थात् ‘चारित्रभ्रष्ट पण्डितों ने और बनावटी तपस्वियों ने जिनचन्द्र के निर्मल शासन को मलिन कर दिया’।

गुरू पूर्णिमा- साधु मिलन का पर्व है। आओ हम सब गुरू पूर्णिमा पर्व को जिनागम के अनुसार जिनाज्ञा पालन कर सार्थक करें।

2. वीर शासन जयंती –

भगवान महावीर की समवसरण सभा में खिरनेवाली दिव्यध्वनि आज हम सभी के समक्ष ‘जिनागम-जिनवाणी’ के रूप में प्राप्त है। सभी श्रमण एवं श्रावक जिनागम वर्णित पथ के अनुसार चर्या करें ऐसी पूर्वाचार्य भगवंतों की आज्ञा है। यही ‘वीर शासन’ की परिपालना है। श्रावण वदी एकम् ‘वीर शासन जयंती’ के रूप में विख्यात है। आओ हम सभी जिनागम की आज्ञा का पालन कर, जिनागम पथ के अनुसार चर्या कर ‘वीर शासन’ के प्रति अपनी सच्ची श्रद्धा व्यक्त करें। कहा भी है –

जिनश्रुत तदाधारौ तीर्थं द्वावेव तत्त्वतः।
संसारस्तीर्यते तत्सेवी तीर्थसेवकः।।

अर्थात् ‘जिनागम और जिनागम के ज्ञाता गुरू वास्तव में दो ही तीर्थ हैं क्योंकि उन्हीं के द्वारा संसाररूपी समुद्र तिरा जाता है। उनका सेवक ही तीर्थ सेवक है।’

3. पार्श्वनाथ निर्वाण दिवस (बैर पर क्षमा की विजय)

चातुर्मास काल में श्रावण शुक्ल सप्तमी का दिवस मुकुट सप्तमी के रूप में मनाया जाता है। इस दिन तेईसवें तीर्थंकर भगवान पार्श्वनाथ स्वामी को निर्वाण प्राप्त हुआ। आज के दिन भगवान पार्श्वनाथ की क्षमा और कमठ के बैर का स्मरण सहज ही हो जाता है। जो प्रत्येक श्रावक और श्रमण के लिए प्रेरणादायी है। सोचें, क्षमा का फल प्राप्त करना है या बैर का। कहीं-कहीं श्रमण-श्रमण, श्रावक-श्रावक, श्रमण-श्रावक, श्रावक-श्रमण के बीच क्षमा भाव न होकर बैर भाव देखा जा रहा है। आज के दिन सोचें इसका दुष्परिणाम क्या होगा। अतः उत्तम क्षमा भाव को धारण कर पार्श्वनाथ प्रभु की तरह उत्तम फल प्राप्ति का पुरूषार्थ करें।

4. रक्षाबंधन पर्व और आपरिग्रही साधु की पिच्छी में सोने चाँदी की राखियाँ कितनी उचित?

जिनागम के अनुसार चर्या का पालन करने वाले आचार्य अकंपन स्वामी के संघ पर घोर उपसर्ग जान मुनि विष्णुकुमार ने अपनी श्रेष्ठ साधना के फल से प्राप्त विक्रिया ऋद्धि के द्वारा उपसर्ग दूर कर परस्पर साधु वात्सल्य का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। जो वर्तमान में श्रमण संघ एवं श्रावकों के लिए प्रेरणास्पद है।

आज वीतरागी श्रमणों का रक्षाबंधन पर्व के वीतराग भाव को छोड़कर सरागभाव में स्थित होना आश्चर्य पैदा करता है। जब तिल-तुष मात्र परिग्रह से रहित आत्मस्वभाव में रमणता की भावना करने वाले साधुजनों के संयमोपकरण पिच्छिका में लाखों रूपयों की बोली लगाकर सोने, चांदी की राखी बांधी जाती है और साधुजन हर्ष के साथ बहिनों ने राखी बांधी ऐसे सराग भाव में जा गिरते हैं।
आशा करते हैं, चातुर्मास में चतुर्विध श्रमण संघ इस ख्याति-पूजा की भावना को छोड़कर अपने वीतराग स्वभाव की रक्षा करेंगे और महा परिग्रह के बढ़ते शिथिलाचार को दूर करेंगे।

5. राष्ट्र पर्व गणतन्त्र दिवस –

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