देश का एक वर्ग शायद ही श्री देव सुमन के बलिदान से परिचित हो। लेकिन देश सरदार भगत सिंह के नाम को जरूर जानता है। मात्र 29 की अवस्था में ही जनता के लिए प्रजामण्डल की स्थापना की माँग करने के कारण अपनी ही रियासत के राजाओं द्वारा प्रताड़ना और क्रूरतापूर्ण शोषण के बाद प्राण त्यागने वाले श्रीदेव सुमन की कहानी सरदार भगत सिंह के बलिदान से कम नहीं है।
श्रीदेव सुमन: 25 मई, 1916 – 25 जुलाई, 1944
श्रीदेव सुमन का जन्म उत्तराखंड के टिहरी राज्य में हुआ था। ये वही टिहरी है, जहाँ पर आज एशिया का सबसे ऊँचा बाँध स्थित है। इस विशाल जलाशय को इन्हीं श्रीदेव सुमन के नाम पर ‘श्रीदेव सुमन सागर’ के नाम से भी जाना जाता है।
श्रीदेव सुमन का जन्म ऐसे समय में हुआ था, जब जनता राजशाही को ही आखिरी फरमान समझती थी। यूरोप प्रवास पर होते थे, तब प्रशासन के अधिकारी ही जनता पर मनमर्जी थोपते थे और राजा के लौटने पर उनके कान भरते थे। 25 मई, 1915 को श्रीदेव सुमन ने टिहरी के ही जौल गाँव में जन्म लिया था। हालाँकि, टिहरी रियासत को अंग्रेज कभी भी अपना गुलाम नहीं बना पाए थे, लेकिन यहाँ की हर कार्यवाही में उनका खुला हस्तक्षेप था। जैसा कि कुछ इतिहासकार भी लिखते हैं; राजपरिवार अंग्रेजों के एहसानों तले इस कदर डूबा हुआ था कि 1857 की क्रांति के दौरान अंग्रेजों को छुपने के लिए अपने राजमहल ले द्वार खोल दिए और खुद लोगों के घरों और जंगलों में दिन गुजारते गए। बदले में अंग्रेजों ने भी खूब कृपा बरसाई।
30 दिसम्बर, 1943 से 25 जुलाई, 1944 तक 209 दिन सुमन ने टिहरी की नारकीय जेल में बिताए। इस दौरान इन पर कई प्रकार से अत्याचार होते रहे, झूठे गवाहों के आधार पर जब इन पर मुकदमा दायर किया गया तो इन्होंने अपनी पैरवी स्वयं की और लिखित बयान देते हुए कहा-
“मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ कि मैं जहाँ अपने भारत देश के लिये पूर्ण स्वाधीनता के ध्येय में विश्वास करता हूँ वहीं, टिहरी राज्य में मेरा और प्रजामंडल का उद्देश्य वैध व शांतिपूर्ण उपायों से श्री महाराजा की छत्रछाया में उत्तरदायी शासन प्राप्त करना और सेवा के साधन द्वारा राज्य की सामाजिक, आर्थिक तथा सब प्रकार की उन्नति करना है। हाँ, मैंने प्रजा की भावना के विरुद्ध काले कानूनों और कार्यों की अवश्य आलोचना की है और मैं इसे प्रजा का जन्मसिद्ध अधिकार समझता हूँ।”
लेकिन, इस सबके बावजूद झूठे मुकदमे और फर्जी गवाहों के आधार पर 31 जनवरी, 1944 को दो साल का कारावास और 200 रुपया जुर्माना लगाकर इन्हें सजायाफ्ता मुजरिम बना दिया गया। इस दुर्व्यवहार के विरोध में सुमन ने 29 फरवरी से 21 दिन का उपवास प्रारम्भ कर दिया, जिससे जेल के कर्मचारी कुछ झुके, लेकिन उनकी बात महाराजा से नहीं करवाई गई। श्रीदेव सुमन लगातार माँग करते रहे कि उनकी बातें राजा तक पहुँचाई जाएँ, लेकिन बदले में उन्हें कठोर दंड और यातनाएँ दी गईं।
84 दिन तक जेल में प्रताड़ना और ऐतिहासिक अनशन
शासन की ओर से किसी प्रकार का उत्तर न मिलने पर श्रीदेव सुमन ने विरोध स्वरुप 3 मई, 1944 से अपना ऐतिहासिक आमरण अनशन शुरू कर दिया। इस बीच उनका मनोबल तोड़ने के लिए उन पर कई क्रूर अत्याचार किए गए, लेकिन सुमन अडिग रहे। प्रशासन को यह डर था कि श्रीदेव सुमन की जेल में यदि मृत्यु हो गई तो जनता राजशाही के खिलाफ आंदोलन छेड़ देगी। सुमन के इस ऐतिहासिक अनशन का समाचार जब टिहरी की जनता तक पहुँचा, तो रियासत ने यह अफवाह फैला दी कि श्रीदेव सुमन ने अनशन समाप्त कर दिया है और 4 अगस्त को महाराजा के जन्मदिन पर उन्हें रिहा कर दिया जाएगा।
अनशन ख़त्म करने की शर्त पर यह प्रस्ताव सुमन जी को भी दिया गया। लेकिन श्रीदेव सुमन का जवाब था-
“क्या मैंने अपनी रिहाई के लिए यह कदम उठाया है? ऐसा मायाजाल डालकर आप मुझे विचलित नहीं कर सकते। अगर प्रजामण्डल को रजिस्टर्ड किए बिना मुझे रिहा कर दिया गया तो मैं फिर भी अपना अनशन जारी रखूँगा।”
यह प्रस्ताव ठुकराने के बाद सुमन को जेल के अधिकारियों द्वारा काँच मिली रोटियाँ खाने को दी गईं। प्रताड़ना और अनशन से उनकी हालत बिगड़ती गई। जेलकर्मियों ने लोगों के बीच यह खबर फैला दी कि सुमन को न्यूमोनिया हो गया है, जबकि उन्हें जेल में कुनैन के इन्ट्रावेनस इन्जेक्शन लगाए गए।
कम्बल में लपेट बोरी के अन्दर सिल दिया मृत शरीर
इन इंजेक्शंस के कारण वो डिहाइड्रेशन से जूझने पर पानी के लिए चिल्लाते, लेकिन उन्हें पानी नहीं दिया जाता था। 20 जुलाई की रात से ही उन्हें बेहोशी आने लगी और 25 जुलाई, 1944 को शाम करीब चार बजे इस अमर सेनानी ने अपने देश और अपने सिद्धांतों की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। इसी अन्धेरी रात में सुमन की लाश उन्हीं के नीचे बिछे कम्बल में लपेट कर एक बोरी के अन्दर सिल दी गई। फिर एक वार्डन और एक कैदी उस बोझे को लेकर चुपके से जेल के फाटक से बाहर निकले और मृत शरीर को भागीरथी और भिलंगना के संगम से नीचे तेज प्रवाह में फेंक दिया। यह काम जनता से छुपकर किया गया क्योंकि उन्हें सुमन पर किए गए अत्याचारों से हुई इस मृत्यु से जनता द्वारा बगावत किए जाने का भय था।
बलिदान के बाद प्रजामंडल की स्थापना
लेकिन, श्रीदेव सुमन के बलिदान का जनता पर बहुत गहरा प्रभाव पड़ा और लोगों ने राजशाही के खिलाफ खुला विद्रोह कर दिया। सुमन के बलिदान के बाद जनता के आन्दोलन ने टिहरी रियासत को प्रजामण्डल को वैधानिक करार देने पर मजबूर कर दिया। वर्ष 1948 में जनता ने देवप्रयाग, कीर्तिनगर और टिहरी पर अधिकार कर लिया और प्रजामण्डल का मंत्रिपरिषद गठित हुआ। टिहरी गढ़वाल के भारतीय गणराज्य में शामिल हो जाने तक यह आन्दोलन चलता रहा। इसके बाद 1 अगस्त, 1949 को टिहरी गढ़वाल राज्य का भारत गणराज्य में विलीनीकरण हो गया। यही वो समय था, जब वल्लभभाई पटेल हैदराबाद, जूनागढ़, कश्मीर और भोपाल जैसी तमाम देशी रियासतों का भारत संघ में मिलाने के प्रयत्न कर रहे थे।
साहित्य से राजनीति तक सुमन का सफर
श्रीदेव सुमन के व्यक्तित्व में कई महापुरुषों की झलक थी। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। रियासत के खिलाफ श्रीदेव सुमन के विरोध में यदि भगत सिंह का जूनून नजर आता था, तो दूसरी ओर वे महात्मा गाँधी के विचारों से भी प्रभावित थे। सुमन एक श्रेष्ठ लेखक और साहित्यकार भी थे। उन्होंने पंजाब विश्विद्यालय से रत्न भूषण, प्रभाकर और बाद में विशारद और साहित्य रत्न की परीक्षाएँ पास कीं थी। सुमन ने दिल्ली में देवनागिरी महाविद्यालय की स्थापना की और कविताएँ भी लिखने लगे। वर्ष 1937 में ‘सुमन सौरभ’ नाम से अपनी कविताएँ भी प्रकाशित करवाईं। इसी दौरान वे पत्रकारिता के क्षेत्र में भी सक्रिय रहे।
टिहरी के ही गाँव चम्बाखाल में प्राथमिक शिक्षा ग्रहण करने के बाद उन्होंने टिहरी से मिडिल स्कूल की पढ़ाई की। विद्यार्थी जीवन के दौरान ही 1930 में देहरादून में सत्याग्रही आन्दोलन में शिरकत करने के कारण उन्हें 15 दिन की जेल और बैंतों से पीटे जाने की सजा मिली थी। इस सबके बीच उनका अध्ययन भी जारी रहा।
लोकतंत्र के शिल्पकार थे सुमन
पत्रकारिता और साहित्य के बाद जनता के लिए प्रतिबद्धता ने श्रीदेव सुमन को गढ़देश सेवा संघ की स्थापना के लिए विवश किया जिसे बाद में हिमालय सेवा संघ के नाम से जाना गया। वे जल्द ही पूरी तरह सामाजिक-राजनीतिक रूप से सक्रिय हो गए। उन्होंने राजशाही के खिलाफ जनता को जागरूक करने की शुरुआत की। 23 जनवरी को देहरादून में टिहरी राज्य प्रजामण्डल की स्थापना के मौके पर इन्हें संयोजक मंत्री चुना गया।
श्रीदेव सुमन हिमालयी रियासतों में जनता को जागरूक करने के साथ ही उनकी समस्याओं को राष्ट्रीय स्तर पर उठाने का काम भी करते रहे। यहीं से श्रीदेव सुमन रियासत के अधिकारियों की नजर में आ गए और रियासत द्वारा इनके भाषण देने और सभा करने पर रोक लगा दी गई। रियासत के अधिकारियों ने इन्हें नौकरी और लाभ का भी लालच दिया, लेकिन उनके झाँसे में न आने पर सुमन को रियासत से निर्वासित कर दिया गया। श्रीदेव सुमन का प्रभाव जनता पर इतना ज्यादा था कि टिहरी रियासत द्वारा उनके भाषण देने पर रोक लगा दी गई, उन्हें इसके लिए जेल जाना पड़ा। भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान वे गिरफ्तार किए गए और एक साल तक देश की विभिन्न जेलों में रखे गए।
टिहरी रियासत के जुल्मों के संबंध में इस दौरान जवाहर लाल नेहरू ने भी कहा था कि टिहरी राज्य के कैदखाने दुनिया भर में मशहूर रहेंगे, लेकिन इससे दुनिया में रियासत की कोई इज्जत नहीं बढ़ सकती। श्रीदेव सुमन ने टिहरी की जनता के अधिकारों को लेकर अपनी आवाज बुलन्द करते हुए कहा था- “मैं अपने शरीर के कण-कण को नष्ट हो जाने दूँगा, लेकिन टिहरी के नागरिक अधिकारों को कुचलने नहीं दूँगा।”
अपने शरीर के कण-कण के नष्ट हो जाने पर भी टिहरी के नागरिक अधिकारों के लिए लड़ने का दम भरने वाले श्रीदेव सुमन ने अपने इस संकल्प को निभाया भी। उत्तराखंड के निर्माण में श्रीदेव सुमन जैस अमर बलिदानियों का सबसे बड़ा योगदान रहा है। यह देवभूमि के साथ ही नायकों की भूमि भी है, जिन्होंने समय-समय पर अपने रक्त और बलिदान के उदाहरण पेश कर उत्तराखंड के इतिहास को गौरवशाली बनाया है।