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उत्तराखंड की खबर के साथ पढें श्री बद्रीनाथ धाम में भगवान विष्णु देते हैं दर्शन

Pahado Ki Goonj

 आदर्श पैन्यूली बने छात्र संसद के अध्यक्ष, उपाध्यक्ष हिमांशु व सचिव बनी वैष्णवी
बड़कोट। (मदन पैन्यूली) न्यू होली लाइफ हायर सेकेंडरी स्कूल के सम्पन्न हुए छात्र संसद चुनाव में छात्र संसद के अध्यक्ष पद पर आदर्श पैन्यूली निर्वाचित हुए। जबकि उपाध्यक्ष पद पर हिमांशु राणा व सचिव पड़ पर वैष्णवी बेलवाल निर्वाचित हुई है। शनिवार को न्यू होली लाइफ हायर सेकेंडरी स्कूल में छात्र संसद का चुनाव संपन्न हुआ। जिसमे कक्षा एक से दसवीं तक के विद्यार्थियों ने सत्र 2019-20 के लिए अपने मताधिकार का प्रयोग किया।
विद्यालय द्वारा आयोजित छात्र संसद के इस चुनाव में पूरी चुनाव प्रक्रिया ठीक उसी तरह से आयोजित की गई। जिस तरह से भारतीय लोकतंत्र के चुनाव में सम्पन्न कराई जाती है। इस चुनाव में पर्यवेक्चक, निर्वाचन अधिकारी, पीठासीन अधिकारी सहित मतदान अधिकारी का दायित्व विद्यालय के अध्यापकों को सौंपा गया ।
विद्यायल के प्रधनाचार्य मनोज जोशी ने बताया कि चुनाव से ठीक से पहले नामांकन प्रक्रिया, नाम वापसी, चुनाव प्रचार आदि की प्रक्रिया में  विद्यार्थियों को इस प्रकार ढाला गया कि वे चुनाव की प्रक्रिया और मतदान के महत्व को बारीकी से समझ और जान सकें। विद्यालय में मतदाता छात्रों और उम्मीदवारों के लिए निर्धारित आदर्श चुनाव आचार संहिता की जानकारी देने के लिए एक सप्ताह से जागरूकता कार्यक्रम भी चलाया गया। विद्यालय की प्रबंधिका ग़ायत्री बहुगुणा ने विद्यालय में इस प्रकार की गतिविधि को छात्रों के सर्वांगीण विकास का अच्छा प्रयास बताया। इस अवसर पर राजेश व्यास, डीएस राणा, रविन्द्र बर्तवाल, बृजमोहन, मीना, जयप्रकाश सहित शिक्षक व छात्र-छात्राएं उपस्थित रहे।
2- रवांई घाटी के बड़कोट में 30 मई 1930 को हुए तिलाड़ी कांड का गवाह यह विशाल वृक्ष।

बड़कोट / टिहरी रियासत के तिलाड़ी का आंदोलन इतिहास का पहला आंदोलन है जिसमें जनता ने वन जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर अपने हक-हकूकों के लिए सामूहिक तौर पर संघर्ष किया और इतिहास में अमर हो गए। तिलाड़ी का जन आंदोलन टिहरी राजा के आलीशान महल के निर्माण में हुई फिजूलखर्ची को वसूल करने के लिए बनाए गए काले वन कानूनों के विरोध में राजसत्ता के खिलाफ सीधी बगावत थी। बीसवीं सदी के दूसरे दशक के अंतिम वर्षों में टिहरी के राजा ने उन सभी फसलों पर टैक्स लगा दिया था, जिनके ऊपरी सिरे पर फसल होती थी। जिससे बचने के लिए जनता ने ऐसी फसलों को बोना शुरू कर दिया, जिनके तने पर फसल हो जैसे मक्का, किंतु राजा ने इन पर भी टैक्स लगा दिया था। फिर जनता के ऐसी फसलें उगानी शुरू कर दी जो जमीन के अंदर पैदा होती थी जैसे आलू और पिंडालू। अंत में राजा ने हर प्रकार की उपज पर भारी टैक्स लगा दिया।

जब टिहरी के राजा की अय्याशियों का खर्च इससे भी पूरा ना हुआ, तब टिहरी के राजा ने जंगल में पशुओं के चरान-चुगान पर कर लगाया। इसका नाम का पूंछ कर यानि पूंछ वाले जानवरों का वन सीमा में घुसने पर टैक्स। साथ ही राजा के आदेश पर वन सीमा को निर्धारित करने वाल मुनारे को गांव की सीमा तक सटा दिया गया। जो एक तरह से टैक्स वसूल करने का तथा उत्पीड़न करने का तरीका था। इसके विरोध में रंवाई जौनपुर के किसानों ने टिहरी के राजा से मिलने का प्रयास किया। किंतु टिहरी राजदरबार से किसानों को यह कहकर भगा दिया गया कि अगर टैक्स नहीं दे सकते तो पशुओं को ढंगार में फेंक दो। मेहनतकश पशुपालक और कृषक समाज का यह एक बड़ा अपमान था, जिसके विरोध में कंसेरू गांव के दयाराम रंवाल्टा के नेतृत्व में पहले जनांदोलन का बिगुल बजा।

सभी किसान यमुनातट के तिलाड़ी के मैदान में जनसभा के लिए एकत्रित हुए। जिसकी जानकारी टिहरी के राजा को मिल गई। आंदोलन का खत्म करने के लिए राजा ने तत्कालीन रियासत के वनाधिकारी को भेजा, साथ ही शाही फौज की एक टुकड़ी भी भेजी। शाही फौज ने शांतिपूर्ण जनसभा कर रहे निहत्थे किसानों और पशुपालकों पर गोलियां चला दी। अपने जान बचाने के लिए कई लोग यमुना नदी में कूद गए। कहते हैं उस दिन निहत्थे और निर्दोष लोगों के खून से यमुना का नीला पानी भी लाल हो गया था। जिंदा बचे लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया। जिसमें से एक आंदोलनकारी को राड़ी के जंगल में जेल ले जाते हुए गोली मार दी गई। इस घटना के बाद सारी यमुना घाटी टिहरी के राजा के खिलाफ विद्रोह पर उतर आई। कई लोगों पर मुकदमें दर्ज हुए। जिसने राजा के खिलाफ बोला उसके घर की कुर्की कर दी गई। टिहरी के राजा ने कुछ ही अरसे में आंदोलन को पूरी तरह कुचल दिया।

यह आंदोलन टिहरी के राजा के हत्याचारों का प्रतीक बनकर इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। तिलाड़ी का वह मैदान हिमालय अब एक शहीद स्थल है। इस घटना को हिमालय का जलियांवाला भी कहा जाता है। 30 मई 1930 को ही जंगलों पर अपने अधिकारों के लिए एकत्रित हुए किसानों को तीन तरफ से टिहरी के राजा के फौज ने घेर लिया। चौथी तरफ यमुना नदी थी। उस वक्त टिहरी रियासत के राजा नरेंद्र शाह थे। तिलाड़ी के मैदान में बिना किसी चेतावनी के राजा ने निर्दोष और निहत्थे ग्रामीणों को गोलियों से भून देने का आदेश दिया। जिसमें 379 लोग मारे गए थे और सैंकड़ों घायल हुए थे।

तिलाड़ी में शहीद हुए वीरों को मेरा शत्-शत् नमन।

 सतयुग में भगवान बिष्णु देते थे बदरीनाथ में साक्षात दर्शन

देहरादून। मान्यता है कि बदरी नारायण में सतयुग तक हर व्यक्ति को भगवान विष्णु के साक्षात दर्शन हुआ करते थे। त्रेता में यहां देवताओं और साधुओं को भगवान के साक्षात् दर्शन मिलते थे। द्वापर में जब भगवान श्री कृष्ण रूप में अवतार लेने वाले थे उस समय भगवान ने यह नियम बनाया कि अब से यहां मनुष्यों को उनके विग्रह के दर्शन होंगे।जो अलकनंदा नदी के किनारे उत्तराखंड राज्य में स्थित है। यह मंदिर भगवान विष्णु के रूप बद्रीनाथ को समर्पित है। यह हिन्दुओं के चार धाम मेें से एक धाम है। ऋषिकेश से यह 294 किलोमीटर की दूरी पर उत्तर दिशा में स्थित है। ये पंच बदरी में से एक बद्री भी है। उत्तराखंड में पंच बदरी, पंच केदार तथा पंच प्रयाग पौराणिक दृष्टि से तथा हिंदू धर्म की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं। इस धाम के बारे में यह कहावत है कि ‘जो जाए बदरी, वो ना आए ओदरी’ यानी जो व्यक्ति बद्रीनाथ के दर्शन कर लेता है, उसे पुनः माता के उदर यानी गर्भ में फिर नहीं आना पड़ता। शास्त्रों में बताया गया है कि मनुष्य को जीवन में कम से कम एक बार बद्रीनाथ के दर्शन जरूर करने चाहिए। बद्रीनाथ को शास्त्रों और पुराणों में दूसरा बैकुण्ठ कहा जाता है। एक बैकुण्ठ क्षीर सागर है जहां भगवान विष्णु निवास करते हैं और विष्णु का दूसरा निवास बद्रीनाथ है जो धरती पर मौजूद है। बद्रीनाथ के बारे में यह भी माना जाता है कि यह कभी भगवान शिव का निवास स्थान था। लेकिन विष्णु भगवान ने इस स्थान को शिव से मांग लिया था।

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6 माह देवता स्वयं जलाते है दीप
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मान्यता है कि जब केदारनाथ और बद्रीनाथ के कपाट खुलते हैं उस समय मंदिर में एक दीपक जलता रहता है। इस दीपक के दर्शन का बड़ा महत्व है। मान्यता है कि 6 महीने तक बंद दरवाजे के अंदर इस दीप को देवता जलाए रखते हैं।जोशीमठ स्थित नृसिंह मंदिर का संबंध बद्रीनाथ से माना जाता है। ऐसी मान्यता है इस मंदिर में भगवान नृसिंह की एक बाजू काफी पतली है जिस दिन यह टूट कर गिर जाएगी उस दिन नर नारायण पर्वत आपस में मिल जाएंगे और बद्रीनाथ के दर्शन वर्तमान स्थान पर नहीं हो पाएंगे।
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कैसे पड़ा तीर्थ का नाम बदरी नाथ
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बद्रीनाथ तीर्थ का नाम बद्रीनाथ कैसे पड़ा यह अपने आप में एक रोचक कथा है। कहते हैं एक बार देवी लक्ष्मी जब भगवान विष्णु से रूठ कर मायके चली गई तब भगवान विष्णु यहां आकर तपस्या करने लगे। जब देवी लक्ष्मी की नाराजगी दूर हुई तो वह भगवान विष्णु को ढूंढते हुए यहां आई। उस समय यहां बदरी का वन यानी बेड़ फल का जंगल था। बदरी के वन में बैठकर भगवान ने तपस्या की थी इसलिए देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु को बद्रीनाथ नाम दिया।
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—यह सब कुछ जानकारियां स्थानीय लोगो से बातचीत के दौरान सामने आई है।

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