देवप्रयाग जहाँ से पूर्ण होती है गंगा जी
देहरादून:पौराणिक इतिहास के अनुसार महाराज सागर के वंशज महात्मा भागीरथ ने गंगा जी को स्वर्ग से धरती में लाने के लिए भीषण तप किया जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी ने गंगा को अपने कमंडल से छोड़ा गंगा जी के अति वेग को संभालने हेतु अदि देव महादेव शिव ने अपनी जटाओं में गंगा जी को बंधा जिस कारण गंगा जी कई धाराओं में बंट गयी| यह सभी धाराएँ भागीरथी और अलकनंदा में विलीन होते हुए देवप्रयाग में आकर मिलती है यहीं से यह गंगा कहलाती है|
मान्यता अनुसार महात्मा भागीरथ जब गंगोत्री से गंगा की धारा के आगे चलते हुए देवप्रयाग पहुचे तो सभी 33 करोड़ देवी-देवता गंगा जी के स्वागत हेतु यहाँ उपस्थित हुए|
जनश्रुति के अनुसार देव शर्मा नामक ब्राहमण के द्धारा कठिन तप करने के कारण इस स्थान का नाम देवप्रयाग पड़ा| केदारखंड के अनुसार “विश्वेश्वरे शिवे स्थापत्य पूजियितवा यथाविधि||” त्रेतायुग में ब्रह्महत्या के दोष के निवारण हेतु भगवान् राम ने यहाँ तप किया और विश्वेश्वर शिवलिंगम की स्थापना भी की थी|
देवप्रयाग से आगे श्रीनगर में स्थित कमलेश्वर महादेव मंदिर में भगवान् राम द्धारा प्रतिदिन सहस्त्रो कमल पुष्पों द्धारा महादेव की पूजा का उल्लेख है|
गंगा जी का जहाँ अलकनंदा से संगम हुआ और सीता-लक्ष्मण सहित जहाँ श्री रामचंद्र जी निवास करते है देवप्रयाग के उस तीर्थ के सामान ना तो कोई तीर्थ हुआ ना कोई होगा|
जनश्रुति अनुसार माता सीता देवप्रयाग से 4 किमी की दुरी पर भगवान् राम तथा लक्ष्मण को छोड़कर रुक गयी थी यहाँ उन्होंने अपने लिए एक कुटिया का निर्माण किया था जिसको सीता कुटी या सीता सैण कहते है| कालांतर में यहाँ के निवासी इस स्थान को छोड़कर पर्वत के उपरी हिस्से में आकर बस गए वर्तमान में इस गाँव का नाम मुछियाली है| बावुलकर लोग बाद में माता सीता की प्रतिमा को भी गाँव में ले आये और उनकी तब से विधिवत पूजा प्रार्थना करते है|
अदि गुरु शंकराचार्य जी ने यहाँ भगवान् राम के प्राचीन मंदिर का द्रविड़ शैली में पुन: निर्माण करवाया था यह मंदिर आज रघुनाथ मंदिर नाम से विख्यात है जो की संगम मार्ग में ही स्थित है| आदि गुरु शंकराचार्य जी काल से ही यहाँ भगवान् रघुनाथ जी का परिधान नित नए रंग से बादल दिया जाता है जो रविवार और मंगलवार को लाल, सोमवार तथा शुक्रवार को सफ़ेद, बुद्धवार को हरा, गुरूवार को पीला तथा शनिवार को काला रंग का होता है|
मंदिर के पीछे की शिलाओं में ब्रह्मीलिपि तथा कुछ अज्ञात लिपि में कई शिलालेख है जिनको संरक्षण की आवश्यकता है मंदिर प्रबंधक जिसे अभी अपने सिमित संशाधनो से संरक्षित करता है लेकिन कुछ सबसे बड़ी समस्या यहाँ आने वाले प्रेमी युगल अपने नाम लिखकर पैदा करते है|
देवप्रयाग एकमात्र ऐसा तीर्थ है जहाँ कावें नही दिखाई पड़ते इसका कोई कारण आज तक ज्ञात नही हो पाया है यह देवप्रयाग का सबसे बड़ा रहस्य है|
देवप्रयाग में दो पवित्र नदियों के संगम के साथ-साथ गढ़वाल के दो जिलो टिहरी तथा पौड़ी का भी संगम होता है| गढ़वाल की राजधानी राजतन्त्र के काल में श्रीनगर हुआ करती थी| श्रीनगर के निकट होने के कारण देवप्रयाग सदैव ही गढ़वाल की संस्कृति तथा धार्मिक गतिविधि का केंद्र रहा है|
जनश्रुति के अनुसार माँ सती द्धारा अपने पिता के यज्ञ में अपने पति महादेव के अपमान के कारण स्वम् को यज्ञकुंड में आहूत करने के बाद महादेव के रूद्र स्वरुप द्धारा दक्ष यज्ञभंग तथा वध के उपरांत माँ सती के शरीर को भगवान् विष्णु द्धारा विखंडन देवप्रयाग क्षेत्र से ही सुदर्शन चक्र से किया गया था जिस कारण इसे सुदर्शन क्षेत्र भी कहते है यहाँ सुदर्शन पर्वत भी है|
यहाँ पर सूर्य कुण्ड तथा ब्रहमकुण्ड नामक दो कुण्ड है| सूर्य कंदरा (गुफा) तथा वशिष्ट कंदरा (गुफा) नामक दो कंदरा है जिनमे से वशिष्ट कंदरा में भगवान् राम को महर्षि वशिष्ट ने यही ज्ञान दिया था जो वशिष्ट रामायण के रूप में रचित है|
ब्रहमकुण्ड में हर वर्ष को वैशाखी के पवित्र दिन यहाँ विशाल मेला लगता है इस दिन यहाँ सम्पूर्ण गढ़वाल से लोग अपने पितरो का श्राद्ध करने आते है तथा भुत-प्रेत बाधा से व्यथित लोग भी यहाँ आते है| गढ़वाल में अधिकांश लोग ब्रह्मकुण्ड में आकर भुत-प्रेत, अप्सरा, अछारियों, आदि को शांत करने हेतु उन्हें यहाँ डोली देते है| रात भर यहाँ जागर लगते है पसवा (अवतारी पुरुष/महिला) या व्यथित अपनी इक्छा बताते है फिर सुबह वो सब स्नान कर अपने-अपने गंतव्य की और प्रस्थान करते है| यह मेला गढ़वाल की संस्कृति को समझने में भी सहायक है|
मदन पैन्यूली