धार्मिक आस्था और ऐतिहासिक महत्व का गढ़वाल का कुम्भ माघ मेला
उत्तरकाशी (मदन पैन्यूली)विश्वनाथ नगरी उत्तरकाशी के प्रसिद्ध माघ मेले (बाड़ाहाट कु थौलू) का आगाज 14जनवरी* से शुरू हो गया है,उत्तरकाशी के माघ मेले का अपना धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व है। *धार्मिक मान्यताओं में यह मेला महाभारत* काल से जुड़ा है, जबकि *ऐतिहासिक* महत्व यह है कि यह *मेला भारत और तिब्बत के व्यापार* का साक्षी रहा है।
उत्तरकाशी में *माघ मेले का पौराणिक* नाम *बाड़ाहाट का थौलू है, बाड़ाहाट का अर्थ बड़ा हाट यानी बड़ा बाजार* है, बाड़ाहाट में आजादी से पहले *तिब्बत के व्यापारी यहां सेंधा नमक, ऊन, सोना जड़ी-बूटी, गाय, घोड़े बेचने* के लिए आते थे, उस समय यह मेला एक माह तक चलता था, *तिब्बत के व्यापारी यहां से धान, गेहूं लेकर वापिस* लौटते थे,इस *मेले में टिहरी और उत्तरकाशी के ग्रामीण अपने देवताओं के साथ आते थे, गंगा स्नान के साथ-साथ खरीददारी* भी करते थे, इतिहासकार उमा रमण सेमवाल बताते हैं कि उत्तरकाशी का माघ मेला राजशाही के नियंत्रण में था, राजशाही के समय इस माघ मेले में तिब्बत से आने वाले व्यापारियों का हिसाब किताब रखने के लिए अंतिम मालगुजार मुखबा निवासी पंडित विद्यादत्त सेमवाल थे, ये तिब्बत के व्यापारी टिहरी राज दरबार तक सामान पहुंचाते थे, उमा रमण सेमवाल का कहना है कि *माघ मेले में 1962 तक तिब्बत के व्यापारी आते थे, उसके बाद जब सीमाएं बंद हुई तो तिब्बत के व्यापारियों का यहां आना भी बंद* हो गया लेकिन, इस पौराणिक और ऐतिहासिक मेले के आयोजन की परंपरा अभी भी चल रही है, वे कहते हैं के धार्मिक महत्व के लिहाज से भी इस मेले को महाभारत काल का माना जाता है, *महाभारत के आदि पर्व* में उल्लेख है कि *वनवास के दौरान पांडव यहां आए थे, उत्तरकाशी के पास में लाक्षागृह था जो आज लक्षेश्वर* के नाम से जाना जाता है, इसीलिए *इस मेले में पांडव नृत्य* का भी खास महत्व है और वर्तमान में *रवाईं के सरनोल गाँव के पांडव नृत्य* की टीम यहाँ पर प्रतिभाग करती है, *मेले में पांडवों की विशेष पूजा अर्चना* की जाती है