देहरादून: साबर मती की तर्ज पर देहरादून में रिस्पना व बिंदाल नदियों के रिवर फ्रन्ट डेवलपमेंट कारपोरेशन लिमिटेड के साथ तकनीकी सहयोग के लिये mou किया गया है।2 साल के अन्दर इन नदियों का पुनरजीविकरण हो सकेगा व रिवर फ्रंट डेवलपमेंट का काम होसकेगा
इस समाचार को जानकर लगा कि राज्य में पॉलिटिकल लीडरशिप नाम की कोई चीज़ नहीं है। सरकार ब्यूरोक्रेट्स चला रहे है और मंत्री/मुख्यमंत्री को अपने इशारों पर नचा रहे है। ब्यूरोक्रेट्स कहते है कि ये काम बंद कर दो तो मंत्री/मुख्यमंत्री तुरंत उस काम को बंद करने का फरमान सुना देते है, दो साल बाद ब्यूरोक्रेट कहते हैं कि ये काम फिर शुरू कर दो तो एक नया एमओयू साइन हो जाता है। इस बीच दो साल तक जो विकास रुका रहा उसके प्रति किसी की भी ज़िम्मेदारी नहीं तय की जाती। दरअसल विकास में पिछड़ने का यही सबसे बड़ा कारण है। हम लोग भी कतिपय कारणों से इस तरह के मुद्दें उठाने से परहेज़ करते है। पिछले दो साल में हुई कैबिनेट बैठकों का हिसाब उठाकर देख लिया जाए तो पता चल जाएगा कि नौकरशाही सरकार पर कितनी हावी है। आपको अध्ययन से पता चल सकेगा कि लगभग हर बैठक में कम से कम एक मामला अधिकारियों-कर्मचारियों के हित का था। ये सरकार कहती है कि राज्य का 90 प्रतिशत बजट नॉन प्लान यानि तनख्वाह और पेंशन इत्यादि में जा रहा है, विकास के लिए पैसा नहीं है। ये कोरा बक़वास है। सही बात तो ये है कि आज की लीडरशिप ब्यूरोक्रेसी के कहने में आकर विकास कार्यों को लटका रही है। आज राज्य का बजट 40 हज़ार करोड़ रुपये है लेकिन ये पूरा बजट भी मार्च तक विभागों और ज़िलों को ज़ारी नहीं होता है। जब तिवारी जी मुख्यमंत्री थे तब राज्य का बजट 4 हज़ार करोड़ रुपये था, लेकिन राज्य में काम 40 हज़ार करोड़ रुपए के होते थे। तब विकास हो सकता था तो आज क्यों नहीं? विकास तभी हो सकता है जब विकास को लटकाने वाले अधिकारियों की ज़िम्मेदारी तय की जाय। इसकी शुरुआत यदि रिवर फ्रंट डेवेलपमेंट योजना को खारिज़ करने वाले और इस योजना में चल रहे विकास कार्य को दो साल तक रोकने वाले, रोकने का सुझाव देने वाले अधिकारियों को वार्षिक पंजिका में प्रतिकूल प्रविष्टि देकर की जाए तो भविष्य के लिए शुभ संकेत होंगे।
कुँवर राज अस्थाना
संपादक, दिव्य हिमगिरि