‘बूढ़ाकेदार मंदिर’ जहाँ विराजमान है भगवान शिव का वृद्ध स्वरूप(मदन पैन्यूली)
बूढ़ाकेदार के नाम से प्रसिद्ध भगवान शिव का मंदिर टिहरी गढ़वाल के थाती कठूड़ नाम स्थान पर स्थित है। टिहरी से इस मंदिर की दूरी लगभग ६० किलोमीटर की है। भगवान ‘शिव’ के भक्तों व अन्य श्रद्धालुओं के बीच यह एक आस्था व श्रद्धा के प्रचलित स्थलों में से एक है। जैसे की हम जानते है उत्तराखंड को ‘देवभूमि’ भी नाम दिया है क्योंकि यहाँ कण-कण मे देवी देवता व उनकी देव्य शक्तियाँ वास करती है और उन्ही शक्तियों की एक झलक इस मंदिर में भी देखने को मिलती है। जानकारों के अनुसार इस मंदिर का भी कई वर्षों प्राचीन इतिहास है। साथ ही लोगों व जानकारों का कहना है कि इस मंदिर मे स्थित शिव लिंग का निर्माण मानव द्वारा नहीं बल्कि इस मंदिर में स्थित शिवलिंग की उत्पति स्वयं हुई है, जो की इस मंदिर को अपनी चमत्कारी शक्तियों के रूप मे विशेष बनाती है।
#मंदिर का प्राचीन इतिहास
बूढ़ाकेदार इस नाम का अर्थ कुछ इस प्रकार है ‘बूढ़ा’ अर्थात वृद्ध वहीं ‘केदार’ भगवान शिव के अनेक नामों में से एक है। बूढ़ाकेदार मंदिर मे भगवान शिव अपने वृद्ध स्वरूप मे विराजमान हैं। भगवान के इस स्वरूप के पीछे यह कारण है की पाण्डवों पर अपने ही कुलवंशियो की हत्या का कलंक लगा था इस कलंक से मुक्ति के लिए ‘महर्षि व्यास’ द्वारा उन्हें शिव की उपासना करने का सुझाव दिया गया। पाण्डव द्वारा शिव की कई उपासना की गई परंतु शिव भी पाण्डवों से रूष्ट थे और वे पाण्डवों के समक्ष जाना नहीं चाहते थे इसलिए उन्होंने वृद्ध नंदी बैल का रूप धारण कर लिया और हिमालय की घाटियों में ही अन्य जानवरों के बीच छुप गए परंतु भीम द्वारा शिव के इस रूप को पहचान लिया गया और जैसे ही भीम ने शिव के नन्दी रूप को पकड़ना चाहा शिव का यह रूप कई भागो में विभाजित हो गया। बूढ़ाकेदार मंदिर मे शिव के ‘वृद्ध नंदी’ (बैल) स्वरूप को पूजा जाता है इसलिए इसे बूढ़ाकेदार नाम दिया गया है।
#मंदिर के शिवलिंग का स्वरूप
बूढ़ाकेदार मंदिर में स्थित शिवलिंग की आंतरिक गहराई का आकलन तो अभी तक कोई नहीं कर पाया है परंतु ऊपरी ऊँचाई ज़मीन से लगभग २ से ३ फ़िट की है। इसी के साथ इस शिवलिंग पर भगवान शिव के अलावा कई अन्य आकृतियॉ भी बनी है। जैसे की माता पार्वती, भगवान गणेश व उनका वाहन मुसक, पाँच पांडव व द्रौपदी व भगवान हनुमान। इसके साथ ही मंदिर मे भगवान ‘कैलापीर’ का निशान व माता दुर्गा की प्रतिमा भी रखी गई है।
#कैलपीर की अनोखी शक्तियाँ
भगवान कैलपीर का निशान यू तो वर्ष भर मंदिर के भीतर होता है परंतु अक्टूबर से नवम्बर माह के मध्य यह निशान मंदिर से बाहर निकलता है। इस दौरान आसपास के गाँव वालों द्वारा थौल (मेले) का आयोजन किया जाता है। इसी दौरान यहाँ दीपावली का भी पर्व भी मनाया जाता है। जिसे ‘रीख बग्वाल’ भी कहा जाता है।