पंचक्षीरा बल मि क्य छौं
पजल-६५१
बल स्वारों क अग्नै
म्वारौं भूत नाचु
अर म्वारों क अग्नै
स्वारौं पूत नाचु
जु बल दही जामल
तबल घ्यू बि जामल
जो बल घ्यू ना स्यू
त बल खा मेरु ज्यू
*भावार्थ*
अलाणी-फलाणी (अमुक-समुक) पंच परमेश्वरों की सुप्रसिद्ध कहावत (बल छोटी पूजा के भी पांच भांडे-बर्तन, और बड़ी पूजा के भी पांच ही भांडे-बर्तन) की भूमिका स्वरूप पहेली खेल के प्रथम चरण में अपनी संदर्भित बात को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि बल स्वारों (दो सगे भाई अलग होकर सोरे, यानी रिश्तेदार भाई हो जाते हैं) के आगे, म्वारौं (मधुमक्खियों) के भूत नाचे, यानी काल के भी काल महाकाल नाचे, और म्वारों (मधुमक्खियों) के आगे, स्वारौं (रिश्तेदार भाईयों) के पूत नाचे, यानी शहद को हासिल करने हेतु रिश्तेदार भाईयों का पूरा कुनबा एकजुट प्रयासरत हो जाता है। अमुक पुनः अपनी संदर्भित बात को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि जो बल दही जमेगी, तो बल घी भी जमेगा, और जो बल घ्यू (घी) ना स्यू (सी), तो बल खा मेरु (अमुक) का ज्यू (जी/दिल)।
बल ज्यूंदा जुगता
नि देणा छन मांड
तबल म्वरण जुगता
स्यि देणा छन खांड
त छोड़ि पंचबिकार
पंचतत्व जीबन्सार
करा पंच परमेसुर
पंचामृत कु विचार
*भावार्थ*
अमुक भ्रामकता के मकड़जाल में फंसाते हुए पहेली खेल के भ्रामक दूसरे चरण में अपनी संदर्भित बात को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि बल ज्यूंदा जुगता, यानी जीवित रहते, नहीं दे रहे हैं लोग मांड (चावल का वसायुक्त पानी), तो बल म्वरण जुगता, यानी मौत होने पर, ये लोग दे रहे हैं खांड (शक्कर का बूरा), *यानी जीते-जी कंगाली में आटा गीला, और मरने पे बंगाली मिठाई का मेला*, तो बल मूर्खों छोड़कर पंचविकार (नोट-२), पंचतत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) रूपी जीवन सार, करो पंच परमेश्वर (सूर्य, गणेश, विष्णु, शिव और पार्वती स्वरूप पंचदेव), पंचामृत (नोट-३) का विचार।
चांदपुर चौंलुं मांड
द्यौ दै भोरि भांड
लोहभा मंगि मांड
द्यौ सांट मा खांड
चौथान ढ़ैज्युली
छिं घ्यू दूधै धुली
माणि दूध तोली
द्यौ घ्यू कि कमोली
*भावार्थ*
अमुक भ्रामकता के मकड़जाल से ससम्मान बाहर निकाल कर वेबसाइट स्वरूप पहेली खेल के ज्ञानमयी तीसरे चरण में संवेदनात्मक एवम भावनात्मक स्वरूप अपनी संदर्भित बात को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि बल उसके आह्वाहन पर उसकी पांच पट्टियां (एक पटवारी के कार्य क्षेत्र के अधीन एक पट्टी होती है, जिसमें कई गांव शामिल होते हैं) यानी पौड़ी जिले के अंतर्गत तीन पट्टियां (चौथान, चोपड़ाकोट, ढ़ैज्युली) और चमोली जिले के अंतर्गत दो पट्टियों (चांदपुर और लोहभा पट्टी) के पंचपरमेश्वर स्वरूप की एकजुटता के अनुसार तथाकथित पंचामृत की भागेदारी हेतु बल चांदपुर पट्टी चौंलुं (चावलों) का मांड, देवे दै (दही) भरकर भांड (बर्तन), तो लोहभा पट्टी मांगकर मांड, देवे सांट (बदले) में खांड (शक्कर का बूरा), तो बल चौथान और ढ़ैज्युली, हैं दोनों पट्टियां घी दूध की धुली (यानी इन दोनों राठ की पट्टियों में देने हेतु घी दूध की कोई कमी नहीं होती), तो माणि (आधे किलो/आधे लीटर के मापक भरकर) दूध तोली (तोलकर), देवें घी की कमोली (घी का निर्धारित बर्तन)।
चोपड़ाकोट सौत
द्यौ बाळीकि ज्योत
त चमोली द्वि पट्टी
पौड़ी तीन पट्टी
उत्तराखंडि पामीर
बणेगिं पंचाक्षीर
दूधै तौली छौं
पंचक्षीरा मिक्यछौं?
*भावार्थ*
अमुक पहेली खेल के चौथे अंतिम निर्णायक चरण में अपनी संरचनात्मक एवम गुणात्मक विशेषताओं का बखान करते हुए अपनी संदर्भित बात को आगे बढ़ाते हुए कहती है कि बल चोपड़ाकोट पट्टी सौत (शहद), देवे बाळीकि (देवस्थान में जलाकर पूजा) की ज्योत, तो बल चमोली जिले की तथाकथित दो पट्टी, और पौड़ी जिले की तथाकथित तीन पट्टी, उत्तराखंड का पामीर (बुग्याळ/पठार), बना गये पंचाक्षीर (पंचामृत स्वरूप अपनी-अपनी पांच दूध की सदाबहार नदियां, विवरण नोट-४ में उपलब्ध है)। अंत में अमुक पहेली खेल के अनुसार प्रश्नात्मक शैली में कहती और पूछती है कि बल वह दूधै तौली (दूध का भरा बड़ा पतीला) है, *तो बताओ कि तथाकथित पंचक्षीरा (पांच क्षीरसागर की जन्मदाता/जन्मस्थली) बल वह क्या है*?
*जगमोहन सिंह रावत ‘जगमोरा’*
*प्रथम पाड़ी पजलकार (थ्री पी)*
*पजलाखण्ड साहित्य सरोकार*
*नोट*:
१. *पजल का उत्तर* एक शातिर चित्तचोर की तरह अपनी ओपन निशानदेही के चैलेंज के साथ पजल में ही अंतर्निहित छिपा हुआ होता है।
२. मन के पांच विकार-काम, क्रोध, लोभ, मोह तथा अहंकार इन पांचों के कारण ही मनुष्य सदा ही दुख पाता है; प्राचीन काल में भी ऋषि विश्वामित्र, ऋषि दुर्वासा तथा अन्य देवताओं को भी इन विकारों के हाथों पराजित होना पड़ा था; कोई भी अनुष्ठान हो अथवा पूजा-अर्चना केवल तभी सफल होती है जब मन के इन विकारों से व्यक्ति मुक्त हो जाए और निर्मल मन से ईश्वर की आराधना करें; इसीलिए मन को निर्मल करने के लिए प्रत्येक पूजा में पंचामृत का उपयोग करने की सलाह दी गई है।
३. पंचामृत-
*पयोदधि घृतं चैव मधु च शर्करायुतम्*।
*पञ्चामृतं मयानीतं स्नानार्थं प्रतिगृह्यताम्* ॥
अर्थात : दूध, दही, घी, मधु, और शर्करा-युक्त पञ्चामृत देवताओं के स्नान हेतु है, पंचदेव आत्मसात करें।
पंचामृत एक आयुर्वेदिक पेय है जो दूध, दही, घी, शहद और चीनी से बनाया जाता है। पंचामृत को धार्मिक उपलक्ष्य में बनाया जाता है। यह एक अमृत माना जाता हैं। या एक पवित्र पेय है जो हिंदू पूजा में उपयोग किया जाता है। पंचामृत का अर्थ है “पांच द्रव्य”। यह पांच तत्वों का प्रतीक है। पंचामृत को सभी देवताओं के लिए भोजन माना जाता है, और इसे पंचामृत प्रसाद के रूप में भी ग्रहण किया जाता है। पंचामृत एक पारंपरिक और सांस्कृतिक भारतीय पेय है।
मनुष्य की रचना पंचामृत स्वरूप पांच तत्वों से मिलकर हुई है, जो इस प्रकार हैं- पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश, इसके अलावा पांच ज्ञानेंद्रियां तथा पांच कर्मेंद्रियां भी उसमें समावेशित हैं, इन सब में सर्वाधिक शक्तिशाली मन को माना गया है, जिस की गति अत्याधिक तीव्र होती है, मन की इच्छा चंचलता के कारण मात्र मनुष्य को ही नहीं अपितु देवताओं के साथ-साथ दैत्यों को भी दुःख झेलने पड़े थे।
४. पंचक्षीरा- पूर्वी नयार, पश्चिमी नयार, रामगंगा, आटागाड़ तथा विनौ (विनोद) बारामासी सदानीरा नदियां हैं। पूर्वी नयार स्यूंसी-बांगर बैजरो होते हुए सतपुली से आगे बांघाट में पश्चिमी नयार (पैठाणी, पाबौ होते हुए) से मिलकर व्यासी में गंगा नदी से मिलती है। आटागाड़ नदी सिमली (चमोली जिले) में पिंडर नदी से मिलती है, जो आगे कर्णप्रयाग में अलकनंदा (गंगा की मुख्य सहायक नदी) में समाहित होती है। विनौ (विनोद) नदी रामगंगा नदी की एक सहायक नदी है, जिसे कुमांऊँनी बोली में विनौ भी कहा जाता है। यह उत्तराखण्ड राज्य के हिमालय पर्वत के कुमांऊँ और गढ़वाल क्षेत्र की पर्वत श्रंखलाओं से निकलकर पौराणिक बृद्धकेदार के निकट रामगंगा नदी में मिलती हैै।
रामगंगा नदी उत्तराखंड के स्रोत, जिसे “दिवालीखाल” कहा जाता है, गैरसैण तहसील मेंहै, से होकर बहती है; यह चौखुटिया तहसील में एक गहरी और संकरी घाटी द्वारा कुमाऊं के अल्मोड़ा जिले में प्रवेश करती है; वहां से उभरते हुए यह दक्षिण-पश्चिम की ओर मुड़ती है और लोहाबागढ़ी की दक्षिण-पूर्वी सीमा के चारों ओर व्यापक रूप से घूमते हुए तड़ागताल नदी को प्राप्त करती है। इसके बाद यह उसी दिशा में आगे बढ़ती है और गनाई पहुंचती है, जहां इसमें दूनागिरी से निकली खरोगाड़ बाईं ओर से और पंडनाखाल से आयी खेतासारगढ़ दाईं ओर से आकर मिलती है।
गनाई से निकलकर यह तल्ल गेवाड़ क्षेत्र की ओर बहने लगती है, जहां मासी के बाद पौराणिक बृद्धकेदार क्षेत्र चौकोट से निकली विनोद नदी आकर मिलती है, और इस बिंदु से आगे यह भिकियासैंण पहुंचती है, जहां इसमें पूर्व की ओर से गगास और दक्षिण की ओर से नौरारगाड़ आकर मिलते हैं। भिकियासैंण से नदी पश्चिम की ओर एक तीव्र मोड़ लेती है और सल्ट से नेल और गढ़वाल से देवगाड़ का पानी प्राप्त करती है। मारचुला पुल के बाद से कुछ दूर तक यह अल्मोड़ा और पौड़ी गढ़वाल जिलों की सीमा बनाती है। इसके बाद यह भाबर में प्रवेश करती है और पतली दून से पश्चिम की ओर बहते हुए में जिम कॉर्बेट राष्ट्रीय उद्यान में प्रवेश करती है।
रामगंगा, जो पहले से ही बड़ी नदी बन चुकी है, उत्तर प्रदेश राज्य के बिजनौर जिले में स्थित कालागढ़ में मैदानों में प्रवेश करती है, यहां से आगे खोह नदी से इसका संगम होता है, और फिर यह मुरादाबाद जिले में प्रवेश कर जाती है, जहांं से रामपुर जिले की ओर आगे बढ़ती जाती है, जहां चमरौल के पास इसका संगम कोशी से होता है। रामपुर से बरेली जिले में आ पहुंचती है। बरेली जिले में भाखड़ा और किच्छा की संयुक्त धारा आकर मिलती है। इसके बाद यह बरेली नगर के समीप पहुँचती है, जो इसके बाईं ओर स्थित है। यहाँ इसका संगम देवरनियाँ और नकटिया नदियों से होता है- दोनों नदियां बरेली नगर से होकर बहती हैं। बरेली के समीप चौबारी गाँव में सितंबर-अक्टूबर माह में गंगा दशहरा के अवसर पर नदी के तट पर वार्षिक मेला आयोजित किया जाता है। आगे बदायूँ, शाहजहाँपुर में बहती हुई, यह जलालाबाद होते हुए हरदोई जिले में आ जाती है, और अंत में लगभग ३७३ मील का कुल सफर तय करने के बाद, कन्नौज के विपरीत गंगा नदी में मिल जाती है।(आभार)