कामगार, मेहनतकश महिलाओं का दिन है 8 मार्च…
अन्तर्राष्टीय महिला दिवस ( 8 मार्च ) एक बार फिर बार हमारे सामने है। हमारे पास कामगार महिला आंदोलन का एक पूरा इतिहास है। जिसे हमें बार-बार याद करने की जरूरत है। जब पूरे योरोप में उद्योगों का विकास तेजी से फैल रहा था तो महिलाएं भी जीविका कमाने के लिए भारी संख्या में घरों की चारदिवारी से निकलकर फैक्ट्रियों में आ रही थी। वह घर गृहस्थी और बच्चों के पालन-पोषण जैसी पारम्परिक भूमिका भी निभा रही थी, और साथ ही कारखानों में लूट व मुनाफे की व्यवस्था का शिकार भी बन रही थी। वह कारखानों में 16 से 18 घंटे बिना रूक हुए काम कर रही थीं, उसके बाद भी उनकी तनख्वाह पुरुषों की तनख्वाह से करीब आधी ही थी, काम के घंटे ज्यादा थे और कार्य-स्थलों में स्थिति बहुत ही अमानवीय थी। वह विभिन्न प्रकार के शोषण का शिकार हो रही थी। इन्हीं सब परिस्थितियों से तंग आकर 8 मार्च 1857 को इग्लैंड में कपड़ा मिल की महिला मजदूरों ने अपने काम के घण्टे कम करने और कार्य-स्थलों में बेहतर स्थितियों को लेकर सड़कों पर हजारों की संख्या में हड़ताले व प्रदर्शन किये।
साल दर साल 8 मार्च का हल्ला जोरो पर रहता है, सरकार कुछ अखबारों को विज्ञापन देकर कल्पना चावला, किरण बेदी, ऐश्वर्या रॉय व अन्य महिलाओं का उदाहरण पेश कर साथ ही एक-दो योजनाओं का उद्घाटन करते हुए महिला सशक्तिकरण की बात करती है, लेकिन सरकार की इस महिला सशक्तिकरण के नारो की पोल उस समय खुल जाती हैं जब महिलाएं कार्यस्थलों में (उच्च न्यायालय के विषाखा जजमेंट) घोषित ‘यौन उत्पीड़न विरोधी समिति’ होने के बाद भी यौनिक हिंसा को लगातार झेलती आ रही हैं और कानून बनने के बाद भी इसे लागू नहीं किया जा रहा है। और वहीं दूसरी तरफ दुनिया की तमाम बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अपने माल को बेचने के लिए इस दिवस को मना रही हैं, और इस के असली मकसद को आज भुला दिया गया है।
दिल्ली में दो साल पहले (16 दिसम्बर का सामूहिक बलात्कार) हुई घटना के बाद पूरे देश में गुस्से की लहर फैल गयी, और इस घटना के आक्रोश ने सरकार को मजबूर किया कि वह महिलाओं की सुरक्षा के लिए कोई ठोस कदम उठाये। आनन-फानन में सरकार ने वर्मा कमेटी गठित की। वर्मा कमेटी के गठित हो जाने के बाद भी महिला उत्पीड़न में कोई कमी नहीं आयी है। इस कानून के बन जाने के बाद भी देश के अलग-अलग राज्यों में महिलाओं के साथ रेप, हिंसा और छेड़छाड़ की सैकड़ों घटनाएँ हो रही हैं। महिलाओं के लिए सशक्त कानून का हल्ला मचाने वाली सरकार के दावे कितने खोखले हैं यह हम देख रहे हैं…
आज महिलाएँ जितनी तेजी से आगे बढ़ रही हैं, यौनिक हिंसा भी उतनी ही तेजी से हो रही है। सभी वर्ग समाजों में महिलाएँ यौनिक हिंसा का सामना करती हैं, लेकिन खेत-खलिहानो, फैक्ट्री-कारखानों में काम करने वाली खासकर दलित, आदिवासी व गरीब मेहनतकश महिलाएँ यौनिक हिंसा को ज्यादा झेलती हैं। बड़े-बड़े संस्थानों में अफसरों द्वारा महिलाओं पर निरन्तर यौनिक हिंसा हो रही है। तहलका का संपादक तरूण तेजपाल, सुप्रीप कोर्ट का जज ऐ.के.गागुंली, टेरी का पूर्व अध्यक्ष पचौरी हमारे सामने उदाहरण हैं।
16 दिसंबर की घटना के लिए मध्यम वर्ग अपराधियों को सजा दिलाने के लिए सड़को में एकजुट हो जाता है, लेकिन इन मेहनकश महिलाओं के साथ जब कोई घटना होती है तो न मध्यम वर्ग और न ही मीडिया सामने आता है। समाज का यह दोहरा मानदण्ड ही महिला हिंसा को बढ़ावा देता और महिलाओं को पीछे हटने पर मजबूर करता है।
इसके अलावा साम्प्रदायिक व जातिगत हिंसा में सबसे ज्यादा महिलाएं ही शिकार होती हैं। कोर्ट-कचहरी, कानून, राज्य मशीनरी, धर्म, मीडिया, शिक्षा-संस्कृति सारे तत्व महिलाओं पर हिंसा को जायज ठहराते हैं। 1992 का उदाहरण हमारे सामने है जब ऊंची जाति के अपराधियों ने दलित महिला भंवरी देवी के साथ सरेआम बलात्कार किया और जब वह अपराधियों के खिलाफ न्यायालय गयी तो अदालत यह कहते हुए गुनगाहर को माफ कर देती है कि उंची जाति का व्यक्ति नीची जाति की महिला का बलत्कार नही कर सकता है; यह केवल पितृसत्तात्मक ब्राहामणवादी समाज का ही नहीं बल्कि हमारे देश का न्यायतंत्र वह उसकी संस्थानों के चरित्र को भी उजागर करता है।
इधर जैसे-जैसे महिलाएं राजनीतिक आंदोलन और राष्ट्रीयता आन्दोलन, या फिर अन्य जनसंगठनों में बड़ी संख्या में आ रही हैं, तो राज्य महिलाओं के मनोबल को तोड़ने के लिए बलात्कार को एक हथियार के रूप में इस्तेमाल करता रहा है। कश्मीर व पूर्वोत्तर राज्यों में सेना को जनता के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है, और सेना आए दिन महिलाओं के साथ बलत्कार और नागरिकों की हत्याएं कर रही हैं। इन इलाकों में सश्स्त्र बलों को आतंक फैलाने की खुली छुट काले कानूनों ने दे रखी है। और वहीं दूसरी तरफ छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, झारखण्ड, उड़ीसा, आंध प्रदेश, महाराष्ट के आदिवासी इलाकों में भारत सरकार ने विकास के नाम पर क्रान्तिकारी आंदोलनों को दबाने के लिए सेना का इस्तेमाल कर रही है। जिसके चलते बड़ी संख्या में सश्स्त्र बलों और निजी सेनाएं आए दिन आदिवासी महिलाओं का बलात्कार कर उनकी हत्या कर रही है। वह बलात्कार जैसे घृणित हथियार का इस्तेमाल कर महिलाओं के एकता व संघर्ष को तोड़ने का प्रसास कर रही है।
और वहीं दूसरी ओर तेज रफ्तार से निजीकरण चल रहा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को ताबड़तोड़ आमंत्रित किया जा रहा है, जिसके चलते मजदूर महिलाओं और पुरुषों का जीवन असुरक्षित हो गया है। छोटे वह बंड़े उद्योगो में तालाबंदी और बड़े पैमाने पर छंटनी की शिकार भी महिलाएं सबसे पहले हो रही हैं। छटनी की वजह से ये महिलाएं अपने परिवार की जीविका चलाने के लिए असंगठित क्षेत्रों में काम कर रही हैं, और इन क्षेत्रों में स्थितियां तो ओर भी भयानक हैं। इनके काम के घंटे तय समय से अधिक है, और इनकी आमदनी भी बहुत कम है। इन असंगठित क्षेत्रों में लंबे समय तक काम करते रहने के दौरान ये कई गंभीर बिमारियों की गिरफ्त में आती है, और इनके पास अपने ईलाज के लिए पैसा भी नहीं है क्योंकि निजीकरण के चलते ये लगातार स्वास्थ्य, शिक्षा, मकान, स्वच्छ जल, जैसी बुनियादी चीजों से भी दूर होती जा रही हैं। इन सब कठिन स्थितियों के बावजूद भी अभी तक नारी आंदोलन तो छोड़िये, कम्युनिस्ट महिला संगठनों की ओर से भी कोई कोशिश नहीं की गयी है। ऐसे वक्त में हमें 8 मार्च की नायिका क्लारा जेटकीन, सावित्रीबाई फुले, पंडिता रामाबाई, प्रतिलता वादेकर, तेभागा, तेलगांना, नक्सलबाड़ी आंदोलन और विश्व भर की उन मजदूर महिलाओं की कुर्बानियों को याद करते हुए एक सशक्त महिला आंदोलन बनाने की जिम्मेदारी क्रान्तिकारी आंदोलन के सामने आन पड़ी है।
बबिता उप्रेती (भाभी की फेसबुक पोस्ट से साभार)