चारधाम यात्रा की भीड़ को कम करने के लिए इन जगहों के प्रचार प्रसार करने की आवश्यकता है
उत्तरकाशी की यमुना घाटी में अपनी पौराणिक संस्कृति की धरोहर अभी भी ताजा देखने को मिलती है । इसी के चलते एक अनोखी संस्कृति देखने को मिली यमदग्नि ऋषि के आश्रम थान गांव में शमेश्वर देवता का मेला । यह मेला जेष्ठ मास की संक्रांति से प्रारंभ होकर आषाढ़ की तीन गति को सम्पन्न होता है। इस मेले की शुरुआत एक अनोखी परम्परा के साथ आटे का एक बड़ा सा रोट बनाकर उसे लकड़ी की लम्बी लांग के शीर्ष पर बांधकर उसे खड़ा किया जाता है फिर उस पर धनुष-बाण से लक्ष्य भेदन किया जाता है जिसको देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं। इस मेले की ऐतिहासिकता की अगर बात करें तो यमदग्नि ऋषि मन्दिर समिति के उपाध्यक्ष श्री विक्रम सिंह रावत का कहना है कि यह जातर लगभग डेढ़-पौने दो सौ साल पहले क्षेत्र के पाली गाँव में जुड़ती थी जिसमें नगांण थोक के सात-आठ गाँव के लोग जाते थे, जहाँ डोकरु मारा जाता और गीत रास लगाई जाती थी। जब वहाँ पाली गाँव में नगांण थोक के लोग तांदी रास लगा रहे थे बुजुर्गों का कहना है कि उन्हें पाली के किसी व्यक्ति ने ताना मारते हुए कहा कि रास लगानी है तो अपनी सैना की सेरी लगाना, फिर क्या था वह बात नहीं अखरी, उद्दी नगाण के दिशा निर्देशन में गुप्त से अपने बाजगी को लेकर वापस घर की ओर चल दिए। कांडांइ बानथातर बड़ाता के पाली तरफ पहूँचे तब तक पाली वालों को पता लग गया कि वो लोग नाराज होकर चल दिए। पिछे से मनाने को आये किन्तु बात नहीं बनी। के बाद इन्हीं गणमान्य लोगों ने योजना बनाई कि शमेश्वर देवता पहले बकरी की बली लेता था, प्रथा को भी बन्द करते हुए जेष्ठ की जातर जेठंग दिया गया। जिस मेले का उद्घाटन सुकण गाँव के रावत लोग धनुष-बाण से आटे का बड़ा सा रोट को नत्थी जुमर्या व उसके परिवार के लोग बनाते हैं की मदद लांग में वींउणेटि की झेड़ियों से बांधने से खड़ा करने तक नगाणगांव के चौहान लोग करते हैं, पर निशाना साधा जाता है यह पर्व थान गाँव में हरेक साल जेठ मास की संक्रांति को शाम 6-7बजे के बीच होता है। उसके दूसरे दिन थोक का मेला लगता है जिसमें शमेश्वर देवता का पश्वा धारदार हथियार डांगरों के ऊपर 25-30 मीटर नंगे पैर दो राउंड मारता है के बाद डांगरों को साधता है जिसे कपुवा कहते हैं। यह रस्म नगाणगांव के चौहान जनों के द्वारा निभाई जाती है। तीसरे दिन तीन गति आषाढ़ को मेला सम्पन्न होता है जिसमें लोग ईष्ट देव से सुफल आशीर्वाद लेते हैं।