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दिल्ली में गरजेंगे संस्कृत के रक्षक इनकी योग्यता यूजीसी के मानकों के अनुसार नेटपीएचडी है

Pahado Ki Goonj

दिल्ली :संस्कृत के रक्षकों और संवाहकों का दर्द देश की राजधानी में खुलकर सामने आने वाला है। वर्षों से उपेक्षा का दंश झेल रहे राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के सभी परिसरों के अतिथि और संविदा अध्यापक 27 दिसंबर को जंतर-मंतर और इसके बाद संस्थान मुख्यालय पर धरना-प्रदर्शन करने जा रहे हैं। 12 परिसरों के इन अस्थायी अध्यापकों में गेस्ट को 25 और कांट्रैक्ट वालों को 39 हजार मिलते हैं। 2012 से इनका यही मानदेय है। सालभर में केवल आठ छुट्टियां। कोई मातृत्व या चिकित्सा अवकाश नहीं। मई में सत्र समाप्त होने के बाद दो महीने घर में (बिना वेतन) खाली बैठना पड़ता है। स्थायी होने की कोई गारंटी नहीं, क्योंकि यहाँ ऐसे भी अस्थायी अध्यापक हैं, जिन्हें इन्हीं व्यवस्था में घिसते 18 साल तक हो चुके हैं। यही नहीं, इन्हें शिक्षण के साथ ही मूल्यांकन इत्यादि कार्य भी करना होता है। इनकी योग्यता यूजीसी के मानकों के अनुसार नेट/पीएचडी है। इनकी मांग है कि उन्हें स्थायी किया जाए, लेकिन उस प्रक्रिया पर क्रियान्वयन से पहले स्थायी प्राध्यापकों जैसा वेतन और अन्य सुविधाएं दी जाएं। इस संबंध में ये लोग मानव संसाधन विकास मंत्री प्रकाश जावडे़कर, राज्य मंत्री सत्यपाल सिंह, अनेक सांसदों, कुलपति और कुलसचिव से मिलकर मांगें बता चुके हैं, परंतु आश्वासन के सिवा कुछ हाथ नहीं आया। इनका कहना है कि जब कोर्ट भी ‘समान कार्य समान वेतन’ लागू करने की व्यवस्था दे चुका है, सरकार ऐसा क्यों नहीं कर रही है।
बता दें कि राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान एक डीम्ड यूनिवर्सिटी है। इसकी स्थापना 1970 में हुई थी। यह राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संस्कृत के संरक्षण और प्रचार-प्रसार की नोडल एजेंसी है। यहाँ प्राक्शास्त्री (11वीं) से लेकर आचार्य (एमए) की पढ़ाई होती है। विद्यार्थी यहाँ वेद, ज्योतिष, व्याकरण, न्याय, साहित्य, वेदांत का अध्ययन करते हैं। इन विषयों में बीएड और पीएच-डी भी यहाँ होती है। साथ ही हिंदी, अंग्रेज़ी, कंप्यूटर साइंस, राजनीति विज्ञान, अर्थ शास्त्र, इतिहास(आधुनिक विषय) भी पढ़ाए जाते हैं।
संस्थान के पूरे देश के विभिन्न राज्यों में 13 परिसर हैं। इनमें एक परिसर में केवल शोध कार्य होता है, शेष में उपरोक्त कोर्स होते हैं। इन परिसरों में लगभग ढाई सौ अस्थायी अध्यापक हैं, जो कुल प्राध्यापकों की संख्या का 60 प्रतिशत है।
इन अस्थायी अध्यापकों का कहना है कि संस्कृत और संस्कृति की रक्षा का दावा करने वाली भाजपा सरकार में संस्कृत अध्यापकों की दयनीय दशा है। जब इस भाषा को पढ़ाने वाले ही दीन-दरिद्र रहेंगे तो यह भाषा कैसे जीवित या स्वस्थ रह पाएगी। सरकार और संस्थान परिसर को नींद से जगाने के लिए यह आंदोलन किया जा रहा है। संस्थान में असमानता और विसंगति की स्थिति यह है कि परमानेंट असिस्टेंट प्रोफेसर को एक लाख के लगभग वेतन और सुविधाएं मिलती हैं, जबकि टेंपररी को मात्र 25 हजार रुपये और सुविधाएं कोई नहीं, जबकि कार्य दोनों का समान है।- चंद्रशेखर पैन्यूली

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