अद्भुत रहस्य,दुर्लभ जानकारी नर लीला को विराम देनें से पूर्व उत्तराखण्ड़ के इस स्थान पर श्री राम ने किया अन्तिम बार शिव पूजन। ब्रह्मा जी ने कहा है,उत्तराखण्ड़ के रामेश्वर के दर्शन वैद्यनाथ व सेतुबंध से सौ गुना ज्यादा फलदायी
पिथौरागढ ।सरयू और रामगंगा के मध्य प्रभू श्री राम की अद्भूत महिमा को पूर्णित करने वाला तीर्थ रामेश्वर की महिमा भी अनादि व अनन्त है। यह स्थल भगवान श्री राम का पूज्यनीय स्थल होने के साथ-साथ शिव व शक्ति की महिमा का भी बखान करता है। इस स्थान पर लगने वाला मेला सनातन संस्कृति की अनमोल धरोहर है।स्कंद पुराण के मानस खण्ड के पिचानवे अध्याय में इस स्थान का बड़ा ही मनोहारी वर्णन मिलता है।
इस स्थान की स्तुति के बिना सारी स्तुति अधूरी मानी जाती है क्योंकि देवर्षि नारद ने गंगा पुत्र भीष्म पितामाह को इस स्थान की अलौकिक महिमा का ज्ञान कराया और ब्रह्मा की सभा में देवर्षि नारद ने इस दिव्य स्थान की महिमा जानी, जिसका वर्णन उन्होंने भीष्म पितामह को सुनाया।
इस सर्वोत्तम क्षेत्र की महिमा जब ब्रह्मा ने ऋषि गौतम को सुनायी तो नारद ऋषि भी नारायण स्वरूप की महिमा को सुनकर धन्य हो उठे। उन्होंने भीष्म पितामह से कहा, ‘‘तुम भी ध्यान पूर्वक रामेश्वर की महिमा का श्रवण करो। एक बार गौतम ऋषि ने ब्रह्मा जी से प्रश्न किया, हे प्रभु! आपकी कृपा से मुझे अनेक तीर्थों का वर्णन सुनने को मिला है, लेकिन तीर्थों की महिमा का अमृतपान करते-करते मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी है। कृपा करके मुझे ऐसे तीर्थ की महिमा के बारे में बतलाइये, जिसके स्मरण मात्र से ही दुराचारियों को मुक्ति मिल जाती है। उस क्षेत्र का आप विस्तारपूर्वक वर्णन करें ताकि संसार रूपी समुद्र से व्याकुल प्राणी सहज में ही मुक्ति को प्राप्त कर सकें।’’ इस प्रकार गौतम ऋषि के द्वारा विनयपूर्वक प्रश्न पूछे जाने पर ब्रह्मा जी ने सर्वाधिक महत्वपूर्ण क्षेत्र के बारे में बताना प्रारंभ किया। ब्रह्मा जी बोले सरयू व रामगंगा के मध्य परम पावन निर्मल क्षेत्र रामेश्वर है। यहां पर शिव व शक्ति सहित भगवान श्री राम का वास है। काशीनाथ व विश्वनाथ के पूजन की अपेक्षा रामेश्वर के पूजन से प्राणी दस गुना फल का भागी बनता है। वैद्यनाथ व सेतुबंध की अपेक्षा रामेश्वर के पूजन से सौ गुना फल प्राप्त होता है। सरयू-रामगंगा में स्नान के पश्चात जो प्राणी अपनी श्रद्धा रूपी आराधना के श्रद्धा पुष्प श्री रामेश्वर के चरणों में अर्पित करता है वह व्यक्ति समस्त शैल वन सरोवरों और नदियों सहित समस्त तीर्थ स्नान के फल को प्राप्त करता है। उसे प्रयाग और कुरूक्षेत्र जैसे महान तीर्थों के दर्शन का फल भी प्राप्त होता है।
कहा जाता है कि कौशल में जन्मे दशरथ के पुत्र अवतार पुरुष भगवान श्री रामचन्द्र ने सत्यलोक जाने की इच्छा से यहां पर शंकर का पूजन किया। शिव कृपा से उन्होंने सशरीर बैकुण्ठ धाम को प्रस्थान किया। उन्होंने यहां पर जगत कल्याण के लिए शिवलिंग स्थापित किया। गौतम ऋषि के मन की जिज्ञासा को शांत को करते हुए ब्रह्मा जी ने उन्हें हिमालय आने का कारण बताते हुए कहा, राम का स्मरण करने से ही सब तर जाते हैं। फिर भी मर्यादा पुरुषोत्तम ने मर्यादा व कर्तव्य की महानता को प्रकट करते हुए पूर्वजों का पुण्य स्मरण कर सरयू रामगंगा के मध्य इस पुनीत क्षेत्र की ओर अपने पग बढ़ाये और यहीं पर भगवान शिव की पूजा अर्चना कर सशरीर बैकुण्ठ धाम को प्रस्थान किया। तभी से इस संसार में भगवान शंकर रामेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुए। रामेश्वर का पूजन करने पर जहां असंख्य कुलों का उद्धार होता है वहीं बिना दान, तप, यज्ञ के सहज में मुक्ति की प्राप्ति होती है। यहीं पर पूजन-अर्चन के पश्चात राजा वेदसह को मुक्ति की प्राप्ति होती है। राजा वेदसह कौन थे और किस वंश में उत्पन्न हुए, इसका भी बड़ा रोचक वर्णन मिलता है। मानस खण्ड में ब्रह्मा जी ने गौतम ऋषि को बताया उज्जयिनी में नहुष के वंश में मोक्ष प्राप्त करने का इच्छुक वेदसह नाम का राजा हुआ। वह प्रारंभ में आखेट प्रेमी, पर स्त्री गमन व ब्राह्मणों को सताने वाला महापापी राजा था। उसके अनैतिक कर्मों से कुपित होकर एक ब्राह्मण दम्पत्ति ने उसे श्राप दे दिया। राजा ने उसका भी वध कर डाला। फलस्वरूप उसका राज्य नष्ट हो गया और शत्रुओं ने उसके पुत्र और पत्नी को भी मार डाला और वह भयभीत होकर दुर्गम वनों की गुफाओं में रहने लगा लेकिन ब्राह्मण के श्राप से वह दर-दर की ठोकरें खाने लगा। तब पश्चाताप की अग्नि भी उसे पल-पल जलाने लगी, जिससे उसका मन धीरे-धीरे निर्मल होने लगा और उसके हृदय में भगवान शिव के प्रति भक्ति जागृत होने लगी। उसने अनेक तीर्थों में भ्रमण किया किन्तु उसे शांति की प्राप्ति नहीं हुई, देवयोग की प्रेरणा से वह हिमालय की ओर चल पड़ा। पर्वतों की कंदराओ में उसकी भेंट एक तपस्वी ब्राह्मण से हुई। उसने ब्राह्मण को अपनी सम्पूर्ण व्यथा बताई तथा अपने किये गये दुष्कर्मों के तारण का उपाय पूछा। राजा के निवेदन करने पर तपस्वी ब्राह्मण ने ‘रामेश्वर’ की उत्पत्ति का उसे वर्णन सुनाया तथा शिव की शरणागत लेने को कहा। उक्त ब्राह्मण के बताये मार्ग पर चलकर वह रामेश्वर पहुंचकर भगवान श्री राम का पूजन करने लगा। उसी दौरान एक बूढ़ी ब्राह्मणी शंकर का स्मरण करते-करते देह त्याग गयी तब शिवगणों ने उसे विमान पर चढ़कर शिवलोक पहुंचा दिया। इस प्रकार रामेश्वर के स्मरण मात्र से वह परम गति पा गयी। कुर्मांचल के पद्मनाभ के चरणों से उत्पन्न हुई पर्णपत्रा पनार सहित अनेक नदियों के साथ संगत होती है, जहां पर ‘सरयू’ मिलती है। वह क्षेत्र रामेश्वर का प्रवेश द्वार है। यहां शैल पर्वत से उत्पन्न गुप्त सरस्वती का सरयू में संगम बताया जाता है। इसके पूर्व के संगम में सूर्यतीर्थ कहा गया है और इसी में गुप्त कौशिकी का संगम भी बताया गया है। यहां शैलजा देवी, धार्मदि, लोकपाल क्षेत्रपाल आदि देवताओं के पूजन का भी विशेष महत्व कहा गया है। शनि प्रदोश का भी यहीं पर निवारण होता है। रामेश्वर में स्वर्गारोहण की दिव्य शिला कही जाती है। परम्परानुसार यहां दाह करने पर अस्थियां अन्य तीर्थों हरिद्वार, काशी, प्रयाग आदि में नहीं पहुंचाई जाती है। यहां पर शिव की पूजा-अर्चना करने से मानव के सब पातक विनष्ट हो जाते हैं तथा वह शिव लोक को प्राप्त करता है।
कहा जाता है कि सेतुबंध रामेश्वर में जब भगवान श्री राम ने शिव लिंग की स्थापना करनी चाही तो उन्होंने श्री हनुमान जी को कैलाश पर्वत पर भेजकर शिवलिंग लाने के लिए कहा किन्तु शुभ मुहूर्त निकल जाने व हनुमान जी द्वारा शिवलिंग लाने पर देरी हो जाने पर श्री राम ने बालू से रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना की और बाद में अपनी नर लीला समाप्त करने से पूर्व स्वर्ग जाने से पहले बहत्तर यज्ञ सम्पन्न करने के पश्चात यहां पर शिवलिंग प्रतिष्ठित किया। इस स्थान पर सरयू व रामगंगा के अलावा पाताल भुवनेश्वर से निकली गुप्त गंगा का संगम बताया जाता है। यह स्थान गंगोलीहाट-पिथौरागढ़ मार्ग के पास पनार के पास स्थित है। यहां के पुजारियों को दीप धृत चन्द राजा चित्तौड़गढ़ से लेकर यहां आये जिनके वंशज गिरी लोग यहां आये जिनके वंशज गिरी लोग यहां पूजा-अर्चना का कार्य देख रहे हैं। रामेश्वर से लौटकर रामाकांत पंत।