गढवाल में रहने वाले से किसी ने कहा….
“कैसे रहते हो तुम इन गदनों और ऊंचे नीचे डांडों में,
कैसे चल पाते हो इन कुमरों अर किनगोड़ा के कांडों में।।”
जब लग गई बात दिल को तो भैजी ने जवाब कुछ यूँ दिया….
सुन भुला इतना दम नही तेरे पिंजरे के शेर की दहाड़ में,
जितनी दहाड़ से गढ़वाली दादा खांस देते है पहाड़ में।।
ब्वे के हाथ की बनी रोटी
और हरे लूंणमर्च की चटकार में,
वो मिठास नहीं मिल सकती हे लाटा तेरे बाज़ार में।।
दुनिया फंस चुकी हो चाहे
चिप्स चौमीन के जाल में,
पर वो स्वाद कभी नहीं मिल सकता भैजी जो है घर्या दाल में।।
तेरे फ़िल्टर और शील बंद पानी मे हुआ मिलावट का खेल है,
मेरे नौल़े अर धारे के आगे ये पानी फिर भी फेल है।।
तेरे कूलर पंखे, ए सी मे..
वो हवा नहीं मिल पाती है,
जो ताजी ठंडी कडक हवा,
मेरे डांडो से आती है।।
बर्गर पिजा चौमिन आदि में
वो स्वाद नहीं मिल पाता है,
जो घोट घोट कर बने हुए,
अल्लू के थिंचोडी में आता है।।
तेरी तंदूरी रुमाली रोटी सब,
गिच्चे मे लपटाती है,
कड़क कुरमुरी रोटी तो आग मे ही पक पाती है।।
दादा दादी और चाचा चाची
तुम्हे दूर के लगते हैं,
गढवाल मे तो ये अभी भी
एक कुटुम्भ में रहते हैं।।
जितने तेरे केलेंडर में
शनि और रविवार हैं,
उससे कई गुना ज्यादा तो, गढवाली तीज त्यौहार है।।
वो भी बोला हे भाई जी मुझे भी नही रहना अब इस जी के जंजाल मे.
चल अभी मुझको भी ले चल तू गढवाल मे……..
*पलायन रोको अभियान