चार धाम घर से कृष्णा तेरी यमुना मैली उत्तराखंड के जो राजनेता, नौकरशाह चार धाम के नाम पर पर्यटन पर्यटन कहते हों उन्हें खरसाली से यमुनौत्री पैदल मार्ग ले जाकर, फिर यमुनोत्री के हाल दिखाने चाहिए। समझ में आ जाएगा कितना धूल झोंक रहे हैं लोगों की आंखों में।
ये सरकार हो या पिछली, परिस्थितिवश केदारनाथ चमकाकर हम पर्यटन के नाम पर लोगों को गुमराह नहीं कर सकते। होता क्या है , बडे बडे नामी लोग, सेलिब्रिटी , वीआई पी बनकर तीर्थों की यात्रा करते हैं , उन्हें पता भी नहीं चलता कि
इन तीर्थों में लोगों के कष्ट क्या हैं। यहां शासन प्रशासन स्तर पर किस स्तर के काम होने चाहिए। मंदिर समितियां करें भी तो कितना।
मंदिर आने वाले वीआईपी में और तो और, मीडिया में कुछ संपादकों के
ननदोई, , साली – साला ससुरजी, सासजी, बुआ, चाची , पूफा साढू भी होते हैं। चारों धाम में बेचारे मंदिर समिति वाले चुपचाप व्यवस्था में लग जाते हैं। कोई आए न आए देश भर के न्यायाधीश भी आते हैं। नेता, वकील, पत्रकार, पर्यावरणविद्द , फिल्म वाले सबको ठीकठाक सुविधा चाहिए। हेलीकाप्टर से इन धामों की यात्रा के कष्ट नहीं समझे जा सकते हैं। ये सब संपन्न होते हैं लेकिन इनमें कई को नहाने के लिए लोटा भी मंदिर समिति से चाहिए। चाय भी तुलसी की चाहिए।
मगर दूर पश्चिम बंगाल, उडीसा , आंध्र प्रदेश. कर्नाटक, बिहार, तमिलानाडू झारखंड असम राजस्थान गुजरात जैसे राज्यो से आने वाले यात्रियों की समस्याएं कितनी जटिल होती हैं और धामों में उनके लिए किस तरह के प्रबंध होने चाहिए यह गौर कोई नहीं करता। सामान्य सुविधाओं पर भी ध्यान नहीं जाता।
चार धाम यात्रा के साथ कितनी बेइमानियां होती हैं। ऐसे कुछ संपादक, पुलिस अफसर या रुतबे वाले लोग, बडे पत्रकार, ईश्वर की आस्था मान कर, अपने पूफा , नंदोई तमाम रिश्तेदारों को वीआईपी टोन में इन धामों में भिजवाते हैं । अपने पत्रकारिय रुतबे का इस्तेमाल करते हैं कभी ध्यान नहीं देते कि यमुनोत्री की समस्याएं क्या हैं, गंगोत्री धाम में क्या करना है। बद्रीनाथ में सीवरों का सिस्टम कैसा है। गंदगी आखिर जा कहां रही है। यमुनौत्री पैदल मार्ग में यात्री बीमार पड जाए तो डाक्टर कहां मिले, कोई बताने वाला नहीं। गंगोत्री में मंदिर के बाहर और दूर दो किमी सड़क तक कैसी रैलमपैल होती है, कहने की जरूरत नहीं। उत्तरकाशी से आगे बढते वाहन कैसे कई बार घंटों अटके रहते हैं कोई पूछने वाला नहीं। आज के संचार के दौर में गंगोत्री में इंटरनेट नहीं लगता तो यमुनाजी के इलाके में घंटो बिजली नही आती। यात्रियों को मार्ग या दूसरी चीजों को बताने का कोई आश्वस्त चिन्ह नहीं । कोई ऐसे सेंटर नहीं कि किसी मुश्किल में पडा यात्री वहां थाह पा ले। पुलिस से तो वैसे ही डर । हां इन धामों के बाहर कुछ हो न हो, शरीर को पुष्ट करने के तरह तरह के तेल बेचने वाले और नकली जडी बूटी बेचकर यात्रियों को ठगने वाले लंबी कतारों में दिखेंगे। ये हटते नहीं या हटाए नहीं जाते जानना मुश्किल है।
आखिर पर्यटको की बीस से पच्चीस लाख की संख्या पर राज्य इतना कमाता है। आखिर यात्रा शुरू होने से पहले अखबारों में चमकीले आधे आधे पेज के विज्ञापन कमाई का साधन बनते हैं। बनना भी चाहिए। विज्ञापन आता है तो अखबार चलता है और पत्रकार और मीडिया से जुडे लोगों के परिवार भी चलते हैं ।
मगर इतना तो हमारा दायित्व है कि हम बता सकें कि चार धाम किस स्थिति में हैं। धारदार लेखन न सही सुझाव के तौर पर ही सही। लेकिन मीडिया में कुछ ही जगहों पर यह चिंता झलकती है या दिखती है। बाकी हम चुप्पी साध लेते हैं। यह चुप्पी कब तक। यात्रियों से पूछिए , जो बेचारे कहते हैं कि यात्रा में आए हैं कष्ट तो होगा ही। लेकिन हमारे अपने फर्ज क्या हैं। 18 साल के उत्तराखंड में अगर तीर्थों को लेकर ये सवाल खडे़ हैं तो आगे क्या। देखिए तो सही कि कहीं तीर्थ के एकदम बाहर कोई पकोडे समोसे वाला पांचवी बार उसी तेल में नए पकोडे समोसे तो नहीं तल रहा। कहीं कल का ही तो खाना नहीं परोसा जा रहा। मुंबई स्टाक एक्सचेंज की तरह होटलों धर्मशालाओं के कमरे के रेट एकाएक ऊपर नीचे क्यों होने लगते हैं। व्यवस्था तो हो यमुनोत्री के पास आकर कि यात्री शौचालय के लिए कहां जाए ।
भला बद्रीनाथ पहुंच जाएं तो प्रवचन की और प्रवचन के इन पंडालों की क्या जरूरत। कम से कम शांत धामों को तो इससे बचाओं। शंकराचार्य तो केवल पांच लोगों के साथ इन्हें स्थापित करने पहुंचे थे। इन धर्म प्रवचकों का तो पूरा सर्कस जैसे तंबू यहां नजर आते हैं। क्या इससे दिक्कते नहीं। यात्री को ठौर नहीं मिलता तो वह यमुनोत्री के कुंड में ही पहने कपडे निचौडने लगता है। वहीं पर पुरुष नहाते हैं वहीं पर महिलाएं। क्या करे कोई । ईश्वर के पास बिन नहाए भी तो नहीं जा सकते। गंगोत्री में तो कपडों , खेनी प्लास्टिक की बोतल सब विसर्जन जल धारा में करते हैं। मंदिर समिति कैंप भी लगाती है पर शासन प्रशासन के सहयोग बडे स्तर पर चाहिए। लोगों का भी सहयोग चाहिए। यहीं तो एनजीओ और पर्यावरणविद्दों का काम था लोगों को जागरूक करने का।
खानपान से लेकर साफ सफाई, यात्रा की तमाम सुविधाएं सब कुछ कचौट रहा है। यात्री तो आता रहेगा उसकी अथाह श्रद्धा है । मगर हम अपने चरित्र को कब बदलेंगे। जो यात्री आ रहा है उसके प्रति अथाह सदभावना होनी चाहिए। इस भूमि की देवभूमि तभी कह पाएंगे। यात्रियों को महज पैसे की निगाह से मत देखिए। वो अपनी पूजा के साथ साथ इस भूमि पर उपकार करने भी आते हैं। बीच बीच में झरने न हों तो लोग पानी के लिए तरस जाएं। या फिर नीचेनदी में उतरते।
क्या केदारनाथ ही चार धाम का फोकस है। नहीं पहले द्वार यमुनोत्री पर ही देखिए। क्या किया है अब कि सरकारों ने इसकी झलक इन धामों में आकर दिख जाती है। ऊंचे एवरेस्ट की छोडिए. यमुनोत्री पैदल मार्ग में जगह -जगह बिखरे कूडे़ और घोडे़ की लीद दिखती है। यात्रियों की घोडेृबाजों से टक्कर आम बात है। सात किमी के सफर में दो या तीन बार आप देख सकते हैं कि घोड़े में बैठे यात्री भी सहम रहे हैं। गंगोत्री के घाट बन नहीं पाए। अब तक की सरकारों जिला प्रशासन को फुर्सत नहीं कि मंदिर समितियों के साथ बैठकर चीजों को हल करे। एनजीओ वाले उतना कूडा नहीं हटाते, जितने फोटो खिंचाते हैं और जाते जाते अपने बैनर सुतली लट्ठे और अपने गले में डाली गई फूलमाला छोड़ जाते हैं। कितना पैसा कमाते हैं बद्रीनाथ भगवान जाने। बडे बडे धर्मचार्यों ने अकूत कमाया, लेकिन इन धामों की व्यवस्था में अपना रुझान न दिखाया। हरिद्वार के तट पर रेशमी वस्त्र ओढकर, दीप सजा कर गंगा को कब तक झुठलाओगे। थोडा इन पहाडों मे भी तो चढो।
और आधुनिक पर्यावरणविद् । इन्हें यहां आने और समस्याओं को देखने की क्या जरूरत है। उनकी अपनी प्रकृति झूम झूम कर बरस रही है। आज के पर्यावरणविदों ने अगर सचमुच आवाज उठाई होती और जनता के बीच रहकर काम किया होता, तो पहाडों के साथ इन धामों की आवाज भी उठ रही होती। लेकिन पर्यावरण भी अब लगभग ठीक ठाक धंधा है। वहां प्रकृति की आवाज नहीं, प्रकृति के बहाने अपनी जिंदगी सजाई जाती है।साभार