देहरादून पहाडोंकीगूँज,ईसी रोड़ स्थित अपार्टमेंट्स भाई कमलानंद पूर्व आई ए एस ने पत्रकार प्रेरित परिवर्तन के माध्यम गोष्टी और प्रेस वार्ता की जिसमें में गाँव को समृद्ध बनाने से देश में समृद्धि आएगी
उन्होंने जैविक कृषि जैविक दुधारू गाय बद्री गाय को बढ़ाने, फल सब्जियों की खेती करने उसकी मार्केटिंग करने के लिए एपेक के बनारस कार्यलय में उत्तराखण्ड
,उत्तर प्रदेश,बिहार के प्रभारी अधिकारी चन्द्र भूषण को बुलाकर उनसे जानकारी प्राप्त की है प्रदेश में उत्तराखंड हरि विकस बहुउद्देश्यीय सहकारी समिति के माध्यम से रोजगार को बढ़ावा देने के लिए समिति के प्रबंध निदेशक एस एस बिष्ट ने शासन की ओर से प्रतिभाग किया उनको कॉपरेटिव के माध्यम से कृषि ,उद्यान ,फल उद्योग,गाय पालन, होम स्टे आदि के संसाधनों के उपयोग करने के 9 प्रस्ताव पर काम करने के लिए योजना बनाने का कार्य कर रोजगार सृजन किया जाएगा गोष्टी एवं वार्ता मेंभाई कमलानंद ,यस डी शर्मा, डॉ रमेश साह,कुलदीप उनियाल, प्रोफेसर डॉ अरविंद दरमोडा, चौधरी कल्पेश्वर, देवराजेंद्र,सी बी सिंह अपेडा ,मधुर दरमोडा, सुरेश शाह, किरन कुमार, आदि लोग मौजूद रहे।
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उत्तराखंड के गढ़वाल में सदियों से दिवाली को बग्वाल के रूप में मनाया जाता है।
कुमाऊं के क्षेत्र में इसे बूढ़ी दीपावली कहा जाता है। इस पर्व के दिन सुबह मीठे पकवान बनाए जाते हैं। रात में स्थानीय देवी-देवताओं की पूजा अर्चना के बाद भैला जलाकर उसे घुमाया जाता है और ढोल नगाड़ों के साथ आग के चारों ओर लोक नृत्य किया जाता है।
मान्यता है कि जब भगवान राम 14 वर्ष बाद लंका विजय कर अयोध्या पहुंचे तो लोगों ने दिए जलाकर उनका स्वागत किया और उसे दीपावली के त्योहार के रूप में मनाया। कहा जाता है कि गढ़वाल क्षेत्र में लोगों को इसकी जानकारी 11 दिन बाद मिली। इसलिए यहां पर दिवाली के 11 दिन बाद यह इगास मनाई जाती है।
सबसे प्रचलित मान्यता के अनुसार गढ़वाल के वीर भड़ माधो सिंह भंडारी टिहरी के राजा महीपति शाह की सेना के सेनापति थे। करीब 400 साल पहले राजा ने माधो सिंह को सेना लेकर तिब्बत से युद्ध करने के लिए भेजा। इसी बीच बग्वाल (दिवाली) का त्यौहार भी था, परंतु इस त्योहार तक कोई भी सैनिक वापस न आ सका। सबने सोचा माधो सिंह और उनके सैनिक युद्ध में शहीद हो गए, इसलिए किसी ने भी दिवाली (बग्वाल) नहीं मनाई। लेकिन दीपावली के ठीक 11वें दिन माधो सिंह भंडारी अपने सैनिकों के साथ तिब्बत से दवापाघाट युद्ध जीत वापस लौट आए। इसी खुशी में दिवाली मनाई गई।
खास बात ये है कि यह पर्व भैलो खेलकर मनाया जाता है। तिल, भंगजीरे, हिसर और चीड़ की सूखी लकड़ी के छोटे-छोटे गठ्ठर बनाकर इन्हें विशेष रस्सी से बांधकर भैलो तैयार किया जाता है। बग्वाल के दिन पूजा अर्चना कर भैलो का तिलक किया जाता है। फिर ग्रामीण एक स्थान पर एकत्रित होकर भैलो खेलते हैं। भैलो पर आग लगाकर इसे चारों ओर घुमाया जाता है।
कई ग्रामीण भैलो से करतब भी दिखाते हैं। पारंपरिक लोकनृत्य चांछड़ी और झुमेलों के साथ भैलो रे भैलो, काखड़ी को रैलू, उज्यालू आलो अंधेरो भगलू ,जनि इगास मनालो तनि फल पैलो आदि लोकगीतों के साथ मांगल व देवी-देवताओं की जागर गाई जाती हैं।