जय मां हाट कालिका
देहरादून,उत्तराखंड को देवभूमि कहा जाता है। इस राज्य में स्थित कई मंदिर अपने आप में कई रहस्य को समेटे हुए हैं। पिथौरागढ़ के गंगोलीहाट स्थित हाट कालिका ऐसा ही एक मंदिर है।
सम्पूर्ण भारत में हाट कालिका के नाम से विख्यात गंगोलीहाट के महाकाली मंदिर की कहानी भी उसकी ख्याति के अनुरूप है। स्कंद पुराण के मानसखंड में दारुकावन (गंगोलीहाट) स्थित देवी का विस्तार से वर्णन है। छठी सदी के अंत में भगवान शिव का अवतार माने जाने वाले जगत गुरु शंकराचार्य महाराज ने कूर्मांचल (कुमाऊं) भ्रमण के दौरान हाट कालिका की पुनर्स्थापना की थी।पिथौरागढ़ से लगभग 77 किलोमीटर की दूरी पर देवदार के घने वृक्षों के बीच यह मन्दिर स्थित है। महाकाली मंदिर, गंगोलीहट में स्थित सबसे प्रसिद्ध तीर्थस्थल है। आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा इस स्थान को महाकाली शक्तिपीठ के लिए चुने जाने के बाद यह मंदिर अधिक विशिष्ट हो गया। यह मंदिर हाट कालिका के नाम से भी जाना जाता है। यहाँ पर प्रसिद्ध हाट कालिका मेला लगता है। उस समय यह जगह रंगों में डूब जाती है और चारों ओर ढोल की आवाज़ें होती हैं।
कलकत्ते के काली मन्दिर के सदृश ही इस क्षेत्र में मान्यता है। कहते हैं कि यहां देवी कभी-कभी रात्रि में कीर्ति-बागीश्वर महादेव को पुकारती थी उस वाणी को जो सुनता था उसकी तत्काल मृत्यु हो जाती थी। इस कारण आस-पास के लोगों का पलायन शुरू हो गया और वे दूर जाकर बसने लगे थे जब आदि गुरु शंकराचार्य ने आकर इसे दूसरे पत्थर से ढककर कीलित कर दिया तब से देवी का पुकारना बन्द हो गया था। तत्पश्चात लोगों का वहां पुनः आगमन हुआ। रावल जाति के पुजारियों के परिवार पुनः आकर मन्दिर के निकट बस गये। अब भी कुछ लोगों का विश्वास है कि अर्ध रात्रि के उपरान्त देवी का डोला निकलता है तथा किसी बड़े भाग्यशाली तथा आस्तिक व्यक्ति को बारात जाते समय के रणसिंघ तथा दमाऊ का शब्द और कभी सिंह का गर्जन भी सुनाई पड़ती है। इस डोले के साथ कालिका के गण, आंण व बांण की सेना भी चलती है। ऐसा भी देखा गया है कि रात्रि में मन्दिर के कपाट बन्द होते समय पुजारी देवी का बिस्तर लगाते है और प्रातः आने वाले दर्शनार्थी उस पर सिलवटें पड़ी देखते है। यहां वैसे तो हर अष्ठमी को बड़ी संख्या में लोग आते हैं पर चैत्र व आश्विन की नवरात्रियों में विशेषतः अष्टमियों को विशेष मेला होता है। मन्दिर के मार्ग में एक प्राचीन नौला है जिसे जान्हवी का नौला कहते है इस नौले का निर्माण राजा रामचन्द्र देव की मां ने करवाया था। अतः यह उन्ही के नाम पर प्रसिद्ध हुआ। सरयू गंगा तथा राम गंगा नदियों के मध्य स्थित होने के कारण इस क्षेत्र को पूर्वकाल में गंगावली कहा जाता था, जो धीरे धीरे बदलकर गंगोली हो गया। तेरहवीं शताब्दी से पहले इस क्षेत्र पर कत्यूरी राजवंश का शासन था। तेरहवीं शताब्दी के बाद यहाँ मनकोटी राजाओं का शासन रहा, जिनकी राजधानी मनकोट में थी।
हाट कलिका देवी रणभूमि में गए जवानों की रक्षक मानी जाती है। हाटकालिका मंदिर में विराजमान महाकाली इंडियन आर्मी की कुमाऊँ रेजिमेंट की आराध्य हैं। बताया जाता है कि इस रेजिमेंट के जवान युद्ध पर जाते हैं तो इस मंदिर का दर्शन जरूर करते हैं। कुमाऊँ रेजीमेंट कीे हाट कालिका से जुड़ाव के बारे में एक दिलचस्प कहानी है। यहां के पुजारी भीम सिंह रावल बताते हैं, “द्वितीय विश्वयुद्ध की बात है, जब भारतीय सेना का जहाज डूबने लगा। तब सैन्य अधिकारियों ने जवानों से अपने-अपने भगवान को याद करने को कहा, कुमाऊँ के सैनिकों ने जैसे ही हाट काली का जयकारा लगाया वैसे ही जहाज किनारे आ गया। तभी से कुमाऊँ रेजीमेंट ने मां काली को आराध्य देवी की मान्यता दे दी, जब भी कुमाऊँ रेजीमेंट के जवान युद्ध के लिए जाते हैं तो काली मां के दर्शन के बिना नहीं जाते हैं।
बताया जाता है कि 1971 में पाकिस्तान के साथ छिड़ी जंग के बाद कुमाऊँ रेजीमेंट ने सुबेदार शेर सिंह के नेतृत्व में महाकाली की मूर्ति की स्थापना की थी। बताया जाता है कि ये सेना द्वारा पहली मूर्ति स्थापित की गई थी। इसके बाद कुमाऊ रेजिमेंट ने साल में 1994 में बड़ी मूर्ति चढ़ाई थी।हर साल माघ महीने में यहां पर सैनिकों की भीड़ लग जाती है। महाकाली के इस मंदिर में सहस्त्र चण्डी यज्ञ, सहस्रघट पूजा, शतचंडी महायज्ञ, अष्टबलि अठवार का पूजन समय-समय पर आयोजित होता है। इसके अलावा महाकाली के चरणों पर श्रद्धापुष्प अर्पित करने से रोग, शोक और दरिद्रता भी दूर होती है।