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शिवालिकौ बल मि क्य छौं -जगमोहन रावत दिल्ली

Pahado Ki Goonj

शिवालिकौ बल मि क्य छौं?
पजल-224

बल ब्वे का द्वी काज
जो ननतिनु करु आज
भोळ वो रज्जा बेटा
कारु राज्य फर राज
बल जैन् ओळि आटो
मिसला पीसि सिलाटो
वैन् मिसाल कायम कै
दिखै मशाल से बाटो

*भावार्थ*
फलाणा (अमुक) कहता है कि बल अपनी ब्वे (माँ) के दो काज, जो कोई ननतिनु यानी बच्चा करे आज, तो भोळ यानी आने वाले कल वो राजा बेटा, करे राज्य पर राज, क्योंकि बल जिसने बचपन में अपनी माँ का हाथ बंटाते हुए ओळि यानी गूंथा आटो, और मसाले पीसे सिलबाट्टो, उसने मिसाल कायम की, दिखाई मशाल जला के बाटो (राह), यानी वो वीरभड़ या तो *वीर चंद्र सिंह गढ़वाली बना, या वीर जसवंत सिंह भंडारी बना, या माधो सिंह भंडारी बना या फिर पुरिया नैथानी* ही बना l

बल पाषाण युग मा
ढ़ुंगों का भी उपक्रम
ह्वेनि मसाण युग मा
बिढ़गौं क भी कुटक्रम
जनि मनखि ढ़ुंगा ह्वेनि
तनि ढ़ुंगा द्यब्ता ह्वेनि
पूजिक त ढ़ुंगा पिघळि
गौमुख से गंगा निकलि

*भावार्थ*
अमुक आदीमानव के पाषाण युग का जिक्र करते हुए कहता है कि बल पाषाण युग में, ढ़ुंगों यानी शिलाओं/पत्थरों के भी उपक्रम, हुए मसाण (भूतप्रेत/नश्वर) युग में, बेढ़गों के भी कुटक्रम यानी उल्टे करम, तो जैसे ही मनुष्य कठोर ढ़ुंगा यानी पत्थर हुआ, वैसे ही ढ़ुंगा यानी शिवलिंग भी देवता हुआ, क्योंकि जैसे लौहपुरुष युग में लोहे को लोहा काटता है, वैसे ही पाषाण युग में पत्थर को पत्थर ही तलाशता है, तराशता है, और फिर पूजके तो ढ़ुंगा यानी पत्थर दिल इंसान पिघले, भगीरथ प्रयास से गौमुख (गौ के मुख जैसी गुफानुमा शिला) से पावन गंगा निकले l

ढ़ीसो ढ़ुंगु तीर आणु
वो उरखेळु ह्वे जाणु
तीरो पठळु भित्र आणु
वो सिऴवटो ह्वे जाणु
मिली गंगल्वड्या साथ
खिली हलद्वण्या गात
मिक्सर ग्रैंडर क्या ऐनि
रैग्युं भंगल्वड्या जात

*भावार्थ*
अमुक आगे कहावत स्वरूप कहता है कि बल ‘ढ़ीसो ढ़ुंगु तीर आणु’ यानी भीतर की तरफ का पत्थर किनारे आना, यानी बचपन जैसे ही बुढ़ापे की ओर अग्रसर हुआ, तो वह पत्थर दिल उरखेळु (ओखली) यानी मुंह में जिसके दांत नहीं, और पेट में जिसके आंत नहीं, यानी घर के उपेक्षित बूढ़े जैसा हो रहा है, *यानी कुटाई तो खूब, मुंह दिखाई में दूब*, यानी *खाने में बिन वेतन के लाले, मरते वक़्त वतन तेरे हवाले*, और जो तीरो पठळु भित्र आणु यानी कोई बाहर का उपरी अपरिचित आदमी भीतर आ रहा है, *जैसा देवभूमि में भीतर का आदमी या तो मनरेगा फ्रीफ़ड जैसी लोभभावन स्कीमों के चलते आंगन में ‘हाथ में हाथ धरे बैठा’ है या फिर बाहर शहरों में पलायन करके ‘आंखे फेर के ऐंठा’ हैं*, तो ऐसे में वह बाहर का कामगार सिऴवटो (सिलबट्टा) हो रहा है, यानी बाहर वालों के हल्दीहात पिठाई (टीकाकरण) और अंदर वालों का लहू जो कभी सोना होता था अब उसपर जंक लगकर हो रही जगहंसाईl अमुक अपने पुराने मित्र जो गंगा से नहाकर तराशकर उसकी अर्द्धांगिनी बनकर मिली थी, को याद करते हुए कहता है कि बल मिली थी गंगल्वड्या (गंगलोड़ी/गंगा की ढुंगी) साथ, तो परिणीत होकर खिली थी हलद्वण्या, यानी हल्दीहाथ के रस्म में हल्दी रंग की गात (शरीर), मगर जब से शहरी विकासपुरुष ने मशीनयुग की प्रेतात्मा बनकर गाॅंव पहाड़ का रुख क्या किया, यानी जबसे मशीनी उपकरण मिक्सर ग्राइंडर क्या आए, वह पहाड़ी पथरीला अमुक उपक्रम धरशाई हो गया भंगल्वड्या जात, यानी *जब भी कोई पिए भांग, तभी उसकी जाग*, यानी उसका जीवन कुम्भकर्ण के समान, कोई राम ही पहुंचाएगा उसे आसमान (स्वर्ग/ मोक्ष)l

देखण म त शिला छौं
पैढ़ा त तक्षशिला छौं
बल म्यार शिलालेख
छन मिसलदार सुलेख
बल लाटै सानि बानि
लाटै ब्वे बाब हि जानि
शिवलिंग सि लाटो छौं
शिवालिकौ मि क्य छौं?

*भावार्थ*
अमुक अपनी सरंचना/उपयोगिता का बखान करते हुए आगे कहता है कि बल देखने में तो वह शिला है, उसे पढ़ के देखो तो वह तक्षशिला (बिहार का पुरातत्व बौद्धिक विद्यालय) है जिसके जीर्णोद्धार करने की सख्त जरूरत है, यानी बिना हिलाये शरीर जब घंमड में अकड़े, भूत प्रेतात्मा बन तब उत्तराखण्ड में अकड़े, क्योंकि उसमें खुदे हुए शिलालेख, हैं मसालेदार सुलेख, यानी *अमुक की जनमपत्री में गढ़ पजल साहित्य के शिलालेख गढ़े हुए हैं*, जो उसका पजलकार मित्र सार्वभौमिक करने पे तुला हुआ है, क्या पता ‘जगमोरा’ ही तुलसीदास का भी तुलसीदास बनकर *पजलायण* लिखकर उस अबला अहिल्याबाई (गौतम ऋषि की पत्नी जो इंद्रजाल के वशीभूत अपवित्र होने से अपने ही ऋषि पति के शाप से शिलाजीत हो गई थी, जिसका त्रेतायुग के आदर्श मर्यादित पुरुषोत्तम भगवान श्री राम के चरणरज से जीर्णोद्धार हुआ) स्वरूप शिला को सबला बनाकर सार्वभौमिक आधारशिला देगा l अमुक अंत में पहेली स्वरूप कहता/पूछता है कि बल लाटे (भोले) की सानि बानि, यानी तौर तरीका सलीका, लाटे के ब्वे बाब (माँ बाप) ही जानि, बल वह शिवलिंग सि लाटो यानी शिवभोले की तरह ही भोला है, *तो बताओ कि शिवालिकौ यानी शिवालिक की पहाड़ी चट्टानों का वह बल क्या है?*

*जगमोहन सिंह रावत ‘जगमोरा’*
*प्रथम गढ़वाली पजलकार*
*मो. 9810762253*
*कोटली पाबौ (पौड़ी गढ़वाल)*
*वसंत कुंज, नई दिल्ली-70*

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