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सुभाषचंद्र बोस की जयंती पर उनको शत शत नमन

Pahado Ki Goonj

लड़ाई लड़ी, आज़ादी की लड़ाई लड़ी, कॉन्ग्रेस ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी। कौन से हथियार थे उनके पास? कितने सैनिक थे? हथियार कहाँ रखा हुआ था? गोले-बारूद कहाँ से आते थे? उनके सैन्य कमांडर कौन लोग थे? लड़ाई में उन्होंने भारत में खून बहाने वाले कितने अंग्रेजों को मार गिराया? जब ये सब किया ही नहीं, तो लड़ाई खाक लड़ी? और जब लड़ाई ही नहीं लड़ी, तो आज़ादी कहाँ से दिला दी भाई? जापान में जाकर जिसने 40,000 भारतीयों की सेना तैयार की उसे भुला दिया गया और अंग्रेजों के सामने सिर झुकाने वाले ‘आज़ादी की लड़ाई लड़ने’ वाले बन गए।

नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने कहा भी था कि अमेरिका के जॉर्ज वाशिंगटन अपने देश को स्वतंत्रता दिलाने में सफल रहे, क्योंकि उनके पास उनकी सेना थी। जुज़ॅप्पे गारिबाल्दि इटली को आज़ादी दिलाने में सफल रहे, क्योंकि उनके पीछे सशस्त्र स्वयंसेवकों की एक बड़ी फौज थी। उन्होंने INA में शामिल लोगों से कहा कि ये आपकी उपलब्धि और आपका सम्मान है कि आप सब अपने देश के लिए सामने आने वालों में प्रथम हैं और ‘इंडियन नेशनल आर्मी (INA)’ का गठन हो रहा है। उन्होंने उन लोगों से कहा, “यहाँ आकर और ये फैसला लेकर आपने स्वतंत्रता की राह में आने वाली अंतिम बाधा को भी समाप्त कर दिया है।”

उनकी सेना ने अंग्रेजों से कई इलाकों में युद्ध जीते। वो एक ऐसे व्यक्ति थे जिनके खिलाफ गाँधी और उनके अनुयायी भी थे और वामपंथी भी उनके विरुद्ध आ गए थे। लोग उनसे इस बात से नाराज़ थे कि वो विश्व युद्ध में रूस के नेतृत्व वाले ‘Axis Powers’ के नजदीक क्यों जा रहे हैं? यहाँ दोगलई देखिए। गाँधी ने ये फैसला ले लिया कि भारत के लोग अंग्रेजों के लिए लड़ेंगे और अपनी जान देंगे लेकिन उनके खिलाफ नहीं जाएँगे। ये कैसा अहिंसा का पुजारी था जिसने लाखों लोगों को देश से बाहर भेज दिया खून बहाने के लिए। वहीं सुभाष उन्हीं अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने की बातें करते थे, इसीलिए उन्हें कॉन्ग्रेस अध्यक्ष नहीं रहने दिया।

उन्हें जापान और नाजियों का पिट्ठू कहा गया। लेकिन उन्होंने स्पष्ट कहा दिया कि उन्हें अपने ही लोगों की आवाज़ उठाने के लिए किसी प्रकार के सर्टिफिकेट की ज़रूरत नहीं है। उन्होंने अपने जीवन को ही अंग्रेजों के साम्राज्यवाद के खिलाफ उस लंबे संघर्ष से भरा करार दिया था, जो न सिर्फ लंबी थी बल्कि दृढ़ता से टिकी थी और किसी प्रकार के समझौते के खिलाफ थी। जबकि गाँधी-नेहरू की राजनीति ही समझौतों पर टिकी थी। कोलकाता का मेयर चुने जाने से लेकर कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष की कुर्सी तक, नेताजी ने तमाम मुसीबतें मोल लीं लेकिन भारत भूमि पर रक्त बहाने वालों से समझौता न किया।

बोस न तो कम्युनिस्ट थे और न ही फासिस्ट थे। उन्हें विरोधी गुट ने ऐसे कई विशेषणों में बाँध कर देश की जनता को उनके खिलाफ भड़काना चाहा। जब आप अंग्रेजों के बनाए सिस्टम में ही उन्हीं अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई का दावा कर रहे हैं, तो आप कहीं न कहीं गलत हैं। यही बात बोस को अखरती थी कॉन्ग्रेस को लेकर। प्रदर्शन करना लड़ाई नहीं, विरोध है। अवज्ञा सिर्फ प्रतिकार है, युद्ध नहीं। हठधर्मिता माँगें मनवाने का तरीका है, युद्ध नहीं है। अहिंसा एक बहाना है, युद्ध नहीं है। असहयोग एक संकल्प हो सकता है, लड़ाई नहीं। इन सबसे अंग्रेजों को रत्ती भर फर्क न पड़ा।

अगर इन सबका कोई नतीजा निकलता तो फिर अंत में ‘भारत छोड़ो’ की नौबत ही क्यों आती। मुट्ठी भर नमक बना लेने से आज़ादी मिल जाती तो नेताजी सुभाष चन्द्र बोस को जर्मनी से लेकर जापान तक क्यों खाक छाननी पड़ती? बोस सिर्फ देश को आज़ाद नहीं करना चाहते थे, बल्कि यहाँ के लोगों के जीवन और स्वतंत्रता के बाद कि परिस्थितियों को लेकर भी चिंतित थे। आज जिस तरह से 90 देशों को हमारा देश कोरोना वैक्सीन सप्लाई कर रहा है, वैश्विक राजनीति व कूटनीति में दक्ष सुभाष जहाँ भी होंगे, इस पर ज़रूर गर्व कर रहे होंगे। उनका सपना सिर्फ आज़ादी नहीं, उससे कहीं बहुत व्यापक और विशाल था।

दोबारा कॉन्ग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद त्रिपुरा में हुए पार्टी के सेशन में उन्हें कैसे बेइज्जत किया गया, ये इतिहास में दर्ज है। बीमार बोस को स्ट्रेचर पर वहाँ लाया गया था, लेकिन उनका ऐसा अपमान हुआ कि वो इस्तीफा देने को विवश हो गए। उनकी जीत को गाँधी ने अपनी व्यक्तिगत हार मान ली थी। वर्किंग कमिटी के लोगों से इस्तीफा दिला दिया गया। उसमें सुभाष के भाई शरत अकेले रह गए। क्या आपको पता है कि एक संस्कृत के विद्वान प्रोफेसर ने नेताजी को बताया था कि उन पर ‘मरण क्रिया’ का प्रयोग किया गया है। वो अंधविश्वासी नहीं थे, पर ये सुन कर वो चौंक गए थे और डर भी लगा था।

नेताजी को मारने के उपक्रम तो तभी से चल रहे थे जब वो कॉन्ग्रेस के अध्यक्ष बने। लेकिन उनके न होने का खामियाजा देश को भुगतना पड़ा। चीन से हार हो, सेना की कमजोरी हो या फिर सुरक्षा परिषद में सीट गँवाना हो – हमारी नियति में नेहरू ही थे। आज पहली बार देश सुभाष की नीतियों पर आगे बढ़ रहा है। जाते-जाते आपको बता दूँ कि नेताजी के बारे में INA के संस्थापक रास बिहारी बोस को किसने बताया था? किसके कहने पर रास बिहारी बोस ने नेताजी को विदेश में भारतीय स्वतंत्रता के लिए चल रहे आंदोलन को लेकर सब कुछ लिखा। #वीर_सावरकर ने। आज़ाद हिंद फौज के रेडियो ब्रॉडकास्ट में खुद बोस ने सावरकर का आभार जताया था। हीरे को हीरे की परख थी।

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