देहरादून,24 अगस्त को परेड ग्राऊंड स्थिति धरना स्थल पर,गैरसैंण अभियान के तहत( डमरू
थाली के साथ पहुंचे)साथ में लाईये अपनी डौंरी या कांसे की थाली, आंदोलन कारियों का कहना है एक बार फिर जोर से बजायेंगे, देवता प्रकट हुए तो ठीक, वरना घरभूतों का ही आह्वान सही.राज्य को संगठित होकर लूटा जा रहा है, लूटेरे अलग अलग भेष भूषा में हमारे आसपास हैं, वो किसी राजनैतिक विचारधारा या दल विशेष में नहीं हैं, वो सर्वत्र हैं, उनके लिए अंग्रेजी में एक शब्द है ‘Omnipresent’, अर्थात सर्वव्यापी। इनके लिए हर मुख्यमंत्री उनका है हर मंत्री उनका। उनका भगवान पैसा है, धंधा दलाली।
राजपुर रोड में बनने वाले बड़े बड़े मॉल -होटल, यूनिवर्सिटी, रेसिडेंसियल काम्प्लेक्स, का ही मुयायना कर लीजिये, आपको रामनगर के जिम कॉर्बेट पार्क जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी। आप जान जाएंगे, कि जिन्होंने राज्य निर्माण में योगदान दिया है वो आज अपनी जमीने बेचकर इन नवधनाढ्यों के चौकीदार और ड्राइवर बने हैं। हमारे मंत्री – विधायकों- पूर्व मुख्यमंत्रियों को तो सिर्फ एक चुंगा सा डाला जा रहा है।
कोर्ट के मना करने के वावजूद पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए विशेष सुविधा देने के लिए अध्यादेश !
कौन सा पूर्व मुख्यमंत्री है जो इस काबिल नही है कि अपने लिए एक घर बना सके, और अगर पूरे जीवन में नहीं बना पाया तो सिर्फ छह महीने या साल दो साल मुख्यमंत्री रहने की एवज में राज्य पर इतना बोझ क्यों?एक और मजे की बात है कि राज्य के ज्यादातर मुख्यमंत्रियों को धक्के मारकर निकाला गया है , एक भी दुबारा चुनाव नहीं जीत सका है। फिर इतनी मेहरबानी क्यों ?
ये मेहरबानी राज्य हित में तो कतई नहीं है?
क्या अपने पाप ढकने के लिए पूर्व मुख्यमंत्रियों पर इतनी मेहरबानी?
कई राज्य आंदोलनकारी और उनकी संताने बिना इलाज मर रहे हैं। अपने जीवन के अनमोल साल राज्य आंदोलन को देने वाले साथी, पेंशन और सामान्य सुविधाओं के लिए दर-दर की ठोकर खा रहे हैं। सरकार के पास उनके लिए पैसा नहीं है !!
अगर आप मेरी बात से सहमत हैं तो आईये कल 24 अगस्त को परेड ग्राऊंड स्थिति धरना स्थल पर .
डौंरी (एक विशेष प्रकार का वाद्य यंत्र) – थकुली (कांसे की थाली) बजाई जाती है, देवी-देवताओं और घरभूतों के आह्वान के लिए । गढ़वाल में इन्हें जागर कहते हैं (गलत हूँ तो विद्वान लोग सही करने के लिए स्वतंत्र हैं).
उत्तराखंड राज्य आंदोलन के समय केंद्र और उत्तरप्रदेश की सरकार के खिलाफ संघर्ष के दौरान उत्तराखंडियों को जगाने के लिए इन बाद्य यंत्रों और लोक संगीत का खूब इस्तेमाल हुआ था।
आंदोलन भी सफल रहा, राज्य के लगभग सभी लोगों के सहयोग से अलग राज्य का निर्माण हुआ।
लेकिन अफ़सोस राज्य निर्माणकारी ताकतें राज्य बनने के पश्चात या तो सो गई, कुछ सरकार की पेंशन और नौकरी के बोझ तले दब गई और बाकि राष्टीय पार्टियों का मुँह ताकने लगी कि इनके मुँह से कुछ छूटे तो हम भी लपकें।
राज्य आंदोलन के शेर, राज्य बनने के पश्चात झूठन खाने वाली लोमड़ी बन गए। गढ़वाली में एक कहावत है कि ठुला-ठुला गोर पीन्डू खाला, और छवठा -छवठा गिचु चाटाला। अर्थात बड़े जानवर माल खाएंगे और छोटे उनका मुँह चाटेंगे। अफ़सोस की कई सच्चे राज्य आंदोलनकारी पिछले 19 वर्ष में बड़े जानवरों की झूठन का इंतज़ार ही कर रहे हैं।
मैंने पहले भी एक बार लिखा था कि राज्य आंदोलन (1994) के समय सबसे छोटा आंदोलनकारी भी 20 वर्ष का ही रहा होगा, अर्थात आज उसकी उम्र भी 45 के आसपास हो गई होगी, जबकि उस समय के बड़े आंदोलनकारी या तो हरिद्वार की तरफ अग्रसर हैं या चंद वर्षो का इंतज़ार है। जिन्हे आज तक जो मिलना था ,वो मिल लिया , जिसने विधायक- मंत्री – संत्री बनना था वो बन लिए, अब किसी नए व्यक्ति के लिए स्थान रिक्त नहीं है, अब इंतज़ार करना बंद कर दो, जीवन के महत्वपुर्ण 20 वर्ष राज्य के हित में आप खर्च कर चुके हो, बाकि का बचा हुआ समय भी देवभूमि के नाम कर दो, आने वाली पीढ़ियां याद करेंगी। यह कहना सयोंजक लक्ष्मी प्रसाद थपलियाल, राज्य आंदोलन कारी मनोज़ ध्यानी एंव बेरोजगार युवाओं की आवाज सचिन थपलियाल पूर्व महासचिव डीएवी पीजी कालेज देहरादून एवं आंदोलन कारीयों का है