हमारा गौरवशाली उत्तराखण्ड तब और अब-
एक ऐतिहासिक झलक – पूरन सिंह कार्की
चमकते सूर्य के प्रकाश में हिमालय की हिमाच्छादित पर्वत चोटियों को देखिये। आपको उत्तराखण्ड के पर्वतीय लोगों के क्षेत्रीय भूगोल का निश्चल दृश्य दिखाई देगा। इन पर्वतीय श्रेणियों में स्थित हैं– नन्दादेवी, कामेट, मध्य कैलाश, कंचनजंगा, कैलाश मानसरोवर आदि पुराने पर्वत शिखर। संसार के किसी भी जन्मजात यात्री से पूूछिये कि हिमालय में आकर्षक पर्यटन स्थल कहां हैं ? अवश्य ही वह नैनीताल, मसूरी, देहरादून, कौसानी, अल्मोड़ा, रानीखेत, कुमाऊं के प्रवेश द्वार हल्दानी का नाम लेगा। यद्यपि विगत शताब्दियों में इन लोगों के अपने रियासती-रजवाड़े थे, छोटी-छोटी भूपेटियों में उनके रिश्ते के लोग फैले हुये थे, परन्तु यहां के शासकों के राज्य का विस्तार सूदूर दक्षिण में हिमालय के भावरी व तराई भागों तक था जहां आज पीलीभीत, बरेली, मुरादाबाद व बिजनौर के जिले हैं। सामान्य शब्दावली में प्रेगैतिहासिक काल में गढ़वाल व कुमाऊंँ क्रमशः पौराणिक केदारखण्ड व मानसखण्ड कहलाते थे। इन निवासियों में से अधिकांशतः लोग सातवीं शताब्दी के बाद पश्चिमीम, उत्तर पश्चिमी व दक्षिणी भारत की मुख्य धरती से आकर बस गये हैं। पन्त, जोशी, पाण्डे, तिवारी, भगत, काण्डपाल, भट्ट, कुकरेती, मेलकानी, पाठक, करगेती व अन्य कई ब्राहमण तथा जीना, बोरा, बिष्ट, कार्की, भण्डारी, नेगी, रावत, मेहता, परिहार,चौहान, सामन्त, व महर आदि क्षत्रिय राजपूत जतियां, पश्चिमी, उत्तर पश्चिमी तथा अलपसंख्या मे दक्षिण भारतीय राज्यों में प्रवास कर यहां पर बसे हैं। परन्तु अधिकाश संख्या प्राचीन राजस्थान, पंजाब, महाराष्ट्र, रोहिलखण्ड व अवध अदि से आये हैं। उदाहरण के रूप में राजस्थान जाइये अधिकाशतः वहां के नगरों, जयपुर, अजमेर, चित्तौड़गढ़ मे आपको यहां की तरह मिलती-जुलती जतियां मिल जायेगी। पंजाब मे भी लगभग कुछ प्रतिशत जातियां यहां की जातियों से मिल जायेगी। पहाड़वासी किसी अन्य की अपेक्षा अधिक साहसी लोग हैं सैनिक पृष्ठभूमि से आने के कारण ऐसा है। जब देश 1947 में स्वतंत्र हुआ तो उसके बाद बाद हमारी सीमाओं पर शत्रुओं द्वारा किये गये आक्रमणों का सामना करने में 1234 उत्तरांचली जवान शहीद हुए। कुमायूँ रेजीेमेंट के मेजर सोमनाथ शर्मा ने जान की बाजी लगाकर पाकिस्तानी हमलें से श्रीनगर को बचाया। उत्तरांचली राज्य के ही जनरल बी०सी०जोशी जिनका 1994 में निर्धन हो गया था,सेना में उच्च पद पर आसीन उत्तरांचली थे। एक अच्छी संख्या में इस क्षेत्र से सहित्यकारों ने राष्ट्रीय कला, सहित्य, संस्कृति के विकास में नये आयाम दिये । श्री गुमानी पन्त देशभक्ति की कविताओं के रचियता थे । पंडित सुमित्रानन्दन पंत छायावादी कवि थे लेनिन पुरस्कार, जानपीठ पुरस्कार तथा पद्मभूषण से सुशोभित हुए। देश को श्रीमती मृणाल पाण्डे, मनोहर श्याम जोशी जैसे लेखक व पत्रकार उत्तरांचल ने दिये हैं। डा०पी० सी०जोशी, डा० शिव प्रसाद डबराल, श्री शिवानन्द नैटियाल आदि इस क्रम के अन्य साहित्यिक स्तम्भ हैं। इस छोटे से क्षेत्र का देश के राजनीतिक पटल पर बहुत अधिक प्रतिनिधित्व रहा है। पंडित गोबिन्द बल्लभ पन्त देश के गृहमन्त्री बने, श्री बी० डी० पाण्डे, श्री चन्द्र भानु गुप्त और श्री नारायण दत्त तिवारी राष्ट्रीय स्तर के लोग थे। बची सिंह रावत, श्री भुवन चन्द्र खण्डूड़ी वर्तमान में इस परम्परा को निभा रहे हैं। डा० डी० डी०पन्त सरीखे वैज्ञानिक उत्तरांचल के हैं। वह सुन्दरलाल बहुगुणा थे जिन्होंने चिपको आन्दोलन के माध्यम से अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पर्यावरण के प्रति चेतना जगायी ।आथ भी वह लाखों पर्यावरणप्रेमियों के लिए प्रेरणा के स्रोत हैं।इनके अतिरिक्त उत्तरांचली अत्यधिक तेज बस व मोटरगाड़ियों के चालक हैं। किसी भी सरकारी परिवहन निगम की बसों की तेज रफ्तार से सभी परिचित हें। निम्न शिवालिक भूभागों में उनके सेव, नाशपाती, आडू, खूबानी, प्लम के बागान हैं। उत्तम कोटि के सेव व अन्य फल देश के कोने कोने तक यहां से भेजे जाते हैं। उत्तरांचली अपनी वास्तविक संख्या से कहीं अधिक दिखाई देते हैं क्योंकि उनका पहनावा, तेजतर्रार वाकपटुता, अति-मिलनसार व सरल व खरे स्वभाव के कारण वे आसानी से पहचाने जा सकते हैं। पहले लोग कुमायूं व गढ़वाल में पगड़ी पहना करते थे। धोती, कुर्ता, चूड़ीदार पाजामा तथा पूरी आस्तीन की ऊनी बनियान, वास्कट तथा लम्बा कोट पुरूषों की मुख्य पोशाक थी। पुरूष अष्टधातु, तांबे अथवा चांदी के कड़े पहनते थे। स्त्रियां घाघरे, साड़ी व ब्लाउज पहनती थीं।उनके लिए सिर में अंगोछा रखना अनिवार्य था।स्त्रियां हाथो में मोटे कड़े तथा नाक में नथ व गले में मूंगे व अन्य धातुओं की माला पहनती थीं। आज पुरूष पैन्ट, कमीज, कोट तथा महिलाएं साड़ी ब्लाउज, दुपट्टा व हाथों मे पौजी नाक में नथ (लौंग) गले में हार, गलूबन्द तथा पैरों में चैनपट्टी पहनती हैं। उन्हें भारत की जनसंख्या का 8 प्रतिशत होने पर भी भारत की सेनााओं में प्रमुखता से देखा जा सकता हैं। स्वाधीनता के बाद उत्तरांचली पश्चिमी भारत के जयपुर, अजमेर, बाड़़मेर, दिल्ली, चण्डीगढ़ शहरो में जाकर बस भी गये हैं। और लखनऊ, कानपुर, बरेली, आगरा, व उत्तरांचल की सम्पूर्ण तराई में बहुयायत में बसे हैं। वे व्यापारी हैं। बिरले उद्योगपति, अच्छी सेवाओं में प्रशासक, शिक्षाविद् वकील, डाक्टर, इन्जीनियर व समाज सेवी हैं। वे विदेशों मे भी हैं परन्तु उनका सबसे अधिक जमाव कुमायूं व गढ़वाल के पर्वतीय व भावरी भागों में है तथा इसी तरह दिल्ली व लखनऊ में भी है। पहाड़ के लोगों का मन पसन्दीदा व्यवसाय बागवानी, लघु इकाई उत्पादन व पर्यटन हैं।फिर भी खेती साठ प्रतिशत लोग करते हैं। इसके बाद सैनिक हैं। अंग्रेजी राज के समय अच्छी संख्या में गढ़वाल व कुमायूं रेजीमेण्ट में उत्तरांचली सैनिक थे। उत्तरांचलवासियों का बहुत कुछ रीति-रिवाज राजस्थान, गुजरात व पंजाब के लोगों से मिलता-जुलता हैं। ब्राहमणों की अनिवार्यता का अटूट सम्बन्ध, पहाड़ो में तिजारती कार्यो में वैश्य वर्ग की मारवाड़ प्रान्त की तरह रचनात्मक भूमिका व यहां की परम्परा में स्वास्तिक चिन्ह का प्रयोग शिल्पकारों व हरिजनों का पर्वतीय भवनों के कलात्मक निर्माण शिल्पकला के अद्वितीय प्रर्दशन तथा पर्वतीय लोकगीतोें में स्वर संगीत प्रदान करना, एकीकृत पर्वतीय सौहार्दपूर्ण संस्कृति की एक विलक्षण पहचान हैं। जहां हमारी सहोदर जाति सम्प्रदाय के लोग 200-300 वर्षो तक (सन्1790 से 1815 तक) गोरखा प्रताड़ना के शिकार रहे, ब्रिटिश शासन के अधीन लगभग 150 वर्ष तक का अंग्रेजी शासन भी देखा। उत्तरांचलवासी कभी हतोत्साहित या नितांत गुलामों की तरह नहीं रहे । एक चीज ! उत्तरांचलवासी, स्वाभिमानी स्वभाव रखते हैं। किसी अंग्रेज ने कहा था- ’पहाड़ी आदमी सीधा, ईमानदार व सबसे अच्छा दोस्त होता हैं। लेकिन अभ्रद कपटी व्यक्ति के लिए दुनिया का सबसे बड़ा शत्रु व संहारक भी है। काम कैसा भी हो उसे करने के में उसे लज्जा नहीं आती। परन्तु मेहनत व परिश्रम को ईमानदारी के रूप में लेता हैं। ’’ कभी कोई पर्वतीय व्यक्ति भीख मांगने नहीं जाता हैं। बची गौड़ छोटे स्तर से कुमायूं के नामी बिल्डर बन गये थे। दान सिंह मालदार उदार व दानी व्यक्ति थे, जो सम्पन्नता के शिखर तक पंहुच गये थे। इतना सब कुछ करने पीछे प्रेरणास्रोत क्या हैं। धर्म, कर्म व शान्ति की लालसा। माता भगवती, अराध्य देव शंकर, काली तथा ईष्ट देव, ऐड़ी, गोलू व गंगनाथ देवता के अनुयायियों की संख्या में वृद्धि इस आस्था का प्रतीत हैं। रानीखेत से अल्मोड़ा जाने वाले मार्ग में 12 वीं शदी का कटारमल का सूर्य मन्दिर, विक्रमी संवत् 376 में कत्यूरी राजाओं द्वारा स्थापित बागेश्वर मन्दिर जिसे चन्द राजाओं के समय में सन् 1290 में जीर्णोद्वार किया गया, गंगोलीहाट का हाट कालिका मन्दिर, 12 वीं शताब्दी के बने पाताल भुवनेश्वर के शिव व चन्द्रिका देवी मन्दिर, द्वाराहाट के ऊपर द्रोणागिरी पर्वत पर देवी मन्दिर, देवीधुरा की बाराही देवी, सवंत् 376 का कत्यूरी समय का बना विभाण्डेश्वर- शिव मन्दिर (द्वाराहाट), अल्मोड़ा का चितई गोलू का मन्दिर चम्पावत के गोरिल चौड़ का गोल्ल देवता का मन्दिर, गढ़वाल में बद्रीनाथ व केदारनाथ धाम, चम्पावत का पूर्णागिरी मन्दिर, नैनीताल की मां नन्दा देवी अदि हमारी प्रेरणा व जीवन के आधार बिन्दु हें। जागर का रिवाज, जिसमें नाचने वााले के शरीर में देवता का अवतार आता है, यहां के धार्मिक व आध्यामिक जीवन का एक पहलू है। कुमायूं में सैम, हरज्यू, भूमिया देवता, गोल्ल व गंगनाथ तथा ऐड़ी देवता सर्वव्याप्त हैं। भौगोलिक परिस्थियों के अनुरूप यहां पर मनोरंजन के साधन, आत्मरक्षा व अन्य उद्देश्यों के लिए अस्त्र व शस़्त्रों की खोज हुई । सामरिक दृष्टि से नेपाल, चीन अन्य देशों से लगा होने के कारण उत्तरांचलियों ने अपनी सुविधा के अनुसार 12वीं व 13 वीं सदी में हल्के किन्तु प्रभावशाली अस्त्र- शस्त्रों- तलवारों, पाटल, डागर, बल्लम, बर्छी, खुकरी जैसे अन्य औजारों का आविष्कार किया। विदेषी आक्रमण होने पर खूबसूरत उत्तरांचली योद्धा जवाबी आक्रमण के पहले युद्धघोष करने वाले रणभेदी वाद्ययन्त्रों की गगनभेदी गर्जना करते थे। ये प्राचीन यन्त्र थे- फन उठाये नाग की तरह का रणसिंगा,तीन नलियों वाला मशकबीन, तांबे की तुरी तथा इसके अतिरिक्त युद्ध की मुनादी करने वाले, ढोल नगाड़े। उत्तरांचल में जाति का विशेष स्थान है। नाम के बाद जाति लिखी जाती है। स्त्रियों के नाम के पहले श्रीमती तथा नाम के बाद देवी अथवा उसके बाद पति की जाति लिखी जाती है। स्त्रियों को लम्बे केश रखना शुभ माना गया है। बाल काटने वाली स्त्री को अधिक सभ्य नहीं माना जाता। स्त्रियां कर्तव्यनिष्ठ, पतिव्रता होती हैं। समय आने पर शस़्त्र भी उठा सकती हैं। वह धार्मिक व निष्कपट होती हैं। मन्दिर, धार्मिक प्रतिष्ठानों अथवा पूजा स्थलों पर स्त्री- पुरूषों का उपस्थित होना आवश्यक माना गया हैं। कहीं-कहीं महिलाऐं इतनी धर्म पवित्र होती हैं कि उनमें देवताओं का अवतार भी होता देखा गया है। काली कुमायूं, धारचूला, भावर के अनेकों भागों में अनेकों महिलाएं मंत्र, आध्यात्म विद्या से आज भी अबूझ रहस्यों, खोई वस्तुओं, घर की समस्या, बाधाओं के गुप्त प्रश्नों का समाधान कर सकती है। ईष्ट देवता में लोग विश्वास रखते हैं।, वेद ग्रन्थों के पात्रों को मानते हैं। ऊंची पर्वत चोटियों, बर्फीले टीलों, गुफाओं तथा प्राचीन वृक्षों को पवित्र मानते हैं। पुनर्जन्म, श्राद्ध-कर्म, में अटूट आस्था रखते हैं। प्रातः वन्दना, सूर्य-पूजा, नित वन्दना, जप तथा सांध्यकालीन संध्या पूजा उनके नितकर्म के प्रमुख अंग हैं। उत्तराखण्ड प्राचीन समय में मौर्य साम्राज्य का भाग था। छटी शताब्दी में पौरव वंश के शासन के अन्तर्गत रहा। सातवीं शताब्दी में कत्यूरी राजवंश आ गया। यह वह समय था जब उत्तराखण्ड समेत उसका साम्राज्य विस्तार हिमालय तक फैल गया और 10-12 राजाओं के शासन के बाद 12 वीं सदी में गढ़वाल में पंवार,कुमायूं में चन्द शासक राज्य के स्वामी बने।इसके बाद 16 सदी में गढ़वाल व कुमायूं में क्रमशः पंवार व चन्द वंशीय शासकों का स्वतंन्त्र राज्य स्थापित हुआ। फिर सन् 1771 में प्रद्युम्न शाह का सारे उत्तरांचल पर स्वतंत्र राज्य स्थापित हुआ। 1790 में गोरखा नेपाल के आक्रमण से 25 वर्षो के लिए नेपाली साम्राज्य के अधीन आया परन्तु सन् 1814-15 में अंग्रेजों ने इस राज्य को अपने शासन का अंग बनाया। सन् 1901 में संयुक्त प्रान्त आगरा व अवध बनने पर उत्तराखण्ड क्षेत्र उसका अंग बना। चन्द राजवंश के समय तराई-भाबर के इलाकों तक शान्तिप्रिय व्यवस्था कायम रही। अनेकों मन्दिरों का जीर्णोद्वार हुआ, किले, दुर्ग, महल व तोरणद्वार बनाये गये। परन्तु सन् 1790 के बाद चन्दवंश का स्वर्ण युग समाप्त हो गया। चम्पावत, अल्मोड़ा, शोरघाटी, पिथौरागढ़ व सल्ट नेपाल ने छीन लिए। चन्द्र शासन के महान कूटनीतिज्ञ व सलाहाकर श्री हर्ष देव जोशी चन्दों को गड़ो से हटाकर गढ़वाली राजाओ को अल्मोड़ा लाये। फिर उन्हे हटाकर गोरखों को पदासीन किया। अन्त में अंग्रेजों को कुमायूं का शासक बनाकर वृद्धावस्था से गणनाथ में जाकर दिवंगत हो गये। इस प्रकार अंग्रेजी शासन स्थापित हुआ। 18 वीं सदी के उत्तरार्ध में अंग्रेजी राज के दौरान रेल मार्गों, सड़कों, डाकघरों, पुलिस विभागों तथा शिक्षा संस्थानों का विस्तार हुआ। बिजली उत्पादन आरम्भ किया गया तथा खेती के लिए पुल बनाये गये। परन्तु राजनैतिक पराधीनता उत्तराचंल वासियों को रास नहीं आयी। सन् 1947 में मानसूनी बरसात से भरे 15 अगस्त के दिन ने उत्तराखण्ड से 132 वर्ष पुराने अंग्रेजी शासन को उखाड़ फैंका और स्वाधीनता प्राप्त कर देश की प्रगति में अपनी भूमिका निभायी। यहां के विकास में भौगोलिक परिस्थियों के रास न आने के कारण यहां के निवासियों ने पृथक स्वयतषासी राज्य की मांग के पीछे संघर्ष किया। दशकों के संघर्षो के बाद 9 नवम्बर सन् 2000 को उत्तरांचल राज्य का औपचरिक गठन किया। भारत के मानचित्र में 29 अंश 5, से 31 अंश 25 उत्तरी अंक्षाश 77 अंश 45 से 81अंश पूर्वी देशांतर के बीच 55, 845 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर फैले 84,79,562 की जनसंख्या वाले इस राज्य में 13 जनपद तथा 70 विधानसभा क्षेत्र हैं। आज उत्तराखण्डी अपने मूल गांवो से पलायन कर गये हैं। उनके पुश्तैनी मकान या तो वीरान हैं या भूमाफियाओं के दुष्चक्र में आकर बिक गये हैं। पहाड़ की जीवन शैली की चर्चा करना भी आवश्यक है। पहाड़ी घाटियों में लोग गांवो में टिन या खपरैल के मकानों मे रहते हें। बरामदे बड़े होते हैं। टिन की चादरों में बने होने के कारण धूप का आनन्द बखूबी से लेते हैं। पहले-छोटे-छोटे मकान होते थे। लगभग 95 प्रतिशत से अधिक पक्के मकान हैं। मकानों के ऊपरी भाग दो मंजिले में परिवार रहते थे। तथा निचले भाग में दुधारू पशु गाय, बकरी व बैल, तथा भेड़ेंअदि रहते थे। भैस पहाड़ो में नहीं पाली जाती थीं। अब सीमेंट की छतों वाले मकान बनने लगे हैं। तथा पशुशालाऐं अलग बनायी जाती हैं। गांवो से दूसरे गांवो में जाने के लिए छोटी-छोटी बटिया (रास्ते) हैं, जिनका संपर्क बड़ी पक्की सड़को से है। यहां कुछ व्यक्ति बहुत धनी तथा कुछ निर्धन हैं। सांयकाल होते ही लोग काम से लौटकर घर वापस आ जाते हैं। नयी पीढ़ी के लोगो ने जीपें, कारें, ट्रक, तथा दुपहिया वाहन ले लिये हैं जबकि इनकी पिछली पीढ़ी के लोग घोड़ों से आना जाना करते थे। पर्वतीय रीति-रिवाज पर्वत वासियों को आपस में जोड़े हुए हैं। धार्मिक लोग होने के कारण उत्तरांचली कट्ठरपंथी हैं। यहां पर जन्म से लेकर मृत्यु तक 16 संस्कार किये जाते हैं। 1. गर्भाधान 2. पुंसवन 3. सीमन्तोपन 4. जातकर्म. 5. नामकर्म या नामकरण 6. निकृष्णमन 7. अन्नप्राशन 8. जन्मोत्सव 9. कर्णभेद 10. चूड़ाकरण 11. अक्षरारम्भ 12. उपनयन संस्कार या जनेऊ संस्कार 13. विवाह संस्कार 14. दीक्षा 15. महावृत और 16. सन्यास। इसके अलावा मृत्यु पर व्यक्ति को चारपाई से उठाकर जमीन पर लिटाकर स्नान कराकर, गांव व शहर के लोग शम्सान पर ले जाकर दाह संस्कार करते हैं। सात पुश्त के भीतर बांधव वर्गों को मुण्डन करके तिलांजलि देनी पड़ती हैं। जिनके माता-पिता होते हें वे मुण्डन नहीं करते । 12 वे दिन पीपल पानी, संपिडी श्राद्ध किया जाता है। प्रतिवर्ष मृत्युतिथि
को एकोदिष्ट श्राद्ध किया जाता है। काशी, प्रयाग, हरिद्वार, आदि तीर्थो में तीर्थ श्राद्ध किया जाता है। गया में श्राद्ध करने के बाद फिर व्यक्ति का श्रााद्ध न भी किया जाय तो फिर व्यक्ति का तारण हो जाता है। उत्तरांचली पर्व व त्यौहार यहां के सम्पूर्ण समाज को उसके इतिहास, भूगोल, सांस्कृति व पर्यावरण से जोड़े हुऐ है। चैत शुक्ल पड़वा वर्ष के आरम्भ में संवत्सर प्रतिपदा होती है। इस दिन पंडितो से पंचाग का शुभाशुभ फल सुना जाता है। चेत्राटष्टमी को देवी की पूजा पाठ की जाती है। विषुवती या बिखौती पर थल, द्वाराहाट, स्यालदे, चौगड़ मे मेले लगते हैं। हुड़का बजाकर पहाड़ी गीत गाये जाते है। ज्येष्ठ सुदी 10 को गंगा-दसहरा मनाया जाता है। कागज के पर्चे में श्लोक लिखकर घरों के दरवाजों के ऊपर चिपकाया जाता है। इससे वज्रपात,बिजली आदि गिरने का भय नहीं रहता। हरियाला संक्रात के दिन, गौरी, महेश्वर, गणेश तथा कार्तिकेय की मिट्टी की मूर्तियां बनाकर मासान्त की रात्रि को हरियाले की क्यारी में विधिपूर्वक फल-फूल तथा पकवान व मिठाइयों से पूजा करके दूसरे दिन हरियाला पूजा करके उसे सिर में रखा जाता है। जिससे खेत खलिहान व घर में हरियाली व सम्पन्नता आये। नन्दाष्टमी में नैनीताल, अल्मोड़ा, रानीखेत व भवाली में नन्दादेवी की पूजा व मेले होते है। घुघुतिया या उत्तराणी में पहाड़ की संस्कृति खान-पान, पहनावा लोकनृत्य स्पष्ट दिखाई देते है। पुरूष महिलाओं की श्रंगार मुक्त नृतकों की टोलियां गढ़वाल के चैफुल्ला लोकनृत्य में देखिए।यदि गढ़वाल में विवाहिता दुल्हन के पहली बार मायके आने पर कोई खुशी का वातावरण देखना हो तो न यहां का प्रसिद्ध थड्या नृत्य-गीत देखिये। यदि विवाहित युवातियो द्वारा विरह वेदना तथा मिलन को देखना हो तो गढ़वाल जाकर झुगलों नृत्य गीत देखिए। यदि युवक युवतियों का चांदनी रात्रि में नृत्य देखना हो तो कुमायूं में आकर झोड़ा अथवा चांचरी नृत्य देखें ।आज बदलते परिवेश में भी यदि राजपूतों का विवाह नृत्य देखना हो तो छोलिया नृत्य देखें । राजपूतों के इस विवाह नृत्य में एक हाथ में तलवार तथा दूसरे हाथ में ढाल लेकर नृत्य किया जाता है। इस श्रृंखला में आज भी छपेली, पासी तथा आध्यत्मिक शक्तियों को बुलाने वाले जागर नृत्य हैं। उत्तराचंली मन्दिर यहां की स्थापत्य कला व प्राचीनता के सजग प्रहरी हैं। हेमकुण्ड साहिब, हरिद्वार, कलीयर शरीफ, लाखामण्डल, रीठा साहिब, नानकमत्ता साहिब, गुप्त काशी, पातालभुवनेश्वर, बैजनाथ, बाराही देवी पुराने समय से आस्था स्थल रहे हैं। आज का उत्तराखण्ड सांस्कृतिक संक्रमण के प्रभाव से अछूता नहीं है। परम्परागत वेशभूषा के स्थान पर पश्चिमी वेषभूषा का बेरोकटोक अनुकरण हुआ है। कहने को तो पहाड़ घाटियों में बसे लोगों से गतिशील है। परन्तु बाहर से आकर अट्टलिकाएं बनाकर रहने लगे बड़े भू माफियाओं के भवनों के अलावा मां शब्द के लिए प्रयुक्त होने वाले ईजा शब्द के स्थान पर मम्मी तथा दूध के प्याले के स्थान पर मदीरा की बोतलों तक संक्रमण हो गया है। निचली घटियों तथा भावरी भागों में बसे पर्वतवासी अपने उच्च अंक्षाशों में बसे पर्वतवासी हम बन्धुओं से दूर मैदानी भागों में अपने सम्बन्ध बना चुके है। क्या हुआ यदि आजादी के बाद हम अपने परायों से दूर हो गये । पहाड़ सदा से पहाड़ी जमीन में ही बना रहा। उसके लोग हमसे दूर बिछुड़ गये। हमारे पूर्वज इतने निर्दयी तो नहीं थे कि उन्होनें अपने पहाड़ मे रहने व वहां की परम्पराओं को छोड़ने का साहस किया। तब हमारी पीढ़ी के लोग अपने पुश्तैनी रिवाजों, परम्पराओं, सांस्कृतिक मूल्यों व पुराने आवास, बाग बगीचे व बंजड़ हवेलियों व खेतों की सुध लेने क्यों नहीं आगे आते।पहाड़ी मातृभूमि का इतिहास आज अपनी अस्मिता को बनाये रखने के लिए आंसू बहा रहा है। और पहाड़ी पूर्वजो की उन परिश्रमी वीर व सत्य निष्ठ सन्तानेां की हम पीढ़ियों ने भावर व मैदान में नवधनी समाज की चकाचौंध को देख स्वयं नवधनी बनने के असफल प्रयासों में अपनी पितृभूमि को भुला दिया है। यदि हम आज इस बात पर ध्यान नहीं देगें तो आने वाले समय में हमारे मिटते इतिहास व विलुप्त होती अस्मिता व पहिचान पर आंसू बहाने वाला भी कोई न होगा।
पूरन सिंह कार्की
लेखक व पत्रकार
13-03-2019