साइंटिफिक-एनालिसिस, मुख्य न्यायाधीश ने न्याय की देवी की आंखों की पट्टी अपनी आंखों पर बांधी- शैलेन्द्र कुमार बिराणी युवा वैज्ञानिक

Pahado Ki Goonj

साइंटिफिक-एनालिसिस

मुख्य न्यायाधीश ने न्याय की देवी की आंखों की पट्टी अपनी आंखों पर बांधी

दुनिया में खत्म हो रहे लोकतन्त्र की गाथा में सबसे बडे लोकतन्त्र भारत यानि इंडिया में मुख्य न्यायाधीश ने न्याय की देवी की मूर्ति में आंखों पर बंधी काली पट्टी को हटा कर स्वयं की आंखों पर बांधकर एक नई ही महागाथा रच डाली | लोकतन्त्र की आंखों पर बंधी पट्टी की जानकारी उन्हें आधिकारिक तौर पर दी गई परन्तु उन्होंने उस पट्टी को हटाने की बजाय खुद की आंखों पर पट्टी बांधकर चुप रहकर देश की जनता को अन्धा बनाये रखना मुनासिफ समझा ताकि वो वर्तमान समस्याओं में ही उलझी रहे |

वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड जी ने व्यक्तिगत तौर पर न्याय की देवी की मूर्ति बनवाई व उसमें अपनी सोच के अनुसार परिवर्तन कर डाले और उच्चतम न्यायालय में उसको स्थापित कर दिया | मूर्ति में बदलाव सही हैं या गलत यह एक अलग विषय है परन्तु सबसे पहले यह प्रश्न उठता है कि संविधान के अनुसार मुख्य न्यायाधीश को ऐसे राष्ट्रीय प्रतिकों को बदलने का अधिकार दे रखा हैं या नहीं | संविधान में इसके लिए कुछ भी दिशानिर्देश नहीं हैं तब भी लोकतन्त्र की मर्यादा व मूल कसौटी पर ऐसा करना सम्भव नहीं हैं | यह व्यक्तिवाद की श्रेणी में आता हैं | यदि भविष्य में कोई अलग सोच का व्यक्ति मुख्य न्यायाधीश की कुर्सी पर बैठ गया तो वो पुरी मूर्ति बदल देगा या अपनी लगा देगा और कोई कुछ नहीं कर पायेगा |

न्याय की देवी की मूर्ति में परिवर्तन जरूरी हैं तो वो होना चाहिए परन्तु लोकतान्त्रिक व्यवस्था, नियम व मर्यादा के अनुसार होना चाहिए परन्तु ऐसा प्रतित हो रहा हैं कि संविधान के अनुसार लोकतन्त्र में देश की असली मालिक आम जनता फिर गुलाम बना दी गई हैं और इनके पैसे से नौकरी करने वाले नौकर सर्वेसर्वा व शासक हो गये हैं |

न्याय की देवी की मूर्ति की आंखों पर काली पट्टी बंधे होने का एक तात्पर्य यह हैं कि वो बिना भेदभाव करे समान रूप से न्याय करती हैं और दुसरा अर्थ यह निकलता हैं कि वो अंधी हैं, देशवासीयों के साथ क्या अन्याय हो रहा हैं वो उसे नहीं दिखता है | मूर्ति की आंखों से पट्टी हटा देने से वास्तविकता व जमीनी धरातल पर कोई बदलाव नहीं होता है | भारतीय लोकतन्त्र को पहले से ही अन्धा बना रखा हैं | लोकतन्त्र की आंखें मीडिया के सभी घटक होते हैं जिसमें रेडियो, प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया व सोशियल मीडिया सभी आते हैं | इनके माध्यम से देशवासीयों की हर सच्चाई ऊपर तक जाती हैं |

आपको साइंटिफिक-एनालिसिस पहले ही बता चुका हैं कि मीडिया को कोई संवैधानिक चेहरा नहीं दे रखा हैं इसलिए कोई भी खबर व घटना की कोई सामुहिक एक रिपोर्ट नहीं बनती जो सरकार व उसके तन्त्र में जाकर कार्यवाही या बदलाव करने की कानूनी प्रक्रिया शुरु कर सके | अखबारों की खबरें अगले दिन रद्दी में और इलेक्ट्रानिक मीडिया की खबरें सिर्फ मनोरंजन या टाईमपास के विडियो में बदल जाते हैं। यह खबरें सच हैं, झूठ हैं या कोई प्रोपेगेंडा हैं कुछ भी पता नहीं चलता है | हेट-स्पीच के दायरे में कौनसा शब्द आता हैं और नहीं आता हैं यह भी हर प्रोग्राम के साथ बदलता रहता हैं।

उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों ने सुनवाई में मौखिक टिप्पणीया भी करी हैं कि मीडिया को कन्ट्रोल करने की कोई नियामिक संस्था व व्यवस्था नहीं हैं | इस बात का सबूत शैलेन्द्र कुमार बिराणी ने अपने आविष्कार की फाईल के हाथ राष्ट्रपति को भेजा था | राष्ट्रपति सचिवालय की मोहर व आधिकारिक साईन वाले इस दस्तावेज को नेशनल लीगल सर्विस अथॉरिटी (एन.ए.एल.एस.ए.) के माध्यम से हर राज्य के हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश व भारत के मुख्य न्यायाधीश को एक साथ भेजा था | भारत के मुख्य न्यायाधीश इसके संरक्षक व प्रमुख होते हैँ | इस संयुक्त ईमेल के जवाब में सचिव के अन्तर्गत कमल सिंह जी का जवाब आया कि वो कानूनी प्रक्रिया में सिर्फ आर्थिक मदद करते हैं | इसके जवाब में लिखा कि मुझे कोई आर्थिक मदद नहीं चाहिए, मेरा उद्देश्य यह सच्चाई मुख्य न्यायाधीश के संज्ञान में लाना था वो पूरा हो गया |

वर्तमान मुख्य न्यायाधीश डी.वाई.चन्द्रचूड जी ने यह सच्चाई जानने के पश्चात् भी लोकतन्त्र के आंखों पर लगी पट्टी को नहीं हटाया उल्टा न्याय की देवी के आंखों पर लगी पट्टी को हटाकर अपनी आंखों पर बांध लिया और प्रश्न पूछ रहे हैं कि इतिहास उनके कार्यकाल को किस रूप में देखेगा |

शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक

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पाठ्येतर गतिविधियाँ बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य में कैसे सहायता कर सकती हैं?

विजय गर्ग

तेज़ गति वाले शैक्षणिक माहौल में, छात्र अक्सर असाइनमेंट पूरा करने, परीक्षा की तैयारी करने और अक्सर अच्छा प्रदर्शन करने के दबाव का अनुभव करने के बीच जूझते रहते हैं। युवा दिमागों पर भारी दबाव और अपेक्षाओं के कारण मानसिक स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं अधिक प्रचलित हो रही हैं। पाठ्येतर गतिविधियाँ एक व्यवहार्य दृष्टिकोण प्रदान करती हैं जो पाठ्यपुस्तकों और परीक्षणों की सीमाओं से परे है। चाहे कोई बच्चा चित्र बना रहा हो, पार्क में फुटबॉल खेल रहा हो, या स्थानीय आश्रय में स्वयंसेवा कर रहा हो, ये गतिविधियाँ केवल अस्थायी राहत के बजाय भावनात्मक स्वास्थ्य का मार्ग प्रदान करती हैं। खेल, कला और स्वयंसेवी कार्य बच्चों को रचनात्मकता, विश्राम और भावनात्मक जुड़ाव के लिए बहुत जरूरी आउटलेट प्रदान करते हैं। पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेने से सामाजिक संबंध, लचीलापन और उद्देश्य की भावना का निर्माण करके बच्चों के मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है। यह उनके लिए स्टडी ब्रेक के रूप में भी काम करता है। तनाव कम करने के साधन के रूप में पाठ्येतर गतिविधियाँ मान लीजिए कि छात्र अपने अन्य कार्यों को निपटाते समय समय सीमा का सामना करते समय किस दबाव से गुजरते हैं। उनके लिए हमेशा यह सलाह दी जाती है कि वे थोड़ी राहत लें और उन गतिविधियों में शामिल हों जिनमें उन्हें रुचि है। इससे उन्हें शैक्षणिक तनाव से बहुत जरूरी आराम मिलेगा और न केवल तनाव से राहत मिलेगी बल्कि उनकी उत्पादकता भी बढ़ेगी और उन्हें अपना काम तेजी से पूरा करने में मदद मिलेगी। खेल और अन्य शारीरिक गतिविधियाँ लाभ प्रदान करने के लिए अच्छी तरह से पहचानी जाती हैं। जब हम व्यायाम करते हैं तो एंडोर्फिन नामक “फील-गुड” हार्मोन अधिक उत्पन्न होते हैं। वे तनाव को कम करने में सहायता करते हैं और बेहतर ऊर्जा स्तर में मदद करते हैं। बौद्धिक रूप से उत्तेजक पाठ्येतर गतिविधियाँ जैसे वाद-विवाद टीम में भाग लेना, समुदाय में स्वयंसेवा करना या थिएटर में शामिल होना मानसिक स्वास्थ्य पर महत्वपूर्ण प्रभाव डालता है। कौशल विकास और लचीले दिमाग को बढ़ावा देना जो छात्र पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेते हैं वे महत्वपूर्ण जीवन कौशल प्राप्त करते हैं जो उनके मानसिक कल्याण का समर्थन करते हैं। समय प्रबंधन, नेतृत्व, सहयोग और समस्या-समाधान कुछ ऐसी क्षमताएं हैं जो बच्चे इन गतिविधियों के माध्यम से हासिल करते हैं। जिन छात्रों में ये क्षमताएं होती हैं वे न केवल शैक्षणिक रूप से बेहतर प्रदर्शन करते हैं बल्कि जीवन के उतार-चढ़ाव के प्रति अधिक लचीले भी बनते हैं। पाठ्येतर गतिविधियों और शिक्षाविदों के बीच संतुलन खोजना आत्म-अनुशासन और समय प्रबंधन सिखाता है। विभिन्न दायित्वों को अच्छी तरह से प्रबंधित करने से लचीलापन और आत्म-आश्वासन को बढ़ावा मिलता है। उदाहरण के लिए, एक स्कूल के खेल में, एक बच्चा सीखता है कि दूसरों के साथ कैसे काम करना है, प्रदर्शन की चिंता का सामना करना है और रिहर्सल के तनाव को सहना है। इन अनुभवों से उत्पन्न बढ़ी हुई भावनात्मक बुद्धिमत्ता व्यक्ति को जीवन की बाधाओं पर अधिक नियंत्रण महसूस करने में मदद करती है। पारस्परिक बंधन और सहायता प्रणाली सामाजिक जुड़ाव के लिए अवसर की खिड़की जो पाठ्येतर गतिविधियाँ प्रदान करती है वह मानसिक स्वास्थ्य के लिए सबसे बड़े लाभों में से एक है। पाठ्येतर गतिविधियाँ एक ऐसी दुनिया में समुदाय की भावना प्रदान करती हैं जहाँ बहुत से युवा अकेलेपन और अलगाव का अनुभव करते हैं। एक टीम, क्लब या संगठन को अपने एक हिस्से के रूप में रखने से दोस्ती को बढ़ावा मिलता है और ठोस सामाजिक नेटवर्क बनता है। इन रिश्तों से भावनात्मक समर्थन मिलता है, जो कठिन समय में विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है। इसके अलावा, जो बच्चे पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेते हैं, वे अक्सर अपने बारे में अधिक आत्मविश्वास और अच्छा महसूस करते हैं। मानसिक भलाई में एक अन्य महत्वपूर्ण कारक सहकर्मी बातचीत है। छात्र दूसरों से मिल सकते हैंपाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेकर समान रुचियाँ साझा करें। ये सहकर्मी समूह छात्रों को एक सुरक्षित, स्वीकार्य वातावरण देते हैं जिसमें वे स्वतंत्र रूप से खुद को अभिव्यक्त कर सकते हैं। आत्म-सम्मान और आत्मविश्वास बढ़ाना आत्मविश्वास और आत्म-मूल्य के निर्माण के लिए पाठ्येतर गतिविधियों में भाग लेना आवश्यक है। जब छात्र नए कौशल सीखते हैं और पाठ्येतर गतिविधियों में सफल होते हैं तो उनमें उपलब्धि और व्यक्तिगत विकास की भावना होती है। नेतृत्व की स्थिति, सहयोगात्मक प्रयासों या कलात्मक अभिव्यक्ति के माध्यम से, पाठ्येतर गतिविधियाँ लोगों को बाधाओं पर विजय पाने, लचीलापन विकसित करने और उनकी प्रतिभा को पहचानने में सक्षम बनाती हैं। जो छात्र लगातार अपने लक्ष्यों को प्राप्त करते हैं उनमें आत्म-मूल्य की बेहतर भावना होती है और वे आत्मविश्वास के साथ नई चुनौतियों का सामना करने के लिए अधिक सक्षम होते हैं। उदाहरण के लिए, एक छात्र जो वाद-विवाद क्लब के लिए साइन अप करता है, उसे पहले दूसरों के सामने बोलने में कठिनाई हो सकती है। लेकिन लगातार भागीदारी, रचनात्मक आलोचना और प्रतियोगिताओं में छोटी जीत से, छात्र न केवल अपनी सार्वजनिक बोलने की क्षमताओं को बढ़ाते हैं बल्कि आत्म-मूल्य की गहरी भावना को भी बढ़ाते हैं। यह बढ़ा हुआ आत्म-आश्वासन सामाजिक स्थितियों और शैक्षणिक उपलब्धि में आगे बढ़ सकता है, यह दर्शाता है कि पाठ्येतर गतिविधियों में भागीदारी सभी पहलुओं में आत्म-सम्मान को कैसे बढ़ा सकती है। संक्षेप में, पाठ्येतर गतिविधियाँ कक्षा की माँगों से सकारात्मक आउटलेट प्रदान करने के अलावा छात्रों के मानसिक कल्याण में महत्वपूर्ण योगदान देती हैं। सामाजिक संपर्क, भावनात्मक मुक्ति और कौशल वृद्धि की सुविधा के माध्यम से, ये प्रयास एक व्यापक और लचीले व्यक्ति के विकास को बढ़ाते हैं। छात्रों को पाठ्येतर गतिविधियों में शामिल होने के लिए प्रोत्साहित करना शैक्षणिक सफलता के अलावा स्वस्थ मानसिक और भावनात्मक जीवन को बढ़ावा देता है। ऐसे समय में जब मानसिक स्वास्थ्य संबंधी चिंताएँ अधिक प्रचलित हो रही हैं, एक संपूर्ण, संतोषजनक शैक्षिक अनुभव को बढ़ावा देने के लिए पाठ्येतर गतिविधियाँ महत्वपूर्ण हैं।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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हर अंत एक नई शुरुआत
विजय गर्ग

हमारे इस जीवन का एक बड़ा हिस्सा स्वप्नों में ही समाया हुआ है, जो एक यात्रा है और हम इसमें एक भटके हुए यायावर हैं । हम अपनी आंखों में अपने सपनों की तलाश करते हैं, सजाते हैं, लेकिन कई बार वह तलाश कभी पूरी नहीं होती। जीवन में कोई एक मंजिल तय नहीं हो पाती और आंखें दूसरी मंजिल के सपने देखने लगती हैं । यह प्रकृति की एक जटिल संरचना है, एक अबूझ चक्र है, लेकिन शायद यही जीवन है । कहा जाता है कि वे आंखें ही क्या, जो सपने न देखें। दरअसल, यह कुछ आधी-अधूरी बात लगती है, क्योंकि सपने केवल नहीं देखने का मामला नहीं हैं, बल्कि इनका दायरा बहुत बड़ा है और जीवन रहने तक यह असीम है । प्रचलित और प्रत्यक्ष परिभाषा में आंखों को जिस रूप में देखा जाता है, उसके मुताबिक सोचें तो सपने इन आंखों पर निर्भर नहीं हैं । जो लोग दृष्टिबाधित होते हैं, सपने वे भी देखते हैं और इस अर्थ में स्वप्न एक सजीला शब्द है, जिसमें कितना कुछ निहित है ! सच यह है कि सपनों का तंत्र विचार से जुड़ा होता है, इसलिए जो भी मनुष्य जीवित है, वह सपने देखता है। यह संभव है कि वास्तविक जीवन में उपजी जरूरतें कई बार सपने बन रह रह जाएं। मगर इच्छाओं में बदल जाने वाले सपने कई बार जीवन का अहसास कराते हैं। समय के साथ मनुष्य के समाज का स्वरूप ठहरा नहीं रहा है, बल्कि विकसित हुआ है । उसमें सपनों को दुनिया में व्यक्ति के भीतर जिजीविषा भरने का एक श्रेष्ठ माध्यम माना गया है। शायद इसलिए कि जो इच्छाएं वास्तविक जीवन में पूरी होनी संभव नहीं होती, उन्हें कई बार सपनों में पूरा होते देख लिया जाता है। इसे आभासी सुख की तरह माना जा सकता है, लेकिन इन सपनों का महत्त्व इस रूप में देखा जाता रहा है कि ये जीवन यात्रा में कमजोर क्षणों में ऊर्जा भरने के काम आते हैं। नींद के सपनों को छोड़ दिया जाए तो खुली आंखों से देखे जाने वाले सपनों ने संसार का जीवन बदल दिया है।
कई लोग इस मुश्किल से दो-चार होते हैं कि उन्हें स्वप्न सोने नहीं देते, लेकिन दूसरी ओर नींद आती है, तो सपने भी आते हैं । समस्या तब खड़ी होती है, जब कोई ऐसा सपना आंखों में तैरने लगे, जिनके बारे में पता होता है कि उसके पूरा होने की कोई उम्मीद नहीं होती । तपती रेत की तरह जीवन और उसमें मृगमरीचिका की तरह के सपनों के रेगिस्तान के हम सभी पथिक हैं। शायद कभी सपने टूट कर बिखर जाएं तो संभव है, आंखें कुछ समय के लिए पथरा जाएं, यानी सोचने-समझने की प्रक्रिया में थोड़ी स्तब्धता आ जाए, लेकिन संसार में वीतरागी बन कर जीवन यात्रा पूरी नहीं होती । स्वप्नों के आकाश में सूनी आंखों में चमकते तारे उतरते हैं, मानो गहन अंधकार में कोई जुगनू का प्रकाश हुआ हो। जीवन में ऐसा भी समय आता है जब नकारात्मकता का बोध हावी हो जाता है । उस दौर में स्वप्नों की भी चाह नहीं रहती, जीवन उदासीन-सा लगता है, लेकिन फिर एक अपरिचित उम्मीद स्वप्न किरण की तरह मन के सूने द्वार पर दस्तक देती है और जीवन ज्योति फिर से जीवित हो उठती है । जीवन की पीड़ा में सपने मरुस्थल में जल के मानिंद होते हैं। हम उसी मृगतृष्णा में ताउम्र चलते रहते हैं । यही जीवन चक्र है ।
जीवन गतिशील है, वह कभी ठहरता नहीं । ठहरना इसकी प्रकृति में है भी नहीं । स्वप्न पूरे हों या न हों, स्वप्नों का आकाश हमेशा आंखों में जीवित रहना चाहिए, जिसमें ब्रह्मांड की तमाम आकाशगंगाओं का समावेश हो । कभी मनुष्य जीवन के दंशों से थका हारा स्वप्नों की चाह खो बैठता है और मृत्यु का आलिंगन करना चाहता है, तो ऐसा किसी बड़े स्वप्न के टूटने से भी हो सकता है। ऐसे समय में धैर्य रखने की जरूरत सबसे ज्यादा होती है। स्वप्नों के टूटने से जीवन की कश्ती डगमगा सकती है, लेकिन फिर धैर्य का मांझी नए स्वप्न दिखाता है, जिसमें हकीकत का स्पर्श होता है। संभव है कि कभी किसी बड़े आघात से जीवन की बगिया मुरझाने लगे, लेकिन अपने मन में आस का दीप सदैव ही प्रज्वलित रखना चाहिए, ताकि जरा भी निराशा मन को न घेरे । स्वप्न कभी अधूरे रह जा सकते हैं, क्योंकि संसार का संचालन केवल हमारे हाथों में नहीं है। हम अपने लिए जिम्मेदार हो सकते हैं और हमारी सीमा भी हो सकती है। मुमकिन है कि कभी अंधियारा इतना गहन हो कि दीप न दिखाई दे, लेकिन आस की जीवन- ज्योति जलानी ही चाहिए ।
हरिवंश राय ‘बच्चन’ की पंक्तियां हैं- ‘जो बीत गई, सो बात गई / सूखे पत्तों पर कब मधुबन शोक मानता है।’ यह सच भी है कि एक तारा अगर टूट जाए तो इससे फलक सूना नहीं हो जाता। इसी तरह किसी स्वप्न के टूटने से जीवन रुक नहीं जाता। उम्मीदों का आकाश सदैव बाहें पसारे खड़ा रहता है । बस जरूरत होती है हौसले को बनाए रखने की। जीवन में खत्म होने जैसा कुछ नहीं होता है। हर अंत एक नई शुरुआत है। एक मंजिल हासिल न हो, तो नए रास्ते खुलते हैं । बस जीवन से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए। स्वप्नों की चाह ही जीवन है । जीवन का कोई पड़ाव हो, सपने सजते रहने चाहिए। जो बुजुर्ग अपने जीवन के अंतिम चरण में होते हैं, वे भी सपने देखते हैं। सच यह है कि सपने जीवन के आभामंडल के इंद्रधनुषी रंग हैं, जो हमें भावनात्मक ऊर्जा तो देते ही हैं, साथ ही जीने की वजह भी बनते हैं ।
विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब
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उद्योगों से निकलकर अब घरों की शोभा बढ़ाएंगे रोबोट
विजय गर्ग

रेस्तरां में कॉफी बनाते और ड्रिंक डालते रोबोट अब जगह-जगह दिखने लगे हैं। स्वचालित व प्रतिक्रिया देने वाले रोबोट को हवाईअड्डों और मॉल में भी काम करते देखा जा सकता है। कुछ रेस्तरां तो ऐसे भी हैं, जहां रोबोट इस्तेमाल की गई प्लेटों को एकत्र करते हैं और उनको रसोई में ले जाते हैं। साफ है, तमाम आकार-प्रकार के रोबोट अब हमारे दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुके हैं। बावजूद इसके चलते-फिरते इंसानी रोबोट हमारे बीच आज भी आश्चर्य, उत्साह व विमर्श पैदा करते हैं।
‘टेस्ला ऑप्टिमस’ ऐसा ही एक रोबोट है, जिसे टेस्ला के संस्थापक एलन मस्क ने पिछले दिनों जारी किया है। इसने इंसानी रोबोट के प्रभाव व उपयोगिता को लेकर नई बहस छेड़ दी है। मस्क ने रोजमर्रा के कामों के लिए भी रोबोट बनाने की घोषणा की है। साथ-साथ उन्होंने पूरी तरह से स्वचालित कैब और वैन का भी प्रदर्शन किया, जो बिना स्टीयरिंग के चलेंगी। ये तीनों उत्पाद वैश्विक बाजार में व्यापक खपत को ध्यान में रखते हुए बनाए जाएंगे। वास्तव में, रोबोटिक उत्पादों का बाजार बीते कुछ वर्षों में काफी बढ़ा है। इसमें इंसानी रोबोट की मांग अधिक है। गोल्डमैन सैक्स की ‘ह्यूमनॉइड रोबोट : द एआई एक्सेलेरेंट’ रिपोर्ट तो यह भी बताती है कि यदि डिजाइन, उपयोग, प्रौद्योगिकी, सामर्थ्य और आम लोगों में स्वीकृति जैसी चुनौतियों से पार पा लिया जाए, तो 2035 तक यह बाजार 154 अरब डॉलर तक पहुंच सकता है ।
इंसान जैसे रोबोट अब कई वजहों से अधिक स्मार्ट, सस्ते व मानवीय बन गए हैं। सबसे बड़ा कारण तो इनमें लगने वाली मशीनों का दाम घटना है। फिर, लगातार धरती कृत्रिम बुद्धिमत्ता (एआई) ने कहीं अधिक प्रयोग करने की सुविधा दे दी है। गोल्डमैन सैक्स की रिपोर्ट कहती है कि पिछले साल एक इंसानी रोबोट को बनाने में 50 हजार डॉलर से 2.5 लाख डॉलर के बीच खर्च आता था, जो अब घटकर 30 हजार डॉलर से 1.5 लाख डॉलर के बीच हो गया है। लिहाजा आश्चर्य की बात नहीं कि मस्क ने ऑप्टिमस के जल्द ही 20 हजार डॉलर में उपलब्ध होने की घोषणा की है। ये रोबोट घर के कामों में मदद करेंगे, पौधों को पानी देंगे, खाना परोसेंगे और कई दूसरे काम करेंगे। रोबोट अब तक दुकानों और गोदामों तक ही सिमटे रहे हैं। लेकिन घरों में उनका यूं प्रवेश मानव समाज और अर्थव्यवस्थाओं के लिए एक क्रांतिकारी बदलाव लाने वाला साबित होगा ।
मॉर्गन स्टेनली का आकलन है कि वर्ष 2040 तक अमेरिका में 80 लाख इंसानी रोबोट काम कर रहे होंगे, जिससे वेतन पर 357 अरब डॉलर का प्रभाव पड़ेगा। वहीं, 2050 तक ऐसे रोबोट की संख्या 6.3 करोड़ हो सकती है, जो संभवतः 75 फीसदी व्यवसाय, 40 फीसदी कर्मचारी और करीब तीन ट्रिलियन वेतन प्रभावित करेंगे। अनुमान है, सिर्फ अमेरिका में निर्माण कार्यों के 70 फीसदी, खेती-बाड़ी, मछली मारने और वानिकी के 67 फीसदी काम प्रभावित हो सकते हैं। भारत में औद्योगिक रोबोट के इस्तेमाल में 59 फीसदी की वृद्धि हुई है। साल 2023 में 8,510 रोबोट काम कर रहे थे, जो इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ रोबोटिक्स के मुताबिक, एक नई ऊंचाई थी। कार निर्माताओं और आपूर्तिकर्ताओं, दोनों ने इसके विकास में योगदान दिया है। स्टैटिस्टा के मुताबिक, भारत में रोबोटिक्स बाजार का राजस्व साल 2024 में 44.67 करोड़ डॉलर तक पहुंच सकता है। सबसे ज्यादा जोर सर्विस देने वाले रोबोट पर है, जिससे इस साल 28.15 करोड़ डॉलर का राजस्व आ सकता है। इसकी आमदनी में 8.26 फीसदी की सालाना वृद्धि का अनुमान है, जिसके कारण 2029 तक यह बाजार 66.44 करोड़ डॉलर का हो सकता है। औद्योगिक रोबोट के बाद घरेलू रोबोट भी भारत में लोकप्रिय हो सकता है। ऐसे रोबोट की आमद बढ़ने से भारत और चीन जैसी अर्थव्यवस्थाएं प्रभावित हो सकती हैं और युवा आबादी वाले इन देशों को अपनी श्रम एवं रोजगार नीतियों पर पुनर्विचार करना पड़ सकता है।
ये रोबोट खतरनाक व गंदे कामों में फायदेमंद होंगे, हालांकि रचनात्मक लोगों के सामने इनसे चुनौतियां पैदा नहीं होंगी। कुल मिलाकर, इंसानी रोबोट हमारी अपेक्षा से कहीं अधिक तेजी से हमारे घरों में प्रवेश कर सकते हैं। भारत और अन्य देशों को इसके लिए तैयार रहना होगा।

विजय गर्ग सेवानिवृत्त प्रिंसिपल शैक्षिक स्तंभकार स्ट्रीट कौर चंद एमएचआर मलोट पंजाब

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*देश की राजधानी दिल्ली में गोप्रतिष्ठाध्वज की स्थापना की ज्योतिर्मठ के शंकराचार्य स्वामिश्रीः अविमुक्तेश्वरानंदः सरस्वती ‘१००८’ जी महाराज ने*

दिल्ली/वाराणसी 26.10.24
गोमाता को राष्ट्रमाता का दर्जा प्राप्त हो एतदर्थ पिछले एक महीने से हर प्रदेश की राजधानी में जाकर गोप्रतिष्ठाध्वज की स्थापना करते हुए सभी को गोमतदाता बनाने का संकल्प दिलाते जा रहे हैं । अभी तक 33 प्रदेश और तीन द्वीप में गोप्रतिष्ठाध्वज की स्थापना कर चुके शंकराचार्य जी महाराज ।
भगवान श्रीराम की तपोभूमि अयोध्या जी से आरम्भ हुई ये *गोध्वज स्थापना भारत यात्रा* आज दिल्ली के प्रीतमपुरा स्थित नरसिंह सेवा सदन में ध्वज की स्थापना हुई और शाह ऑडिटोरियम में आयोजित विशाल गोप्रतिष्ठा सभा को सम्बोधित करते हुए उपस्थित विशाल जनसमूह को सम्बोधित किया ।
सभा समापन के बाद शंकराचार्य जी महाराज अपने परिकरों संग वृन्दावन धाम की ओर प्रस्थान कर चुके हैं । शंकराचार्य जी महाराज कल प्रातः वृन्दावन के अधिष्ठाता भगवान बांके बिहारी जी के मंगलमय दर्शन करेंगे , साथ ही भगवान को महाछप्पन भोग और महाश्रृंगार अर्पित करके भगवान श्रीकृष्ण से गोप्रतिष्ठा की प्रार्थना करके इस आन्दोलन के नए चरण की घोषणा करेंगे।

उक्त जानकारी परमधर्माधीश ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य जी महाराज के मीडिया प्रभारी संजय पाण्डेय के माध्यम से प्राप्त हुई है।

प्रेषक
संजय पाण्डेय
मीडिया प्रभारी।
परमाराध्य परमधर्माधीश ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगदगुरु शंकराचार्य जी महाराज।

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