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सत्ता में बैठे फ़ासिस्ट ‍अपने असली काम में लगे हुए हैं मज़दूर साथियो, सावधान! श्रम क़ानूनों में बदलाव करके स्थायी रोज़गार को ख़त्म करने की दिशा में क़दम बढ़ा चुकी है सरकार

Pahado Ki Goonj

.आने वाले सभी 12 राज्‍य सरकारों के प्रतिनिधियों ने ‘‍फ़िक्‍स्‍ड टर्म नियुक्ति’ का समर्थन किया। तीन केंद्रीय यूनियनों – आरएसएस से जुड़े भारतीय मज़दूर संघ (बीएमएस), नेशनल फ्रंट ऑफ इंडियन ट्रेड यूनियन्‍स और ट्रेड यूनियन कोआर्डिनेशन सेंटर ने भी इस क़दम का समर्थन किया। मालिकों की एसोसिएशनों की ओर से तो समर्थन होना ही था। अन्‍य यूनियनों ने यह कहकर मीटिंग से वॉक आउट किया कि केन्‍द्रीय बजट में इस क़दम की घोषणा करने से पहले उनसे राय-मशविरा नहीं किया गया। इनमें वामपंथी यूनियनों सीटू और एटक भी शामिल थीं। यानी उनका कुल विरोध इस बात से था कि ऐसे घनघोर मज़दूर-विरोधी क़दम की घोषणा करने से पहले उनसे पूछा क्‍यों नहीं गया! ये दल्‍ले पिछले तीन दशक से यही करते रहे हैं। मज़दूरों को बहलाने-फुसलाने के लिए विरोध का झूठा नाटक, और फिर हर मज़दूर-विरोधी क़दम को आराम से लागू होने देना। एक-एक करके मज़दूरों के सारे अधिकार छीन लिये गये और ये बस रस्‍मी विरोध का झुनझुना ही बजाते रह गये।जैसाकि देखने में आया है, असन्‍तोष बढ़ने के डर से सरकारें ऐसे क़ानूनों को एक झटके में और तेज़ी से लागू नहीं करती हैं। पहले इसके पक्ष में माहौल बनाया जाता है, फिर वामपंथी यूनियनें या कुछ विपक्षी दल विरोध का शोर उठाते हैं तो उसे कुछ समय के लिए टाल दिया जाता है, या थोड़ा हल्‍का कर दिया जाता है। या फिर ऐसे क़दमों को टुकड़े-टुकड़े में, थोड़ा-थोड़ा करके लागू किया जाता है। ऐसे में छिटपुट कुछ विरोध होता है तो उसे आसानी से दबा दिया जाता है और कुछ वर्षों में वह मज़दूर-विरोधी क़दम एक सामान्‍य बात के तौर पर स्‍वीकृत हो जाता है। ठेका प्रळाा को बड़े पैमाने पर ऐसे ही लागू कराया गया है। इस रूप में भी ये नकली वामपंथी मज़दूरों के दुश्‍मन और इस व्‍यवस्‍था के रक्षक साबित होते हैं।

कहने की ज़रूरत नहीं कि पूँजीपतियों की तमाम संस्थाएँ और भाड़े के बुर्जुआ अर्थशास्त्री उछल-उछलकर सरकार के इन प्रस्तावित बदलावों का स्वागत कर रहे हैं और कह रहे हैं कि अर्थव्यवस्था में जोश भरने और रोज़गार पैदा करने का यही रास्ता है। कहा जा रहा है कि आज़ादी के तुरन्त बाद बनाये गये श्रम क़ानून विकास के रास्ते में बाधा हैं इसलिए इन्हें कचरे की पेटी में फेंक देना चाहिए और श्रम बाज़ारों को ‘’मुक्त’’ कर देना चाहिए। विश्व बैंक ने भी 2014 की एक रिपोर्ट में कह दिया था कि भारत में दुनिया के सबसे कठोर श्रम क़ानून हैं जिनके कारण यहाँ पर उद्योग व्यापार की तरक्की नहीं हो पा रही है। मोदी सरकार लगातार ‘’ईज़ ऑफ़ डूइंग बिज़नेस’’ के नाम पर उन क़ानूनों में बदलाव लाने पर ज़ोर दे रही है जिनके कारण मज़दूरों की छुट्टी करना कठिन होता है।

बुर्जुआ और संसदमार्गी वामपंथी दलों से जुड़ी यूनियनें मजदूरों के अतिसीमित आर्थिक हितों की हिफ़ाज़त के लिए भी सड़क पर उतरने की हिम्मत और ताक़त दुअन्नी-चवन्नी की सौदेबाजी करते-करते खो चुकी है। वैसे भी देश की कुल मज़दूर आबादी में 90 फीसदी से अधिक जो असंगठित मज़दूर हैं, उनमें इनकी मौजूदगी बस दिखावे भर की ही है। अब सफेद कॉलर वाले मजदूरों, कुलीन मजदूरों और सर्विस सेक्टर के मध्यवर्गीय कर्मचारियों के बीच ही इन यूनियनों का वास्तविक आधार बचा हुआ है और सच्चाई यह है कि ‍नवउदारवाद की मार जब समाज के इस संस्तर पर भी पड़ रही है तो ये यूनियनें इनकी माँगों को लेकर भी प्रभावी विरोध दर्ज करा पाने में अक्षम होती जा रही है। बहरहाल, रास्ता अब एक ही बचा है। गाँवों और शहरों की व्यापक मेहनतकश आबादी को सघन राजनीतिक कार्रवाइयों के जरिए, जीने के अधिकार सहित सभी जनवादी अधिकारों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से, उनके विशिष्ट पेशों की चौहद्दियों का अतिक्रमण करके, इलाकाई पैमाने पर संगठित करना होगा। दूसरे, अलग-अलग सेक्टरों की ऐसी पेशागत यूनियनें संगठित करनी होगी, जिसके अन्तर्गत ठेका मज़दूर और सभी श्रेणी के अनियमित मज़दूर मुख्य ताकत के तौर पर शामिल हों। पुराने ट्रेड यूनियन आन्दोलन के क्रान्तिकारी नवोन्मेष की सम्भावनाएँ अब अत्यधिक क्षीण हो चुकी हैं। अब एक नयी क्रान्तिकारी शुरुआत पर ही सारी आशाएँ टिकी हैं, चाहें इसका रास्ता जितना भी लम्बा और कठिन क्यों न हो।

नवउदारवाद के दौर ने स्वयं ऐसी वस्तुगत स्थितियाँ पैदा कर दी हैं कि मज़दूर वर्ग यदि अपने राजनीतिक अधिकारों के लिए नहीं लड़ेगा तो सीमित आर्थिक माँगों को भी लेकर नहीं लड़ पायेगा। मज़दूर क्रान्तियों की पराजय के बाद मज़दूर आबादी के अराजनीतिकीकरण की जो प्रवृति हावी हुई है, उसका प्रतिरोध करते हुए ऐसे हालात बनाने के लिए अब माकूल और मुफीद माहौल तैयार हुआ है कि मज़दूर वर्ग एक बार फिर नये सिरे से क्रान्तिकारी राजनीतिक चेतना के नये युग में प्रवेश करे। जाहिर है, यह अपने आप नहीं होगा। इसके लिए सर्वहारा क्रान्ति के विज्ञान और आज के नये हालात (यानी नवउदारवाद के दौर में पूँजीवाद की नयी कार्यप्रणाली) का गहन अध्ययन और जाँच-पड़ताल करके सर्वहारा क्रान्तिकारियों के नये दस्तों को मैदान में उतरना होगा। आगे का रास्ता निश्चय ही लम्बा और कठिन है, लेकिन विश्व पूँजीवाद का मौजूदा असमाधेय ढाँचागत संकट बता रहा है कि पूँजी और श्रम के बीच संघर्ष का अगला चक्र श्रम की शक्तियों की निर्णायक विजय की परिणति तक पहुँचेगा। ऐसी स्थिति में लम्बा और कठिन रास्ता होना लाजिमी है, लेकिन हजार मील लम्बे सफर ‍की शुरुआत भी तो एक छोटे से कदम से ही होती है।

पूँजीपतियों की लगातार कम होती मुनाफे़ की दर और ऊपर से आर्थिक संकट तथा मज़दूर वर्ग में बढ़ रहे बग़ावती सुर से निपटने के लिए पूँजीपतियों के पास आखि़री हथियार फासीवाद होता है। भारत के पूँजीपति वर्ग ने भी नरेन्द्र मोदी को सत्ता में पहुँचाकर अपने इसी हथियार को आज़माया है। फासीवादी सत्ता में आते तो मोटे तौर पर मध्यवर्ग (तथा कुछ हद तक मज़दूर वर्ग भी) के वोट के बूते पर हैं, लेकिन सत्ता में आते ही वह अपने मालिक बड़े पूँजीपतियों की सेवा में सरेआम जुट जाते हैं।

बात श्रम क़ानूनों को कमजोर करने तक ही नहीं रुकेगी, क्योंकि फासीवाद बड़ी पूँजी के रास्ते से हर तरह की रुकावट दूर करने पर आमादा होता है और यह सब वह ‘’राष्ट्रीय हितों’’ के नाम पर करता है। फासीवादी राजनीति पूँजीपतियों के लिए काम करने और उनका मुनाफ़ा बढ़ाने को इस तरह पेश करती है कि यही देश के लिए काम करना, देश को ‘’महान’’ बनाने के लिए काम करना है। इसके लिए सभी को बिना कोई सवाल-जवाब किये, बिना कोई हक़-अधिकार माँगे काम करना पड़ेगा। लोग अपनी तबाही-बर्बादी के बारे में सोचें नहीं, इसके विरोध में एकजुट होकर लड़ें नहीं, इसी मकसद से तरह-तरह के भावनात्मक मुद्दे भड़काये जाते हैं और धार्मिक बँटवारे किये जाते हैं। देश के मेहनतकशों को अपने अधिकारों पर इस खुली डकैती के ख़ि‍लाफ़ लड़ना है या आपस में एक-दूसरे का सिर फुटौवल करना है, यह फ़ैसला उन्हें अब करना ही होगा।

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