“गैरसैंण राजधानी न जाने से प्रदेश ही कोमा में चला गया”
भार्गव चन्दोला का कहना है कि उत्तराखंड की इस तरह दुर्गति न होती अगर गैरसैंण राजधानी होती।
2. शिक्षा, चिकित्सा, रोजगार के लिए बेतहासा #प्लायन न होता।
3. #पहाड़ों की संजीवनी समान खेती बंजर न होती।
4. पहाड़ों में घर खंडहर में तब्दील न होते।
5. #मैदानी कृषि भूमि पर कंक्रीट के जंगल खड़े न होते।
6. #देहरादून, #हरिद्वार, #उधमसिंहनगर, आदि मैदानी छेत्रों में अनावश्यक जनसँख्या का दबाव न बढ़ता।
7. सत्तासीन पार्टीयों के केंद्रीय दबाव के कारण बाहरी लोगों को सत्ता सुख भोगने उत्तराखंड न भेजा जाता।
8. उत्तराखंड में #माफ़िया राज न पनपता।
9. देहरादून में बैठकर #लोकसेवक, #जनसेवक, #बाबू आदि जनता के धन को कागजों में ही ठिकाने न लगाते।
10. पहाड़ों में स्थानीय उत्पादनों युक्त #औद्योगीकरण होता।
11. सरकारी कर्मचारी #डॉक्टर, #शिक्षक, #वनकर्मी, #इंजीनियर, #पटवारी, #डीएम, #एसडीएम्, #सीडीओ, #बीडीओ, #वीडीओ आदि पहाड़ों में अपनी जिम्मेदारी से गद्दारी कर देहरादून हरिद्वार की तरफ़ न भागते।
12. गांवों में #कृषि, #बागवानी, #पशुधन आदि के रोजगार पनपते।
13. प्रदेश के विकास के लिए योजना बनाने वाले लोकसेवक गैरसैण बैठते तो उन्हें गढ़वाल मंडल और कुमाऊँ मंडल का भौगोलिक ज्ञान होता फिर वो कारगर योजना बना पाते।
14. #एनजीओ/#ठेकेदार/#पत्रकार भी पहाड़ चढ़ते और देहरादून में बैठकर प्रदेश के विकास का जनधन कागजों में ठिकाने न लगाते।
15. #विधायक/#सांसद/#प्रधान/#छेत्रपंचायत/#ज़िलापंचायत/#नगरनिगम/#नगरपालिका/#नगरनिगम के प्रतिनिधि अपने छेत्रों के विकास कार्यों की जिम्मेदारी के साथ बेमानी कर देहरादून न जमे होते।
16. ग्राम विकास, सड़क, बिजली, पानी, शिक्षा, खेल से लेकर सचिवालय तक होने वाले घोटालों पर रोक लगती और प्रदेश का पर्यावरणीय संतुलित विकास होता।
क्या क्या बताऊँ क्या क्या खोया हमने इन 18 सालों में पर राज्य सरकार है कि आज भी प्रदेश को रफ़्तार के साथ विनाश की ओर लेजाने के अलावा कुछ सोचने को तैयार नहीं दिख रही है, मौजूद सरकार की लोकशाही/नेताशाही अब भी गैरसैंण को ईमानदारी से स्थाई राजधानी घोषित करवाये और देहरादून से टीन-टिपड़ा उठाकर गैरसैंण से राजधानी संचालित करे तो प्रदेश आईसीयू से बाहर आ सकता है।