#पलायन_के_सहचर
#पट्टी_दोगी_के_दिव्य_हिमालय_में_प्रवेश
#मृत्यु_सी_भयानक_संकरी_पगडंडी
आज बहुत दूर तक विकट रास्ते से चलना पड़ा। नीचे गधेरा गंगा बह रही थी, ऊपर पहाड़ खड़ा था। पहाड़ के निचले भाग में होकर चलने की संकरी सी पगडंडी थी। उसकी चौड़ाई मुश्किल से 3 फुट रही होगी। उसी पर होकर चलना था। पैर भी6उ इधर-उधर हो जाए तो नीचे गरजती हुई गंगा के गर्भ में जल समाधि लेने मैं कुछ देर न थी। जरा बचकर चलें, तो दूसरी ओर सैकड़ों फुट ऊंचा पर्वत सीधा तना खड़ा था । यह एक इंच भी अपनी जगह से हटने को तैयार न था। संकरी सी पगडंडी पर संभाल- संभाल कर एक – एक कदम रखना पड़ता था, क्योंकि जीवन और मृत्यु के बीच एक डेढ़ फुट का अंतर था।
मृत्यु का डर कैसा होता है उसका अनुभव जीवन में पहली बार हुआ। एक पौराणिक कथा सुनी थी कि राजा जनक ने सुखदेव जी को अपने कर्म योगी होने की स्थिति समझने के लिए तेल का भरा कटोरा हाथ में देखकर नगर के चारों ओर भ्रमण करते हुए वापस आने को कहा और साथ ही कह दिया था कि यदि एक बूंद भी तेल फैला तो वही गर्दन काट दी जाएगी। सुखदेव जी मृत्यु के डर से कटोरे से तेल न फैलने की सावधानी रखते हुए चले। सारा भ्रमण कर लिया पर उन्हें तेल के अतिरिक्त और कुछ न दिखा। जनक नेता उनसे कहा, कि जिस प्रकार मृत्यु के भय ने तेल की बूंद भी न फैलाने दी और सारा ध्यान कटोरे पर ही रखा, उसी प्रकार में भी मृत्यु भय को सदा ध्यान में रखता हूं , जिससे किसी कर्तव्य क्रम में न तो प्रमाद होता है और न मन व्यर्थ की बातों में भटक कर चंचल होता है।
इसी कथा का स्पष्ट और व्यक्तिगत अनुभव आज उस संकरे विकट रास्ते को पार करते हुए किया। हम लोग कई पथिक साथ थे। वैसे खूब हंसते – बोलते चलते थे, पर जहां वह संकरी पगडंडी आई की सभी चुप हो गए। बातचीत के सभी विषय समाप्त थे, न किसी को घर की याद आ रही थी और न किसी को अन्य विषय पर ध्यान था। चित् पूर्ण एकाग्र था और केवल यही एक प्रश्न पूरे मनोयोग के साथ चल रहा था कि अगला पैर ठीक जगह पर पड़े। एक हाथ में हम लोग पहाड़ को पकड़ते चलते थे, यद्यपि उसमें पकड़ने जैसी कोई चीज नहीं थी, तो भी इस आशा से कि यदि शरीर की झोंक नदी गंगा की तरफ झुकी तो संतुलन को ठीक रखने में पहाड़ को पकड़ – पकड़ कर चलने का उपक्रम कुछ न कुछ सहायक होगा। इन डेढ़-दो मील कि यह यात्रा बड़ी कठिनाई के साथ पूरी की। दिल हर घड़ी धड़कता रहा। जीवन को बचाने के लिए कितनी सावधानी की आवश्यकता है-यह पाठ क्रियात्मक रूप से आज ही पढ़ा।
यह विकट यात्रा पूरी हो गई, पर अब भी कई विचार उसके स्मरण के साथ-साथ उठ रहे हैं। सोचता हूं यदि हम सदा मृत्यु को निकट ही देखते रहे, तो व्यर्थ की बातों पर मन दौड़ाने वाले मृग तृष्णाओं के बीच से बच सकते हैं । जीवन लक्ष्य की यात्रा भी हमारी आज की यात्रा के समान ही है, जिससे हर कदम साध- साधकर रखा जाना जरूरी है। यदि एक भी कदम गलत या गफलत भरा उठ जाए , तो मानव जीवन के महान लक्ष्य से पतित वह कर हम एक अथाह गर्त में गिर सकते हैं। जीवन से हमें प्यार है, तो प्यार को चरितार्थ करने का एक ही तरीका है कि सही तरीके से अपने को चलते हुए इस संकरी पगडंडी से पार ले चलें, जहां से शांति पूर्वक यात्रा पर चल पड़े। मनुष्य जीवन ऐसा ही उत्तरदायित्वपूर्वक है, जैसा उस गंगा तट की खड़ी पगडंडियों पर चलने वालों का। उसे ठीक तरह निवाह देने पर ही संतोष की सांस ले सकें और यह आशा कर सके कि कुछ अभीष्ट तीर्थ के दर्शन कर सकेंगे। कर्तव्य पालन की पगडंडी ऐसी संकरी है; उसमें लापरवाही बरतने पर जीवन लक्ष्य के प्राप्त होने आशा कौन कर सकता है? धर्म के पहाड़ की दीवार की तरह पकड़कर चलने पर हम आपना यह संतुलन बनाए रख सकते हैं, जिससे खतरे की ओर झुक पडने का भय कम हो जाए। आड़े वक्त में इस दीवार का सहारा ही हमारे लिए हमारे लिए बहुत कुछ है। धर्म की आस्था भी लक्ष्य की मंजिल को ठीक तरह पार करने में बहुत कुछ सहायक मानी जाएगी।
उपरोक्त: कहानी का शीर्षक पट्टी दोगी क्षेत्र नरेंद्र नगर विधानसभा जनपद टिहरी गढ़वाल के मध्य हिमालय दिव्य हिमालय ग्राम पूर्वाला,मिण्डाथ,सस्मण,मुंडाला,नाई ,नसोगी, बुगाला, गंगलसी ,बड़ीर, कौड़ियाला के गंगा तट में पौराणिक मेला लगता है ,कुम्भ मेले क्षेत्र से कोई लाभ नहीं मिल रहा है, दर्जनों गांवों में आज नेटवर्क और टावर नहीं है। रोजगार देने के लिए सरकार ने अपना पक्ष रखा गया होता तो तो आज रोजगार देने वाले होते । आज इस क्षेत्र की खेती-बाड़ी जंगली जानवरों बंदरों सुअरो आदि से हिमालय की गोद यहां के जंगल गाड – गदेरे सकरी पगडंडी पहाड़ देवभूमि उत्तराखंड नदी नाले मां गंगे मुख्य शीर्षक के अंश। लेेेखक महावीर सिंह चौहान
माध्यमिक अतिथि शिक्षक टिहरी गढ़वाल