एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी की जीवन गाथा
पूज्यपाद अनन्तश्रीविभूषित उत्तराम्नाय ज्योतिष्पीठाधीश्वर एवं पश्चिमाम्नाय द्वारका शारदापीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज
जीवन परिचय
भारत की पवित्र तपोभूमि में वसुन्धरा ने समय-समय पर अनेक महान् पुरुषों को जन्म दिया है जिनसे स्वयं भारत और इसका प्राण सनातन वैदिक धर्म उत्तुंग हिमालय की तरह स्थिर व स्थित हैं।
धार्मिक अनुष्ठानों एवं अध्यात्मज्ञान के तत्त्वों का पोषक हमारा भारत संसार के समक्ष इतरदेशों की अपेक्षा अपना मस्तक ऊंचा किये हुए खड़ा है। ऐसे अध्यात्मराज्य के राजा महापुरुषों का आदर्श स्वीकार कर हमें अपने जीवन को उन्नत बनाना चाहिए।
ग्रन्थों को पढ़ने से भी न मिल पाने वाला अलभ्य ज्ञान संत महापुरुषों की सेवा से सहज ही प्राप्त हो जाता है, क्योंकि संतों का ज्ञान ही आचरण है। भगवान् आदि शङ्कराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों में से दो पीठों (शारदापीठ द्वारका एवं ज्योतिष्पीठ, बदरिकाश्रम) को सुशोभित करने वाले स्वामी श्री स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज जैसी दिव्य विभूति का संक्षिप्त परिचय दिया जाना छोटी सी नाव लेकर सागर को पार करने जैसी दुःसाहसी चेष्टा है..
जिसे महाकवि कालिदास ने उडुप-तितीर्षा कहा है। पर उनके चरणों में समर्पित हम भक्तों के लिए इसके अलावा कोई और चारा भी तो नहीं है कि हम अपने आराध्य की लीलाओं का अनुचिन्तन कर सके !
अपने मन के कामादि विकारों से कैसे लडें ?
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जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामी श्री स्वरूपानन्द सरस्वती जी महाराज करोड़ों सनातन हिन्दु धर्मावलम्बियों के प्रेरणापुंज और उनकी आस्था के ज्योतितस्तम्भ हैं; लेकिन इससे भी परे वे एक उदार मानवतावादी सन्त हैं। परमवीतराग, निःस्पृह और राष्ट्रीय भावनाओं से ओत-प्रोत एक परमहंस साधु, जिनके मन में दलितों-शोषितों के प्रति असीम करुणा है। उनके विषय में सम्पूर्णता के दावे के साथ कुछ भी लिख पाना किसी के लिए भी असम्भव है। आप जरा उनके जीवन पर, उनके कार्यों पर एक नजर तो डालिये, कहीं भी किसी तरह के अभाव का अनुभव, आपको नहीं होगा । अब इसे भला आप अभिव्यक्ति दे सकेंगे ? पूर्णता को अभिव्यक्त नहीं किया जा सकता । हाँ, असम्पूर्ण से उसकी ओर संकेत अवश्य किया जा सकता है। वैसे ही जैसे कोई अपने दोनों हाथ फैलाकर महाकाश के महत्त्व को अभिव्यक्त करे। आदि शंकराचार्य जी ने जो किया वह तब की परिस्थिति में असाधारण था आज समय वह नहीं है, परिस्थितियाँ भी वह नहीं है, फिर भी आदि शंकर के स्थान में प्रतिष्ठित होकर पूज्य श्रीचरणों ने जो कुछ किया वह उनके महिमामय सम्पूर्ण व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति के लिये पर्याप्त है
सिवनी के दिघोरी में हुआ था आविर्भाव
पूज्य महाराजश्री का जन्म संवत् 1980 के भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की तृतीया तिथि (तदनुसार 2 सितम्बर, 1924 ई.) के शुभ दिन भारत के हृदयस्थल माने जाने वाले मध्यप्रदेश के सिवनी जिले के दिघोरी गाँव में सनातन हिन्दू परम्परा के कुलीन ब्राह्मण परिवार में पिताश्री धनपति उपाध्याय एवं माता गिरिजा देवी के यहाँ हुआ। माता-पिता ने विद्वानों के आग्रह पर इनका नाम पोथीराम रखा। पोथी अर्थात् शास्त्र, मानो यह शास्त्रावतार हों । ऐसे संस्कारी परिवार में पूज्यश्री के संस्कारों को जागृत होते देर न लगी और मात्र नव वर्ष की
कोमल वय में आपने गृह त्याग कर धर्म यात्राएँ प्रारम्भ कर दीं। अध्ययन भारत के प्रत्येक प्रसिद्ध तीर्थों, स्थानों और संतो के दर्शन करते हुए आप काशी पहुँचे । वहाँ आपने पहले गाजीपुर की रामपुर पाठशाला में और फिर काशी आकर ब्रह्मलीन धर्मसम्राट् स्वामी करपात्री जी महाराज एवं स्वामी महेश्वरानन्द जी जैसे तल्लज विद्वानों से वेद-वेदांग, शास्त्र-पुराणेतिहास सहित स्मृति एवं न्याय ग्रन्थों का विधिवत् अनुशीलन किया और अपनी प्रतिभा और विद्या के बल पर स्वल्पकाल में ही विद्वानों में अग्रणी बन गए।
19 साल की उम्र में बन गए थे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी
स्वातन्त्र्य सेनानी यह वह काल था जब भारत को अंग्रेजों से मुक्त करवाने की लड़ाई चल रही थी। महाराजश्री भी इस पक्ष के थे, इसलिये जब 1942 में ‘अंग्रेजो भारत छोड़ो’ का घोष मुखरित हुआ तो महाराजश्री भी स्वतन्त्रता संग्राम में कूद पड़े और मात्र 19 वर्ष की अवस्था में ‘क्रांतिकारी साधु’ के रूप में प्रसिद्ध हुए। पूज्य श्रीचरणों को इसी सिलसिले में वाराणसी और मध्यप्रदेश की जेलों में क्रमशः 9 और 6 महीने की सजाएं भोगनी पड़ी। महापुरुषों की संकल्प शक्ति से 1947 में देश स्वतन्त्र हुआ । अब पूज्यश्री में तत्त्वज्ञान की उत्कण्ठा जागी ।
ज्योतिष पीठ के शंकराचार्य से ली थी दंड दीक्षा
दण्ड-सन्यास भारतीय इतिहास में एकता के प्रतीक सन्त श्रीमदादिशङ्कराचार्य द्वारा स्थापित अद्वैत मत को सर्वश्रेष्ठ जानकर, आज के विखण्डित समाज में पुनः शङ्कराचार्य के विचारों के प्रसार को आवश्यक जान और तत्त्वचिन्तन के अपने संकल्प की पूर्ति हेतु ईसवी सन् 1950 में ज्योतिष्पीठ के तत्कालीन शङ्कराचार्य स्वामी श्री ब्रह्मानन्द सरस्वती जी महाराज से विधिवत् दण्ड संन्यास दीक्षा लेकर आप ‘स्वामी स्वरूपानन्द सरस्वती’ नाम से प्रसिद्ध हुए।
राम राज्य परिषद का किया गठन
धार्मिक नेतृत्व जिस भारत की स्वतन्त्रता के लिए आपने संग्राम किया था, उसी भारत को आजादी के बाद भी अखण्ड, शान्त और सुखी न देखकर एवं भारत के नागरिकों को दैहिक, दैविक एवं भौतिक तापों से मुक्ति दिलाने हेतु पू. स्वामी करपात्री जी महाराज द्वारा स्थापित ‘रामराज्य परिषद्’ पार्टी के अध्यक्ष पद से सम्पूर्ण भारत में रामराज्य लाने का प्रयत्न किया और हिन्दुओं को उनके राजनैतिक अस्तित्व का बोध कराया ।
सर्वोच्च आचार्यत्व ज्योतिष्पीठ के शङ्कराचार्य स्वामी कृष्णबोधाश्रम जी महाराज के ब्रह्मलीन हो जाने पर सन् 1973 में द्वारकापीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी अभिनव सच्चिदानन्द तीर्थ जी महाराज एवं पुरीपीठ के तत्कालीन शङ्कराचार्य स्वामी निरंजनदेवतीर्थ जी महाराज, शृंगेरी पीठ के तत्कालीन शंकराचार्य स्वामी अभिनव विद्यातीर्थ जी महाराज के प्रतिनिधि सहित देश के तमाम संतों, विद्वानों द्वारा आप ज्योतिष्पीठ पर विधिवत अभिषिक्त हुए और ज्योतिष्पीठाधीश्वर जगद्गुरु शङ्कराचार्य के रूप में हिन्दू धर्म को अमूल्य संरक्षण देने लगे।
आदिवासियों के लिए की विश्व कल्याण आश्रम की स्थापना
विश्व कल्याणकृत् आपका संकल्प है ‘विश्व का कल्याण’ इसी शुभ भावना को मूर्तरूप देने के लिए आपने तत्कालीन बिहार अब झारखण्ड प्रान्त के सिंहभूम जिले में ‘विश्व कल्याण आश्रम की स्थापना की। जहाँ जंगल में रहने वाले आदिवासियों को भोजन, औषधि एवं रोजगार देकर उनके जीवन को उन्नत बनाने का प्रयास किया। सम्प्रति दो करोड़ की लागत से एक विशाल एवं आधुनिक अस्पलाल वहाँ निर्मित हो चुका है, जिससे क्षेत्र के तमाम गरीब आदिवासी लाभान्वित हो रहे हैं।
आध्यात्मिकोन्नतिदाता पूज्य महाराजश्री ने समस्त भारत की आध्यात्मिक उन्नति को ध्यान में रखकर ‘आध्यात्मिक उत्थान मण्डल’ नामक संस्था स्थापित की। जिसका मुख्यालय भारत के मध्यभाग में मध्यप्रदेश के नरसिंहपुर जिले के उस स्थान में रखा जहाँ के जंगलों में उन्होंने आरम्भ में उग्र तप किया था और अब जहाँ पूज्य महाराजश्री ने ही राजराजेश्वरी त्रिपुरसुन्दरी भगवती का विशाल मन्दिर बनाया है। सम्प्रति सारे देश में आध्यात्मिक उत्थान मण्डल की 1200 से अधिक शाखाएँ लोगों में आध्यात्मिक चेतना के जागरण एवं ज्ञान तथा भक्ति के प्रचार के लिये समर्पित है।
द्विपीठाधीश्वरत्व द्वारका-शारदापीठ के जगद्गुरु शङ्कराचार्य स्वामी श्री अभिनव सच्चिदानन्द तीर्थ जी महाराज के ब्रह्मलीन होने पर उनके इच्छापत्र के अनुसार 27 मई, 1982 ईसवी को आप द्वारकापीठ की गद्दी पर अभिषिक्त हुए और आदिशङ्कराचार्य द्वारा स्थापित चार पीठों की परम्परा में एक साथ दो पीठों पर विराजने वाले शङ्कराचार्य के रूप में प्रसिद्ध हुए। ध्यातव्य है कि द्वारका शारदापीठ के ब्रह्मलीन शंकराचार्य स्वामी अभिनव सच्चिदानन्दतीर्थजी ने अपने इच्छापत्र में पूज्य महाराजश्री को ‘आदर्श सन्यासी’, ‘शांकरपीठों की योग्यता का परम धारक’ और ‘ज्योतिष्पीठाधीश्वर के रूप में संबोधित किया था।
गौ रक्षा के लिए सदा रहे तत्पर
गोसेवाग्रणी सन् 1985 से 1988 तक गुजरात और राजस्थान में तीन वर्ष तक अकाल पड़ा, जिससे वहाँ का पशुधन विशेषकर गोवंश चारे के अभाव में समाप्तप्राय हो जाने की स्थिति में आ गया, तब पूज्य महाराजश्री ने 5 मालगाड़ियों से प्रभूत चारा देश के अन्य भागों से एकत्र कर भिजवाया था और स्वयं भी उन क्षेत्रों का महीनों तक दौरा कर लोगों को इस हेतु आगे आने को प्रेरित किया था। आपने गोरक्षा आन्दोलनों में भी निरन्तर भाग लिया और अनेक जेलयात्राएँ कीं । आपका एक भी ऐसा आश्रम नहीं है जिसमें किसी न किसी रूप में गोसेवा न हो रही हो ।
राम मंदिर के लिए किया विशेष आंदोलन
रामालयोद्धारक रामजन्मभूमि के प्रश्न पर पूज्यश्री ने हिन्दुओं की अस्मिता एवं धार्मिक अधिकारों को केन्द्र बनाकर ‘रामजन्मभूमि पुनरुद्धार समिति के तत्त्वावधान में एक आन्दोलन खड़ा किया। इसी प्रश्न पर पूज्य महाराजश्री को गिरफ्तार भी होना पड़ा और चुनार के किले में घोषित अस्थायी जेल में 9 दिनों तक निवास करना पड़ा। चित्रकूट, झोतेश्वर, काशी, अयोध्या और फतेहपुर के विराद साधु-महात्मा सम्मेलनों के द्वारा आपने राममन्दिर निर्माण के विचार को सन्त समाज का व्यापक समर्थन व ठोस आधार प्रदान किया ।
अन्ततः शृंगेरी में चतुष्पीठ सम्मेलन के द्वारा आपने इस चिन्तन को संकल्प के रूप में गठित कर सनातन धर्म के व्यापक समर्थन की आधार भूमि खड़ी कर
17 जून 2008 ई. को बदरीनाथ मंदिर प्रांगण में आयोजित अपनी अभिनन्दन सभा में महाराजश्री ने राष्ट्रव्यापी गंगा सेवा अभियान आरम्भ करने की घोषणा की। इसके बाद से महाराजश्री ने अपने लगभग सारे कार्यक्रम स्थगित कर दिए और गंगा के कार्य में लग गए ।https://youtu.be/IS4QXLzP1Ac
आन्दोलन पूरे देश में फैला और अनेक स्थानों पर प्रदर्शन होने लगे जिनमें हरिद्वार में 38 दिनों का आमरण अनशन और काशी का 112 दिनों का हिन्दू-मुस्लिम-सिख-ईसाइयों का धरना उल्लेखनीय हैं। प्रयागादि अनेक स्थानों पर गंगा सेवा अभियान की इकाइयों ने कार्य किया।
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गंगा को राष्ट्रीय नदी कराया घोषित
स्वयं पूज्य महाराजश्री प्रतिनिधि मंडल के साथ 16 अक्टूबर 2008 ई. को प्रधानमंत्री डा. मनमोहनसिंह जी से मिले और गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करने के साथ-साथ सहायकनदियों सहित अविरल और निर्मल बनाने का अनुरोध किया। यह महाराजश्री के तपोबल का प्रभाव था कि 4 नवम्बर 2008 ई. को माननीय प्रधानमंत्री जी ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित करते हुए गंगा घाटी प्राधिकरण बनाने की घोषणा की। आज भी महाराजश्री गंगा की अविरलता एवं निर्मलता हेतु प्रयत्नशील हैं।
रामसेतु परियोजना का किया विरोध
रामसेतुसंरक्षक सेतु समुद्रम परियोजना की पूर्ति हेतु त्रेतायुग में भगवान् श्रीरामचन्द्र द्वारा रामेश्वरम् से लंका जाने हेतु बनवाये गये महान सेतु को तोड़ने के समाचार मिलते ही महाराजश्री सक्रिय हुए और उन्होंने पूरे देश में श्रीसेतुबन्ध रामेश्वरम् रक्षा मंच का गठन कर तत्काल कार्य को रोकने का आह्वान किया। महाराजश्री ने इस हेतु
को बचाने के लिए
माननीय उच्चतम न्यायालय में याचिकाएं दायर करवाई और विशाल रैलियाँ आयोजित कीं।
पूज्य श्रीचरण का उपदेश
सुख अपने भीतर है, उसे भौतिक संसार में नहीं पाया जा सकता । कुत्ता हड्डियाँ चबाते हुए स्वयं के मसूड़ों से निकले खून को हड्डियों से निकला समझता है । कुत्ते को तो माफ किया जा सकता है। मनुष्य को ?