साइंटिफिक-एनालिसिस
पत्रकारों के महाकुम्भ में स्नान के बाद संवैधानिक चेहरा देने की मांग
26 फरवरी, 2025 को प्रयागराज उत्तरप्रदेश में महाकुम्भ के अन्तिम दिन पत्रकारों ने तिन नदियों के संगम में डुबकी लगा अपने पापों को धोते हुए अमृतकाल में अमृत्व प्राप्त करने के लिए मीटिंग करी ताकि भारतीय मीडीया को संवैधानिक चेहरा प्राप्त हो सके | इसके पश्चात् हर रोज दिन दुगुनी रात चौगुनी रफ्तार से राष्ट्र निर्माण व आम लोगों के अधिकारों की सुरक्षा में उत्पन्न हो रही बाधाओं, बाहुबली, अपराधीक, माफिया लोगों की सच्चाई उजागर करने पर हत्याएं, कार्य के दौरान कोई दुर्घटना व अप्रिय घटना हो जाने पर परिवार का बिखराव, सच सामने लाने पर फर्जी /गलत व परेशान और दबाव बनाने के लिए एफ.आई.आर. और अदालती मुकदमें, आर्थिक रूप से धनबल के आगे घुटने टेकते मीडिया संगठन, संस्थाए व प्रकाशक, आजकल बिक चुके बिना अक्कल वालों के झुंड द्वारा सोशियल मीडिया में झूठी जानकारी, छेड़छाड़ व गढी हुई तस्वीरें, अपशब्दों वाली टिप्पणीयों के वायरल होने से मानसिक उत्पीड़न कम हो सके |
संवैधानिक चेहरे के अभाव में पत्रकार लोग अपने-आप को भारतीय नागरिक कह सकते हैं लेकिन तकनीकी, सैद्धान्तिक व कानूनी रूप से भारतीय-मीडिया नहीं कह सकते हैं। यह अपने आप में हर पत्रकार के मुंह पर व्यवस्था का तमाचा हैं। संगठनात्मक रूप से राष्ट्रिय तिरंगे को सलामी, शहीदों को श्रृद्धांजली, वर्ष में एक बार अपने ही प्लेटफार्म पर अपने ही द्वारा बनाया गया कार्यक्रम राष्ट्रीयता के रूप में नहीं रख सकते व दिखा सकते हैं। राष्ट्रिय चिह्न, राष्ट्रिय ध्वज, राष्ट्रिय प्रतिक का इस्तेमाल सिर्फ़ भारतीय-मीडीया के रूप में मीलता हैं जो हैं ही नही इसलिए सब अपने-अपने लोगों व प्रतिक को लेकर चलने तक सीमीत हैं | देशभर में बोले जाने वाले करीबन 250 से ज्यादा मीडिया के संगठन मौजूद हैं जो एक साथ एक दिन एक राष्ट्रिय पत्रकारिता दिवस का कार्यक्रम तक नहीं बना सकते हैं |
भारतीय-मीडिया के संवैधानिक चेहरे के अभाव में सभी पत्रकारों को किसी तरह का आर्थिक सहयोग व संरक्षण भारत-सरकार से नहीं मीलता हैं | जो मीलता हैं वो चाहे पेंशन के रूप में ही क्यों ना हो वह कार्यपालिका से मीलता हैं, जो उसके अधीन व उसके लिए काम करने के रूप में मिलता हैं | भारत-सरकार का पैसा मीडिया के संवैधानिक चेहरे के अभाव में सीधा न आकर कार्यपालिका के पास मध्यस्थ के रूप में जाता हैं फिर निर्धारित पत्रकारों में न कि सभी में बंट जाता है। इसलिए कार्यपालिका की शर्ते माननी पड़ती हैं व उसके अनुसार खबरों को प्राथमिकता देनी पडती हैं | मीडिया कम्पनीयों में कार्यरत पत्रकारों को जो पेंशन मिलती है वो सिर्फ कम्पनी कानून के अन्तर्गत मीलता हैं | पत्रकारों के संगठन अपने ही साथियों से सदस्यता शुल्क, सेमिनार व कार्यक्रम रजिस्ट्रैशन फीस और सहयोग राशि से चलते है | फन्डिग व स्पोन्सर बाजारवाद के युग में कितने दुध के धुले है वो आपको अच्छे से पता है।
भारतीय-मीडिया को लोकतन्त्र का चौथा स्तम्भ सिर्फ बोला जाता हैं जबकि जमीनी धरातल पर यह सफेद झूठ और जानकारीया लेने व अपना काम निकालने के लिए इनको झाड के पेड पर चढाकर मौत के मुंह में धकेलने का जुबानी शौरगूल का गुब्बार हैं | सभी से सवाल पूछने के कर्तव्य व अधिकार वाले पत्रकारिता पेशे में जब सामने वाला पलट कर एक सवाल पूछ ले तो सभी पत्रकारों को दिन में तारे नजर आने लगते हैं और पत्रकारों की हालत बम धमाके में बदहवास हुये व्यक्ति जैसी होती हैं मानो इस एक सवाल के रूप में गर्म सूई को जुबानी शौरगूल वाले चौथे स्तम्भ के गुब्बार में घुसा दिया हो | शिक्षा, आत्मविश्वास, कर्त्तव्यपरायणता, निष्ठा, नैतिकता, पत्रकारिता धर्म मार्ग, सत्य पर चलने का मार्ग, राष्ट्र के प्रति समर्पण जब लहुलूहान हो जाते हैं तो पत्रकारों को सामने वाले की हां में हां मिलाते हुए व उल्टा उसकी चापलूसी वाली वाहवाही करते हुए उल्टे पैर दुम दबाकर नौ दो ग्यारह होना पडता है। यह सवाल हैं विधायिका वाले स्तम्भ का चेहरा संसद हैं, कार्यपालिका का प्रधानमंत्री कार्यालय हैं, न्यायपालिका का उच्चतम न्यायालय हैं तो मीडिया का कौनसा हैं। इसलिए भारतीय-मीडिया और उसका संवैधानिक चेहरा अतिशीघ्र प्राप्त करना जरूरी हो गया है।
वर्तमान में मीडिया की हालत इतनी दयनीय हो गई हैं कि उसे हर रोज अपने एक पत्रकार को बली चढने के लिए भेजना पडता हैं ताकि सभी का पेट भर सके व खबरें दिखाने का धन्धा/दुकान चलती रहें और जनता की नजरों में तीस मार खां बनकर उसकी परेशानीयों व हुये अन्याय को भारत-सरकार तक पहुंचाकर खत्म करने व न्याय दिलाने का दम भर सके | हर पत्रकार दिल से जानता व दिमाग से समझता है कि उसकी हर खबर अगले दिन अखबार की रद्दी और चैनल पर मनोरंजन का माध्यम बनकर खत्म हो जायेगी क्योंकि मीडिया के संवैधानिक चेहरे के अभाव में वो कोई कानूनी प्रक्रिया शुरू नहीं करवा सकती हैं, यदि किसी का रहम, अहसान हो जाये तो कुछ बात बन जाती हैं |
कोई भी बडे पद पर बैठा व्यक्ति पूरी मीडिया पर बडी टिप्पणी कर दे उस पर घिनौना लांछन लगा दे, अपराधी बता दे तब भी हर पत्रकार को उसे खून की घूंट पीकर बर्दास्त करना पडता हैं क्योंकि मीडिया के संवैधानिक चेहरे के अभाव में एक व्यक्ति सभी की तरफ से जवाब देने वाला नहीं होता, जो देते हैं उन्हें छोटा-मोटा बताकर साईडलाईन कर दिया जाता हैं। उनके बयान को सभी मीडिया एक राष्ट्रीय रूप से एक साथ प्रकाशित व प्रसारित करके भी नहीं बता सकती हैं | सभी पत्रकारों को जीवन सुरक्षा, कानूनी संरक्षण के अभाव में हत्या हो जाने का अहसास होने पर भी अपने एक साथी को भेजना पडता हैं | जब उसकी हत्या हो जाये तब सभी विडियो, खबर बनाकर छापते हैं, अपने-अपने सोशियल मीडिया प्लेटफार्म पर लगाते हैं, गरज के चिल्लाचोट करके धरती-आसमान एक कर देते हैं ताकि मोनेटाइज आप्शन से दो पैसे की कमाई हो जाये | संवैधानिक चेहरे के अभाव में परिस्थितियां, नियम-कायदे व व्यवस्था तो बदल कर हत्या होने से पहले बचा नहीं सकते बस अगले दिन किसी और पत्रकार को भेजना पडता है।