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भारत में प्रेस की आजादी अपने सबसे खराब दौर में है

Pahado Ki Goonj

नई दिल्ली। भारत में प्रेस की आजादी अपने सबसे खराब दौर में है। हालत यह है कि अफगानिस्तान जैसे गृहयुद्ध और आतंकवाद के शिकार देश भी प्रेस की आजादी में हमसे आगे हैं।

एक बड़ी शर्मनाक बात यह है कि मेनस्ट्रीम मीडिया का बड़ा हिस्सा सरकार का पक्षधर बन गया है। सरकार और इससे जुड़े लोगों के गलत फैसलों और वक्तव्यों का भी मेनस्ट्रीम मीडिया का बहुलांश कुतर्कों के साथ समर्थन करता है। महानगरों से लेकर कस्बाई स्तर तक ऐसे पत्रकारों की संख्या बढ़ गई है जो तर्क और तथ्यों को एक ओर रख सरकार और सत्तारूढ़ दल के लोगों के हर कदम के पक्ष में दलीलें देते हैं। स्वतंत्र पत्रकारों के संगठन रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स ने अपनी वार्षिक रिपोर्ट में प्रेस की आजादी के मामले में जहां नॉर्वे को पहले और स्वीडन एवं फिनलैंड को दूसरे और तीसरे स्थान पर रखा है, वहीं भारत वर्ष 2016 के अपने 133वें स्थान से और तीन स्थान नीचे लुढ़क कर 136वें स्थान पर पहुंच गया है. विडंबना यह है कि अफगानिस्तान, फलस्तीन, युगांडा और अल्जीरिया जैसे देश भी प्रेस की आजादी के मामले में भारत से आगे हैं. इस संगठन ने भारत की इस स्थिति के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में बनते जा रहे हालात को जिम्मेदार ठहराया है.
हर साल 3 मई को दुनिया भर में विश्व प्रेस आजादी दिवस मनाया जाता है. इस दिन इस बात का जायजा लिया जाता है कि प्रेस – जिसमें अब फेसबुक और ट्विटर समेत समूचा सोशल मीडिया भी शामिल माना जाता है – की आजादी को किस किस्म के खतरों और चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, मीडिया पर हमलों का किस तरह सामना किया जा सकता है और मीडिया की आजादी को कैसे सुनिश्चित किया जा सकता है. पिछले कुछ वर्षों के भीतर भारत में मीडिया के सामने खतरे और चुनौतियां आशातीत ढंग से बढ़े हैं. मीडिया पर नजर रखने वाले संगठन हूट ने अपनी एक रिपोर्ट में लिखा है कि पिछले सोलह महीनों में भारत में पत्रकारों पर 54 हमले हुए हैं और हमलावर मुख्यतः वे लोग हैं जिनकी जिम्मेदारी कानून बनाने और कानून को लागू करने की है. यानि हमलावर ज्यादातर विधायक, सांसद, पुलिस और उसके जैसी अन्य एजेंसियां हैं. खोजी पत्रकारिता अधिक से अधिक जोखिम भरी होती जा रही है और भ्रष्टाचार के बारे में रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों पर हमले बढ़ते जा रहे हैं. राजनीतिक पार्टियों के कार्यकर्ता, पुलिस और मीडिया रिपोर्टिंग का विरोध करने वाली भीड़ अक्सर इन हमलों में शामिल होते हैं.
कश्मीर में दो अखबारों के प्रिंटिंग प्रेस को बंद करना, इंटरनेट पर पाबंदी लगाना और सोशल मीडिया पर सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी का विरोध करने वालों के खिलाफ सुनियोजित अभियान छेड़कर उन्हें गाली-गलौज और धमकी देना भी इसी रुझान को अभिव्यक्त करते हैं. राष्ट्रवाद और सेना के समर्थन को सरकार विरोधियों का मुंह बंद करने और उन पर देशद्रोह और राजद्रोह का आरोप लगाने की प्रवृत्ति भी बढ़ती जा रही है. लेकिन इसी के साथ यह भी एक हकीकत है कि स्वयं मीडिया का एक बड़ा हिस्सा पेशेवर आचरण और पत्रकारिता के बुनियादी मूल्यों को ताक पर रखकर सरकार और सत्तारूढ़ पार्टी के एजेंट की तरह काम कर रहा है. अखबारों में झूठी खबरें छापना और टीवी चैनलों पर उन्हें लगातार कई कई दिनों तक प्रसारित करना, फर्जी फोटो छाप कर और नकली वीडियो दिखा कर लोगों और संगठनों को बदनाम करना अब आम बात हो गई है. जब इस तरह के झूठ का पर्दाफाश हो जाता है, तब भी ये अखबार या टीवी चैनल माफी मांगने की जरूरत नहीं समझते और अगली झूठी खबर की ओर बढ़ जाते हैं.
2016 की 8 नवंबर को हुई नोटबंदी के बाद एक प्रमुख टीवी चैनल ने कई दिन तक यह खबर दिखायी और जोर-शोर के साथ प्रचारित की कि नये नोटों में एक चिप लगी है जिसके जरिये काले धन का पता लगाया जा सकेगा. यह खबर पूरी तरह झूठी थी. पिछले साल जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के खिलाफ सुनियोजित ढंग से अभियान चलाया गया और पूरे विश्वविद्यालय को ही देशद्रोह का अड्डा घोषित कर दिया गया. टीवी चैनलों पर भारत-विरोधी नारे लगाते हुए लोगों के फर्जी वीडियो दिखाये गये. अभी हाल ही में कुछ अखबारों और टीवी चैनलों ने ऐसी तस्वीरें प्रसारित कीं, जिनमें इसी विश्वविद्यालय के छात्रों को खुशियां मनाते हुए दिखाया गया था. साथ ही यह आरोप लगाया गया कि ये छात्र छत्तीसगढ़ में माओवादियों द्वारा केंद्रीय आरक्षित पुलिस बल के जवानों को मारे जाने की खबर पर खुशियां मना रहे थे. लेकिन पता चला कि ये तस्वीरें 2015 में हुए छात्रसंघ चुनावों के नतीजे आने के बाद मनायी जा रही खुशी की थीं. ऐसी अनेक मिसालें दी जा सकती हैं जिनसे पता चलता है कि मीडिया अपनी नैतिक ऊंचाई खोता जा रहा है. जाहिर है कि इसके लिए पत्रकार कम, मीडिया संस्थानों के मालिक ज्यादा जिम्मेदार हैं क्योंकि पत्रकार तो उन्हीं के द्वारा निर्धारित नीतियों पर अमल करते हैं.
सोशल मीडिया भी झूठी खबरें और अफवाहें फैलाने का माध्यम बन गया है. सांप्रदायिक तनाव पैदा करने और दंगे भड़काने में भी इसकी भूमिका बढ़ती जा रही है. मीडिया न तो स्वयं अपना नियमन कर रहा है और न ही कोई और संस्था उसका नियमन करने के लिए बनी है. भारतीय प्रेस परिषद कुछ सीमा तक यह भूमिका निभा सकती है लेकिन उसके पास केवल सिफारिश करने का अधिकार है, किसी अखबार या टीवी चैनल को दंडित करने का नहीं. इसे विडम्बना ही कहा जाएगा कि भारत में सरकार की ओर से मीडिया पर प्रतिबंध कम हैं, लेकिन मीडिया खुद ही अपने आचरण से अपनी आजादी खोता जा रहा है. यह बेहद खतरनाक स्थिति है और लोकतंत्र की जड़ें कमजोर करने वाली है.

 

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