साइंटिफिक-एनालिसिस
संविधान व लोकतन्त्र की कसौटी पर परखना बन्द करा सुप्रीम कोर्ट ने!
सबसे पहले नये संसद-भवन के उद्घाटन को टाल कर उसे उप-राष्ट्रपति के माध्यम से राष्ट्रीय ध्वज फहराकर राष्ट्र को समर्पित करने पर साइंटिफिक-एनालिसिस ने लिखा था कि संसद के केन्द्रीय भाग में संविधान की प्रति न रखकर उसे उच्चतम न्यायालय के सभागार में रखनी चाहिए क्योंकि संविधान पीठ के सभी पन्द्रह न्यायाधीशों को सामुहिक रूप से राष्ट्रपति के समान संविधान संरक्षक का दर्जा प्राप्त हैं। इसके घोर दुष्परिणाम अब नजर आने लगे हैं | सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश अब इसे पढकर किसी भी मामले को संविधान की कसौटी पर परखना भूलने लगे हैं | जब भी संविधान व लोकतंत्र से जुडी कोई भी बात सामने आती हैं, उसे ये मामले से ही साईड कर देते हैं और व्यक्तिगत आधार को सामने लाकर गांव-कस्बों की छोटी अदालतों की तरह फैसला सुनाने लगते हैं |
वर्तमान में दिल्ली के मुख्यमंत्री को चुनाव के दौरान कुछ दिनों के लिए सशर्त दी गई जमानत को व्याखित कर इस पूरे मामले पर प्रकाश डालते हैं। हम बात कर रहे हैं दिल्ली के मुख्यमंत्री की जो एक संवैधानिक पद हैं और संविधान की शपथ लेकर ही व्यक्ति इस पद से अपनी सेवाएं दे सकता है। यह व्यक्ति कौन हैं, किस राजनैतिक दल का हैं, इसके व्यक्तितव के बारे में किसने क्या कहां, प्रकाशित करा, दिखाया उससे हमें विज्ञान के सैद्धांतिक रूप से कोई मतलब नहीं हैं। उच्चतम न्यायालय को भी कोई मतलब नहीं होना चाहिए |
उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली के मुख्यमंत्री को अल्पकालीन जमानत देते हुए कहां कि लोकसभा का चुनाव चल रहा हैं, आरोपित व्यक्ति एक राजनैतिक दल का राष्ट्रीय संयोजक हैं, चुनावी प्रक्रिया लोकतन्त्र का मूल आधार हैं और संविधान में इसे समय पर कराने का प्रावधान निर्धारित कर रखा हैं | सभी कारण, तर्क, आधार, मर्यादा, नैतिकता, कानूनन, व्यक्तिवाद के ऊपर-नीचे व संविधान और लोकतन्त्र शब्दों के आगे-पीछे करके मूल बातों को रफा-दफा कर दिया | देश व दुनिया यह जनता यह जानना चाहती थी कि किसी पदासिन मुख्यमंत्री को जेल में रखना और जांच के नाम पर कब तक रखे रखना संविधान के अनुसार सही हैं। चुनाव एक के बाद एक संविधान के नियम व लोकतंत्र की गरिमा के रूप में चलते रहते हैं | चुनाव में कई प्रत्याशी भाग लेते हैं, उसमे से एक को जनता श्रेत्र-विशेष के आधार पर चुनकर भेजती है | ऐसे कई प्रत्याशी मीलकर एक समूह का निर्माण करते हैं। इस समूह के कई सदस्यों में से किसी एक का चयन होता हैं तब जाकर वो मुख्यमंत्री जैसे संवैधानिक पद की शपथ संविधान को साक्षी मानकर लेने का योग्य होता हैं | यहाँ बात हैं संविधान को साक्षी मानकर उसके निर्वाह की शपथ की न की उनके नियमों के आधार पर चुनाव लडने व लडवाने की छोटी सी बात की |
इस मामले की कानूनी बहस में प्रवर्तन निर्देशालय (ईडी) ने तर्क दिया कि चुनावी प्रक्रिया में भाग लेना कोई मौलिक अधिकार नहीं हैं। यहाँ भी व्यक्तिवाद को घुसा दिया क्योंकि मौलिक अधिकार हर देशवासी के लिए होते हैँ जबकि यह मामला संविधान की शपथ लिये हुए संवैधानिक पद पर कार्यरत व्यक्ति का हैं | इस आधार पर तो भारत के मुख्य न्यायाधीश को भी ईडी जांच के नाम पर जेल में लम्बे समय तक डाल सकती हैं क्योंकि शपथ का कोई अर्थ नहीं हैं और वे चुनाव लडते नही है | अदालत ने जमानत दी उसमें यह शर्त रखी की वे अपने मुख्यमंत्री आफिस व उसके कार्यों से दूर रहेंगे | इससे तो ऐसा प्रतित होता हैं कि उच्चतम न्यायालय भी किसी सरकार को बन्दी या पंगु बनाने व संविधान की शपथ को एक मामूली सी दिखावटी प्रक्रिया बनाने के असंवैधानिक कार्य में प्रमुख भागीदार हैं।
राष्ट्रपति के संवैधानिक पद के साथ उन पर कोई भी मामला दर्ज न होंने व अदालत में कानूनी प्रक्रिया न चलाने का प्रावधान हैं | इसी तरह मुख्यमंत्री के संवैधानिक पद की शपथ में कोई तो गरिमा व प्रावधान होंगे | यदि संविधान में ऐसा नहीं हैं तो उच्चतम न्यायालय को यह मामला संविधान पीठ में प्रावधान तय करने के लिए भेजना चाहिए ताकि आये दिन किसी न किसी मुख्यमंत्री का मामला हर रोज सुनवाई के लिए खड़ा न हो व लोकतंत्र में लोगो की सरकार के काम जेल की कोठरी के अंधेरों में ना धकेला जा सके | यदि मुख्यमंत्री के खिलाफ जांच में कोई प्रमाण हैं तो वे उसे संवैधानिक पद से बर्खास्त कर दे | जब राज्य का हाईकोर्ट राष्ट्रपति शासन को पलट सकता हैं तो उच्चतम न्यायालय इससे मुंह छिपाकर पतली गली से क्यों भाग रहा हैं | यहां दाल में काला नहीं पूरी दाल ही काली होने का संकेत जनता के बिच जा रहा हैं |
किसी मुख्यमंत्री व उसकी सरकार को बर्खास्त करने के नियम-कायदे संविधान में स्पष्ट रूप से बताये गये हैं। इसके बावजूद भी यह मामला आने पर अदालत संविधान के अनुसार उसे परखती नहीं राज्यपाल पर टाल देती हैं | राज्यपाल, प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति तो शायद यह समझते हैं कि संविधान सिर्फ शपथ लेने व कुर्सी और ताकत पाने का जरिया हैं उसके निर्वाह व गरिमा बनाये रखने का काम उनका नहीं हैं | संविधान के नियमों के आधार पर भी ये लोग मुख्यमंत्री को बर्खास्त नहीं कर पा रहे हैं | यह सारी समस्या शुरू से नहीं अपितु प्रवर्तन निर्देशालय को दिये अतिरिक्त कानूनी अधिकार देने के बाद से शुरू हुई हैं | ये अधिकार संविधान के दूसरे कानूनों और प्रावधानों के साथ कोई समन्वय नहीं बना पा रहे हैं | इस कारण सामान्य तौर पर उन कानूनों की समीक्षा करना उच्चतम न्यायालय की जवाबदेही हो जाती हैं | यदि मामले से सम्बन्धित न्यायाधीश उस पर कुछ नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें इस समीक्षा को संविधान पीठ में भेजकर अपना कर्तव्य निभाना चाहिए | यदि सुप्रीम कोर्ट अपने फैसलों में मामलों को संविधान के अनुसार व्याख्या नहीं करेगी तो फिर वह भारत राष्ट्र की सर्वोच्च न्यायालय होने का गौरव कैसे बनाये रख पायेगी |
शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक