समय – समय होता है उसे समझने के लिए भूत, वर्तमान व भविष्य में बाँट सकते है परन्तु जीवन के बढ़ते क्रम में सूर्य के प्रकाश से बनते दिन – रात के चक्र में एक स्थान पर रुक एक ग्रन्थ / धर्म / मान्यता / विचार / सभ्यता / व्यवस्था / जीने-मरने के तरीको को निर्धारित कर उसे आधार मानकर खीचते चले जायेगे तो परिणाम यही होगा की समय तो नहीं रुकेगा परन्तु वह बढ़ते वैचारिक, सामाजिक, व्यवस्था के विकास में उलझाकर आगे निकल जायेगा ।
भारत में आदर्श समाज के विकास हेतु पहले यहाँ के जातिवाद के तरीकों को समझना पड़ेगा फिर उनमें बने समन्वय को क्योकि इनके आधार पर ही वर्तमान में पुरे समाज का ढाँचा बना व टिका है |
आज की “सहिष्णुता और असहिष्णुता” वाली राष्ट्र व्यापी बहस भी इन जातिगत समीकरणों के गणितीय योग का एक नैतिक मल्यांकन कम राजनैतिक मूल्यांकन ज्यादा है | हिन्दू, मुस्लमान, जैन, सिख, फ़ारसी, ईसाई, बौद्ध आदि धर्मो के लोग किसी न किसी धार्मिक मुद्दे पर अपना रोष प्रकट करने के लिए सड़को पर निकल रहे है | इसे साधारण तौर पर किसी अन्य धर्म/ नेता/जाति/सरकारी लाभकारी आदेश का प्रतिउत्तर समझा जाता है परन्तु इन सभी का मूल कारण उस समय की परिस्थितियों को समझे बिना आज के समय पर वैसा ही आकलन कर देना है |
धर्म, व्यवस्थायें, मान्यतायें इन समय के भँवरो में न उलझे इसके लिए एक स्थान पर रुक कर जो रचनाये करी जाती है उसमे आगे समावेश का मार्ग होंना जरुरी होता है वह भी स्वतंत्रता, नैतिकता, मौलिकता एवं तार्किकता के साथ |
पहले इन्सान अकेला रहता था इसलिए मन की जो मर्जी हुई वही कानून और संविधान होता था | इसके बाद परिवार के रूप में रहने लगा और जो बड़ा होता था वही निर्णायक व अंतिम फैसला करने वाला था | जब परिवारवाद में धन का माध्यम जुड़ने लगा तो अधिक कमाने वाला अपना निर्णय चलाने लगा परन्तु बड़े का सम्मान व कर्तव्य निभाने के लिए मेहनत का हक़ आज तक प्रत्येक परिवार में झगड़े व विवाद की जड़ है | जहा “वैज्ञानिक-विश्लेषण” यानि तार्किक आधार पर मामले लिए जाते है वो ही परिवार सुखी है और आगे सही मार्ग पर बढ़ रहा है |
इससे आगे कबीले, गाँव, प्रदेश, राज्य व देश बने और एक जैसे खाने, पीने, रहने व जीने के तरीको से समाज बना और पिछले लोगो के जीवन के अनुभवों व ज्ञान से आगे भविष्य में सही मार्ग पर बढ़ने की ईच्छा व समझ से कानून व दायरे बने जिन्होंने सही व गलत के निर्धारण में “धर्म” को जन्म दिया | इस प्रकार आगे बढ़कर कई धर्म के समन्वय से व्यवस्था का उदभव हुआ |
हज़ारो वर्षो पूर्व सामाजिक व क़ानूनी व्यवस्थाये धर्म आधारित चला करती थी | धर्म कोई भी हो वह भगवान, मोक्ष, मुक्ति, पूजा-पाठ, गलत-सही कर्म, पुनर्जन्म, पूर्व की महान आत्माओ से मिलन के आधार पर सारे निर्णय तय होते थे |
समय आगे बढ़ गया और व्यवस्थाएँ धार्मिकता से आगे निकल राजाओ के दौर से गुजर, लोकतान्त्रिक परिपेक्ष में आ गई व कानूनो, अदालतों, सविधानो, वैचारिक संयोजनों व सिरो की संख्याओ की गिनती पर चल रही है |
हिन्दू राष्ट्र, मुस्लिम देश, राष्ट्र धर्म ईसाई, जैन-शासन, इस्लामिकवाद, बौद्ध मार्ग, यहूदी राज आदि-आदि भूतकाल बन चुके है जिन्हे पढ़ व समझकर सिर्फ इन्सानों के विकास का ज्ञान लेना चाहिए और आगे बढ़ना चाहिये न की वर्तमान में एक-दूसरे पर थोपना चाहिए और पुरानी सोच के आधार पर दूसरे धर्मो की कमी निकालना चाहिए | तर्क और आज के समय के अनुसार गलती निकालना गलत नहीं व दुसरो के बताने पर पुराने पर टिके रहना व अपनो में बदलाव न लाना संकुचित मानसिकता का उदहारण है जो कट्टरता, द्वेष, लड़ाई-झगड़े, मारकाट, हत्याए, दंगो की तरफ धकेलता है |
गौ-हत्या, शाकाहार-मांसाहार, मंदिर-मज्जिद विवाद, जानवरो की क़ुरबानी, टीपू सुल्तान विवाद, धर्म-गुरुओ, देवताओ की नई-नई जीवनी लिखने, धार्मिक पुस्तको के आधार पर आदेश इत्यादि इसी धर्म आधारित व्यवस्था से आगे न सोचने का मूल कारण है | अच्छे भविष्य के लिए सबसे पहले समय की क़द्र करनी पड़ेगी और सारे पहलुओ के आधार पर लोकतंत्र वाली व्यवस्था को प्रभावी रूप से मानना पड़ेगा ।
आज का वर्तमान सवाल पुछाने के दौर व प्रश्न के जवाब में प्रश्न पूछ लेने और भूतकाल के उदाहरणों से अपने दामन को बचने से आगे निकल राष्ट्रीय संगठनों के निर्माण वाले दौर में आ गया है |
इसलिए किसी भी मुद्दे पर लोगो का संगठित होना विकास कि तरफ आगे बढ़ने का प्रतीक है | भारत में मुश्किल से ऎसे 200 से 300 ही संगठन बन पायेगे | जब ये संगठन किसी राष्ट्रीय मुद्दे पर एक हो गये तब “राष्ट्र” जीवित हो जायेगा | लोगो को सिर्फ़ इस संगठन निर्माण के दौर में भावनाओ में न बहकर आपसी हाथ-पैर तोड़ने वाली टक्कर से बचना होगा |
वर्तमान की लोकतांत्रिक व्यवस्था भी समय के ग्राफ में वर्षों पुरानी हो गई है व इसमें कई बुराईयाँ घर बना चुकी है | इसलिए आदर्श विकास हेतु इसे भी 50 से 100 वर्ष आगे का सोचकर विकसित करना पड़ेगा व धर्म आधारित व्यवस्था के कई जरूरी सिद्धांतों को एक कानूनी, वैचारिक, संवैधानिक अधिकार देकर इसके साथ कड़ी रूप में जोड़ना पड़ेगा ।
आज सबको पहले ये समझना होगा की कानून बना देना व्यवस्था नहीं होता है जबकि कानून बनाना स्वयम् व्यवस्था का एक हिस्सा है ……. तब जाकर भारत में आदर्श समाज व व्यवस्था के निर्माण कि ओर कदम बढा पायेगे अन्यथा विज्ञान तो कहता है हम व्यवस्था से अव्यवस्था की ओर बढ़ रहे है ।
शैलेन्द्र कुमार बिराणी
युवा वैज्ञानिक