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कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन आंवला नवमी  पर्व मनाया जाता है जानिये

Pahado Ki Goonj

आंवला नवमी के व्रत का फल प्राप्त करने के लिए108 लोगों को अवश्य शेयर कर इसका महात्म्य की जानकारी पहुंचा ने देर नहीं किजयेगा।

प्रतिवर्ष कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि के दिन आंवला नवमी  पर्व मनाया जाता है। इसका अन्य नाम ‘अक्षय नवमी’ ‘धात्री नवमी और कूष्मांड नवमी’ भी है।

इस बार यह पर्व 12 नवंबर 2021, शुक्रवार को मनाया जाएगा।

मान्यतानुसार इस दिन किया गया कोई भी शुभ कार्य अक्षय फल देता है अर्थात् उसके शुभ फल में कभी कमी नहीं आती। इसके धार्मिक महत्व के अनुसार आंवला नवमी के दिन ही द्वापर युग का प्रारंभ हुआ था और स्वयं भगवान श्री कृष्ण ने जन्म लिया था। वृंदावन की परिक्रमा का प्रारंभ भी इसी दिन से होता है।

*आंवला नवमी 2021 पूजन के शुभ मुहूर्त*-

दिनांक- 12 नवंबर, शुक्रवार।

इस बार नवमी तिथि का प्रारंभ दिन शुक्रवार, 12 नवंबर 2021 को सुबह 05.51 मिनट से होगा और शनिवार, 13 नवंबर 2021 को सुबह 05.30 मिनट तक नवमी रहेगी। पूजन का सबसे श्रेष्ठ और शुभ समय शुक्रवार के दिन 06.50 मिनट से दोपहर 12.10 मिनट तक रहेगा। इस दिन रवि योग शुक्रवार को दोपहर 02.54  से 13 नवंबर को सुबह 06.14 तक रहेगा। इस अवधि में पूजन करके इस दिन का लाभ लिया जा सकता है।

पूजन विधि-

राज्यान्दोलनकारी  भूक़ानून लागू करने के लिए दीनदयाल उपाध्याय पार्क में 23वें दिन अनशन पर बैठकर  ॐ नमो भगवते वासुदेवाय  जल्द से सरकार भूक़ानून बनाय के भजन करते हुए

 रोज प्रत्येक आंदोलन कारी इस पोस्ट को 216 लोगों तक पहुंचा कर अपने राज्य को बचाने में सहायक बने।अपने राज्य में प्यार प्रेम का बाताबरण बनाने के लिए बाहरी बुरे तत्वों की रोकथाम ही भूक़ानून है।गूगल आपकी मांग को 10 दिन में टॉप पर रखेगा।

[12/11, 7:18 pm] jeetmani painuli: ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भूक़ानून जल्दी बनाय
जय बद्रीविशाल
आपकी सेवा में वट्सप न0 7983825336

https://fb.watch/9eanYB4jFy/

[13/11, 2:28 am] jeetmani painuli: https://youtu.be/h4Bz1vP-UpY

[13/11, 2:28 am] jeetmani painuli: https://youtu.be/poYZ7e7Ia6o

आंवला नवमी के दिन दैनिक कार्यों से निवृत्त होकर स्नानादि करके स्वच्छ वस्त्र धारण करके पूजन की सभी सामग्री एकत्रित कर लें।

– अब आंवला वृक्ष के समीप जाएं।

– आंवला वृक्ष के आसपास की साफ-सफाई करें और वृक्ष की जड़ में जल अर्पित करके कच्चा दूध डालें।

 तत्पश्चात पूजन सामग्रियों से आंवला वृक्ष का पूजन करके उसके तने पर कच्चा सूत अथवा मौली 8 परिक्रमा करते हुए लपेटें। इस दिन कई स्थानों पर 108 परिक्रमा करने का भी प्रचलन है।

– अब कपूर अथवा घी का दीपक जलाकर आरती करें।

 आंवला नवमी कथा सुनें अथवा पढ़ें।

 इसके बाद सुख-समृद्धि की कामना करके वृक्ष के नीचे ही बैठकर भोजन करें।

आंवला नवमी कथा-

आंवल्या राजा की कथा- एक राजा था, उसका प्रण था वह रोज सवा मन आंवले दान करके ही खाना खाता था। इससे उसका नाम आंवलया राजा पड़ गया। एक दिन उसके बेटे बहू ने सोचा कि राजा इतने सारे आंवले रोजाना दान करते हैं, इस प्रकार तो एक दिन सारा खजाना खाली हो जायेगा। इसीलिए बेटे ने राजा से कहा की उसे इस तरह दान करना बंद कर देना चाहिए।
बेटे की बात सुनकर राजा को बहुत दुःख हुआ और राजा रानी महल छोड़कर बियाबान जंगल में जाकर बैठ गए। राजा-रानी आंवला दान नहीं कर पाए और प्रण के कारण कुछ खाया नहीं। जब भूखे प्यासे सात दिन हो गए तब भगवान ने सोचा कि यदि मैने इसका प्रण नहीं रखा और इसका सत नहीं रखा तो विश्वास चला जाएगा। इसलिए भगवान ने, जंगल में ही महल, राज्य और बाग-बगीचे सब बना दिए और ढेरों आंवले के पेड़ लगा दिए। सुबह राजा रानी उठे तो देखा की जंगल में उनके राज्य से भी दुगना राज्य बसा हुआ है।
राजा, रानी से कहने लगे- रानी देख कहते हैं, सत मत छोड़े। सूरमा सत छोड़या पत जाए, सत की छोड़ी लक्ष्मी फेर मिलेगी आए। आओ नहा धोकर आंवले दान करें और भोजन करें। राजा-रानी ने आंवले दान करके खाना खाया और खुशी-खुशी जंगल में रहने लगे। उधर आंवला देवता का अपमान करने व माता-पिता से बुरा व्यवहार करने के कारण बहू बेटे के बुरे दिन आ गए। राज्य दुश्मनों ने छीन लिया दाने-दाने को मोहताज हो गए और काम ढूंढते हुए अपने पिताजी के राज्य में आ पहुंचे। उनके हालात इतने बिगड़े हुए थे कि पिता ने उन्हें बिना पहचाने हुए काम पर रख लिया। बेटे बहू सोच भी नहीं सकते कि उनके माता-पिता इतने बड़े राज्य के मालिक भी हो सकते है सो उन्होंने भी अपने माता-पिता को नहीं पहचाना। एक दिन बहू ने सास के बाल गूंथते समय उनकी पीठ पर मस्सा देखा। उसे यह सोचकर रोना आने लगा की ऐसा मस्सा मेरी सास के भी था। हमने ये सोचकर उन्हें आंवले दान करने से रोका था कि हमारा धन नष्ट हो जाएगा। आज वे लोग न जाने कहां होगे?
यह सोचकर बहू को रोना आने लगा और आंसू टपक टपक कर सास की पीठ पर गिरने लगे। रानी ने तुरंत पलट कर देखा और पूछा कि, तू क्यों रो रही है? उसने बताया आपकी पीठ जैसा मस्सा मेरी सास की पीठ पर भी था। हमने उन्हें आंवले दान करने से मना कर दिया था इसलिए वे घर छोड़कर कहीं चले गए।
  तब रानी ने उन्हें पहचान लिया। सारा हाल पूछा और अपना हाल बताया। अपने बेटे-बहू को समझाया कि दान करने से धन कम नहीं होता बल्कि बढ़ता है। बेटे-बहू भी अब सुख से राजा-रानी के साथ रहने लगे। हे भगवान, जैसा राजा रानी का सत रखा वैसा सबका सत रखना। कहते-सुनते सारे परिवार का सुख रखना। बस यही कामना है।

एक अन्य कथा के अनुसार एक बार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य भिक्षा मांगने एक कुटिया के सामने रुके। वहां एक बूढ़ी औरत रहती थी, जो अत्यंत गरीबी और दयनीय स्थिति में थी। शंकराचार्य की आवाज सुनकर वह बूढ़ी औरत बाहर आई। उसके हाथ में एक सूखा आंवला था।
वह बोली महात्मन मेरे पास इस सूखे आंवले के सिवाय कुछ नहीं है जो आपको भिक्षा में दे सकूं। शंकराचार्य को उसकी स्थिति पर दया आ गई और उन्होंने उसी समय उसकी मदद करने का प्रण लिया। उन्होंने अपनी आंखें बंद की और मंत्र रूपी 22 श्लोक बोले। ये 22 श्लोक कनकधारा स्तोत्र के श्लोक थे।
मां लक्ष्मी ने दिव्य दर्शन दिए इससे प्रसन्न होकर मां लक्ष्मी ने उन्हें दिव्य दर्शन दिए और कहा कि शंकराचार्य, इस औरत ने अपने पूर्व जन्म में कोई भी वस्तु दान नहीं की। यह अत्यंत कंजूस थी और मजबूरीवश कभी किसी को कुछ देना ही पड़ जाए तो यह बुरे मन से दान करती थी। इसलिए इस जन्म में इसकी यह हालत हुई है। यह अपने कर्मों का फल भोग रही है इसलिए मैं इसकी कोई सहायता नहीं कर सकती।
शंकराचार्य ने देवी लक्ष्मी की बात सुनकर कहा- हे महालक्ष्मी इसने पूर्व जन्म में अवश्य दान-धर्म नहीं किया है, लेकिन इस जन्म में इसने पूर्ण श्रद्धा से मुझे यह सूखा आंवला भेंट किया है। इसके घर में कुछ नहीं होते हुए भी इसने यह मुझे सौंप दिया। इस समय इसके पास यही सबसे बड़ी पूंजी है, क्या इतना भेंट करना पर्याप्त नहीं है। शंकराचार्य की इस बात से देवी लक्ष्मी प्रसन्न हुई और उसी समय उन्होंने गरीब महिला की कुटिया में स्वर्ण के आंवलों की वर्षा कर दी। आवंला हमारे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए एक महत्वपूर्ण खाद्य पदार्थ है जो हमारी बुद्धि बल याददाश्त पेट, मर्दाना शक्ति को बनाये रखने के  साथ साथ शरीर को सुंदर काया का रूप बनाये रखने में एक बरदान साबित होता है।

आशुतोष गौड़आग्नेयास्त्र

जीतमणि पैन्यूली

ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,ॐ नमः शिवाय,

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