उत्तरकाशी, (पहाड़ो की गूंज ) कौशल प्रदेश जिसकी स्थापना वैवस्वत मनु महाराज जी ने की थी, जो कि पवित्र पावन सरयू नदी के तट पर स्थित है। सुन्दर रमणीय एवं समृद्धशाली श्री अयोध्या नगरी इस प्रदेश की राजधानी है। वैवस्वत मनु के वंश में अनेक महाशूरवीर, महापराक्रमी, बहुआयामी प्रतिभाशाली तथा रणवीर यशस्वी‐ तेजस्विता से परिपूर्ण राजा महाराजाधिराज उत्पन्न हुये थे, जिनमें से चक्रवर्ती महाराजा दशरथ जी भी सर्वोपरि राजाओं में एक थे। राजा दशरथ जी वेदों के मर्मज्ञ, धर्म-परायण, दयालु, रणकुशल, परोपकारी, प्रजापालक, न्यायप्रिय और सर्वोपरि प्रजा हितैषी थे। उनके राज्य में प्रजा कष्टरहित, सत्यनिष्ठ एवं ईश्वर की अनन्य भक्त थी, उनके राज्य में किसी का किसी के भी प्रति द्वेषभाव का (कोरोना के बचाव के लिये रोज सुबह शाम पढ़ें )सर्वथा अभाव था।
एक दिन दर्पण में अपने कृष्णवर्ण केशों के मध्य एक श्वेत रंग के केश को देखकर महाराज दशरथ जी गहन चिंतन की मुद्रा में बैठ कर विचार करने लगे कि अब मेरे यौवन के दिनों का अंत निकट है और अभी तक मैं निःसंतान हूँ। मेरा वंश आगे कैसे बढ़ेगा तथा किसी उत्तराधिकारी के अभाव में इस राज्य का क्या होगा ? इस प्रकार नाना प्रकार के आत्मविभोर विचारोत्तेजक कोई आशाप्रद सन्तुष्टि न होने के फलस्वरूप पुत्र प्राप्ति हेतु अपने कुलगुरु व महर्षि वशिष्ठ जी की शरणागति में जाकर अपने मन्तव्य को अभिव्यक्त करके हितोंपरि उचित विधान बताने की प्रार्थना करने लगें, वह उनके धर्मगुरू एवं धार्मिक मंत्री भी थे, उनके सारे धार्मिक अनुष्ठानों की अध्यक्षता करने का अधिकार केवल धर्मगुरु को ही था। उनके विचारों को उचित तथा युक्तियुक्त जान कर गुरु वशिष्ठ जी बोले, “हे राजन्! पुत्रकामेष्ठि यज्ञ करने से अवश्य ही आपकी मनोकामना पूर्ण होगी ऐसा मेरा विश्वास है। अतः आप शीघ्रातिशीघ्र पुत्रकामेष्ठि यज्ञ एवं अश्वमेध यज्ञ करने के लिये एक सुन्दर श्यामकर्ण अश्व छोड़ने की व्यवस्था करें।” गुरु वशिष्ठ जी की मन्त्रणा और आज्ञानुसार शीघ्र ही महाराज दशरथ जी ने श्रृंगी ऋषि को यज्ञ के लिए आमंत्रित किया और उत्तरी तट पर सुसज्जित एवं अत्यन्त मनोरम यज्ञशाला का निर्माण करवाया तथा मन्त्रियों और सेवकों को सारी व्यवस्था करने की आज्ञा दे कर महाराज दशरथ जी ने राजमहल में जाकर अपनी तीनों रानियों देवी कौशल्या जी, कैकेयी जी और सुमित्रा जी को यह शुभ समाचार सुनाया, महाराज के वचनों को सुन कर सभी रानियाँ अतिशय प्रसन्न हो गईं।*
*मन्त्रीगणों तथा सेवकों ने महाराज की आज्ञानुसार श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छुड़वा दिया। महाराज दशरथ जी ने देश देशान्तर के मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये बुलावा भेज दिया, निश्चित समय आने पर समस्त अभ्यागतों के साथ महाराज दशरथ जी अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा अपने परम मित्र अंग देश के अधिपति लोमपाद के जामाता श्रृंगी ऋषि लेकर यज्ञ मण्डप में पधारे, इस प्रकार महान यज्ञ का विधिवत शुभारम्भ किया गया। सम्पूर्ण वातावरण वेदों की ऋचाओं के उच्च स्वर में पाठ से गूँजने तथा समिधा की सुगन्ध से सारा वातावरण महकने लगा, यज्ञ की पूर्णाहुति पर साक्षात अग्निदेव जी ने प्रकट होकर खीर (चरा) से युक्त पात्र को प्रसाद रूप में प्रदान किया है।*
*समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा करने के साथ यज्ञ की समाप्ति हुई, राजा दशरथ जी ने यज्ञ के प्रसाद खीर (चरा) को अपने महल में ले जाकर अपनी तीनों रानियों में वितरित कर दिया। प्रसाद ग्रहण करने के परिणामस्वरूप परमपिता परमात्मा की कृपा से तीनों रानियों ने गर्भधारण किया।*
*चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को जब पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य नारायण, मंगल, शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे, कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ जी की बड़ी रानी देवी कौशल्या जी के गर्भ से एक शिशु (पुत्ररत्न) का अवतरण (जन्म) हुआ जो कि श्यामवर्ण, अत्यन्त तेजोमय, परम कान्तिवान तथा अद्भुत सौन्दर्यशाली था। यह अतिश्योक्ति नहीं है कि नवजात शिशु को देखने वाले ठगे से रह जाते थे। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी के एक तथा तीसरी रानी सुमित्रा के दो यशस्वी और तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ।*
*सम्पूर्ण राज्य में आनन्दोत्सव उल्लासपूर्ण मनाया जाने लगा, महाराज के चार पुत्ररत्नों के जन्म की खुशियों में गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं, देवता अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। महाराज ने उन्मुक्त हस्त (हाथों) के द्वारा राजद्वार पर आये हुये भाट, चारण तथा आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों को दान दक्षिणा दी, पुरस्कार में प्रजाजनों को धन-धान्य तथा दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियाँ प्रदान किया गया, चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार महर्षि वशिष्ठ जी के द्वारा कराया गया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये हैं।*
*भगवान आदिदेव श्री आशुतोष काशी विश्वनाथ भोलेनाथ महादेव जी भगवती आदिशक्ति पार्वती जी से कहते हैं -*
*काक भुसुंडि संग हम दोऊ।*
*मनुजरुप जानइ नहिं कोई ॥*
*भावार्थ ÷*
*कागभुसुंडि और मैं दोनों वहाँ साथ-साथ थे, परंतु मनुष्य रूप में होने के कारण हमें कोई पहचान न सका।*
*यह सुभ चरित जान पै सोई ।*
*कृपा राम कै जापर होई ॥*
*भावार्थ ÷*
*प्रभु का यह अति पावन शुभ चरित्र वही जान सकता है, जिस पर श्रीराम जी की कृपा हो।*
*नामकरन कर अवसर जानी ।*
*भूप बोलि पठए मुनि ग्यानी ॥*
*भावार्थ ÷*
*भगवान का नामकरण संस्कार का समय जानकर राजा दशरथ ने ज्ञानी मुनि श्री वशिष्ठ जी को बुला भेजा था।*
*हम सभी जानते हैं कि विश्व में एकमात्र हिंदू समाज ही ऐसा है , जिसके अंतर्गत मनुष्य के जन्म के पहले भी संस्कार होता है, जीवनपर्यंत भी संस्कार होता है और मरणोपरांत भी संस्कार होता है। धरती पर आने के पहले गर्भाधान-संस्कार और मृत्यु के पश्चात अंत्येष्टि-संस्कार होता है। मनुष्य के पल-पल में गिर जाने का खतरा होता है, इसीलिए हमारे ऋषि-मुनियों ने हर मनुष्य के लिए संस्कार की सुलभता से युक्तसंगत सुचारु व्यवस्था की ताकि वह सही पथ पर सर्वदा अग्रसर हो सके। नामकरण संस्कार भी उन्हीं संस्कारों के अंतर्गत आता है।*
*जब वस्तु का निर्माण हो जाता है अथवा वस्तु पहले से उपलब्ध रहती है, उसके पश्चात ही उसका नामकरण होता है। जैसे पत्थर, पानी, पशु, पक्षी, पेड़-पौधे आदि सब पहले से मौजूद थे, लेकिन उनका नामकरण बाद में हुआ। ऐसा नहीं कि हम लोगों ने पहले नाम रखा पानी फिर पानी आदि और वस्तु का निर्माण हुआ। इसी प्रकार व्यक्ति जब माँ के गर्भ से बाहर निकल कर धरती पर जन्म लेता है, उसके पश्चात ही उसका नामकरण होता हैI*
*ऋषि वशिष्ठ कहते हैं -*
*जो आनंद सिंधु सुख रासी।*
*सीकर तै त्रैलोक सुपासी॥*
*सो सुखधाम राम अस नामा ।*
*अखिल लोक दायक विश्रामा॥*
*भावार्थ ÷*
*जो यह आनन्द के समुद्र और सुख की राशि हैं, जिस आनंद सिंधु के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उनका नाम राम है, जो सुख का भवन और संपूर्ण लोगों को शांति देने वाला है।*
*मेरे परम आराध्य अखिल कोटी ब्रह्माण्ड नायक जगतपिता जगदीश्वर करूणानिधान सूर्यवंशी 🌞 मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीरामचन्द्र जी के अवतरण (जन्म) के पहले से “राम” शब्द था। शिशु का नाम “राम” के रूप में हुआ। “राम” के जन्म के बाद “राम” शब्द नहीं आया था। इस तथ्य को सर्वदा स्मरण रखेंगे, तभी हम तुलसीदास वर्णित नाम-नामी प्रकरण को समझ पाएंगे, जब प्रभु श्रीराम जी ने स्वयंवर में शिव धनुष को तोड़ दिया था, उस समय ऋषि परशुराम जी आए थे, परशुराम जी को श्रीराम जी संबोधित करते हुए कहते हैं -*
*राम मात्र लघु नाम हमारा ।*
*परसु सहित पर नाम तुम्हारा ॥*
*”राम” शब्द मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम जी के अवतरण (जन्म) के पहले से था। श्रीराम जी की आयु से परशुराम जी की आयु काफी अधिक थी।*
*चक्रवर्ती महाराजा दशरथ जी और माता देवी कौशल्या के घर में अवतरित (जन्म) लेकर भी उन्होंने शिशु का नामकरण नहीं किया बल्कि महर्षि गुरु वशिष्ठ जी से रखवाया था, ठीक उसी प्रकार पूज्यपाद संत शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास जी के द्वारा रचित चरित्र तो प्रकाश में आ गया पर अभी उसका नामकरण नहीं हुआ है। उन्होंने इसकी व्याख्या को बहुत ही सुन्दर अवलोकित किया हैI*
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🙏 जय बटुकभैरव 🙏
केमुण्डा खाल में एक बार आकर शरीर शुद्ध कर एक वर्ष तक तरोताजा रहिए – पंडित अशोक शर्मा पुजारकामाख्या देवी आसाम के पुजारी🙏
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Uttarkashi, (Echo of the Hills) Kaushal Pradesh, founded by Vaivaswat Manu Maharaj, is situated on the banks of the holy river Sarayu. The beautiful, delightful and prosperous city of Ayodhya is the capital of this state. In the lineage of Vaivasvata Manu, many great warriors, mighty, multi-talented and Ranveer, full of glory and glory, King Maharajadhiraja was born, out of which Chakravarti Maharaja Dasharatha ji was also one of the most important kings. King Dashrath ji was a scholar of the Vedas, devout, kind, tactical, benevolent, prajapalak, justice-loving and above all a benevolent of the people. The people in his kingdom were trouble-free, honest and exclusive devotees of God, there was complete absence of any malice towards anyone in his kingdom.
One day, seeing in the mirror a white colored hair in the middle of his black hair, Maharaj Dasaratha sat in a deep contemplation and thought that now the end of my youthful days is near and I am still childless. How will my dynasty progress and what will happen to this state in the absence of any successor? In this way, as a result of not having any hopeful satisfaction, in order to get a son, after expressing his intention, he started praying to give proper legislation on the interests of his Vice-Chancellor and Maharishi Vashistha, he was also his religious teacher and religious minister. Only the religious leader had the right to preside over all their religious ceremonies. Knowing his thoughts as proper and reasonable, Guru Vashistha said, “O king! It is my belief that your wishes will definitely be fulfilled by performing Putrakameshthi Yagya. Therefore, at the earliest, you should arrange to release a beautiful Shyamkarna horse to perform Putrakameshti Yagya and Ashwamedha Yagya. According to the advice and orders of Guru Vashist ji, soon Maharaj Dashrath ji invited Rishi Shringi for the yajna and got a well-equipped and very beautiful yagyashala built on the north bank and by ordering the ministers and servants to make all the arrangements, Maharaj Dashrath ji built the palace. I went and narrated this good news to my three queens Devi Kaushalya ji, Kaikeyi ji and Sumitra ji, all the queens were very happy after hearing the words of the Maharaj.
The ministers and the servants got the Shyamkarna horse released along with the Chaturangini army as per the orders of the Maharaj. Maharaj Dashrath ji sent a call to the sages, ascetics, learned sages and Vedic scholars to get the yajna performed, when the appointed time came, Maharaj Dashrath ji, along with all the devotees, his guru Vashist ji and his best friend Anga country. The sage Shringi, the son-in-law of Lomapada, came to the yagya pavilion, thus the great yagya was duly inaugurated. The whole atmosphere reverberated with the recitation of the hymns of the Vedas and the whole atmosphere began to smell with the fragrance of Samidha.
* The yagya ended with a warm farewell to all the pundits, brahmins, sages, etc., by offering them proper money, grains, cows etc. King Dasharatha took the prasad of the yajna to his palace and took it to his three queens. distributed. As a result of accepting the prasad, by the grace of the Supreme Father, the three queens conceived.
* On the ninth date of Shukla Paksha of Chaitra month, when Surya Narayan, Mars, Saturn, Jupiter and Venus were sitting in their respective high places in Punarvasu Nakshatra, as soon as Cancer ascendant emerged, the womb of Goddess Kaushalya ji, the elder queen of Maharaj Dashrath ji. From this a child (Putratna) was born (born) who was black in color, very bright, supremely radiant and wonderfully beautiful. It is no exaggeration that those who saw the newborn were deceived. After this, two successful and brilliant sons were born to Queen Kaikeyi, one of Queen Kaikeyi and the third of Queen Sumitra in auspicious constellations and auspicious time.
In the whole state, the festival of joy was celebrated with gaiety, Gandharvas started singing and Apsaras danced in the joy of the birth of the four sons of Maharaja, the gods started showering flowers in their planes. The Maharaj, through unmukt Hasta (hands), gave donations to the Brahmins and the petitioners who came to the royal gate, giving bhat, barn and blessings, in the prize money and grains were given to the subjects and gems, ornaments and titles were given to the courtiers, the four sons The naming ceremony was done by Maharishi Vashistha and their names have been kept as Ramchandra, Bharat, Lakshmana and Shatrughna.
* Lord Adidev Shri Ashutosh Kashi Vishwanath Bholenath Mahadev ji says to Bhagwati Adishakti Parvati ji -*
* We do with Kaak Bhusundi.*
* Manujarup does not know anyone *
*meaning *
*Kagbhusundi and I were both there together, but being in human form, no one could recognize us.*
* This good character slept well.*
*Kripa Ram kai japar hoi *
*meaning *
* This very pure auspicious character of the Lord can be known only by those who have the blessings of Shri Ram ji.
* Know the opportunity by naming.*
* Bhoop Boli read, Muni Gyani *
*meaning *
Knowing the time of the naming ceremony of the Lord, King Dasharatha had called the wise sage Shri Vashistha.
We all know that Hindu society is the only one in the world, under which sanskars take place even before the birth of a human being, sanskars take place throughout life and sanskars take place even after death. Before coming to earth, there is a conception ceremony and after death the funeral rites take place. Human beings are in danger of falling every moment, that is why our sages and sages made a smooth arrangement for every human being with access to sanskars so that he can always move forward on the right path. The naming ceremony also comes under the same rites.
* When the object is manufactured or the thing is already available, only then it is named. Like stones, water, animals, birds, trees and plants, etc., all existed before, but they were named later. It is not that we first named water, then water etc. and the object was created. Similarly, when a person comes out of the mother’s womb and takes birth on earth, only after that he is named.
*Sage Vashistha says -*
*Joe Anand Sindhu Sukh Rasi.*
*Sikar Tai Trilok Supasi*
*So Sukhdham Ram as Nama.*
*Akhil Lok Dyak Vishram*
*meaning *
*Who is this ocean of joy and the amount of happiness, from which one particle of the Indus bliss makes the three worlds happy, his name is Rama, who is the house of happiness and the giver of peace to all the people.
* * My most adorable Akhil Kotai universe hero Jagadishwar Karunanidhan Suryavanshi Om Maryada Purushottam Lord Shri Ramchandra ji had the word “Ram” before the incarnation (birth). The child’s name was pronounced as “Rama”. The word “Rama” did not come after the birth of “Rama”. We will always remember this fact, only then we will be able to understand the well-known episode described by Tulsidas, when Lord Shri Ram ji broke the Shiva bow in Swayamvar, at that time sage Parashuram ji had come, addressing Parashuram ji as Shri Ram. Huh -*
* Ram is our only short name.*
* With Parasu but your name *
* The word “Ram” was from before the incarnation (birth) of Maryada Purushottam Lord Shri Ram. The age of Parashuram ji was much more than the age of Shri Ram ji.
Even after incarnating (born) in the house of Chakravarti Maharaja Dashrath ji and Mother Goddess Kaushalya, he did not name the child but got it kept by Maharishi Guru Vashistha, in the same way the character composed by the revered saint Shiromani Goswami Tulsidas ji came to light. Gaya but it has not been named yet. He has very beautifully observed its explanation.
respectively