गढ़वाल की धरती राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत वीर भोग्य भूमि रही है. समय- समय पर इस धरती पर अनेक समाज सेवियों ने जन्म लेकर न सिर्फ समाज में व्याप्त कुरीतियों को मिटाने के लिए डटकर मुकाबला किया बल्कि उन कुरीतियों को जड़ से समाप्त करने का संकल्प भी व्यक्त किया. उन्हीं समाज सेवियों के अथक प्रयासों से समाज में व्याप्त अनेक कुरीतियों को मिटाया जा सका है. अपनी मजबूत इच्छा शक्ति के चलते ऐसे समाज उत्थान कर्ताओं ने जीवन में कभी हार नहीं मानी तथा आने वाली पीढ़ियों को भी जीवन जीने की नई राह बतायी है. समाज उत्थानक ऐसे समाज सेवी जीवनभर न सिर्फ दु खी- पीड़ित वर्ग के हक की लड़ाई लड़ते रहे बल्कि सामाजिक न्याय को ही अपना धर्म बनाया. गढ़वाल की माटी में जन्में सामाजिक क्रांति के अग्रदूत बलदेव सिंह आर्य भी उन समाज सेवियों में से एक थे जिन्होंने सामाजिक क्रांति के लिए न सिर्फ आवाज बुलंद की बल्कि समाज में दलित और पीड़ित वर्ग के हक में न्याय की लड़ाई लड़ी.
सामाजिक क्रांति के अग्रदूत रहे बलदेव सिंह आर्य का जन्म 12 मई 1912 को उत्तराखंड राज्य के जिला पौड़ी गढ़वाल के विकास खण्ड दुगड्डा के अन्तर्गत पट्टी सीला ग्राम उमथ में हुआ था. उनकी माता का नाम विश्वम्भरी देवी तथा पिताजी का नाम दौलत सिंह था. काफी समय तक कोटद्वार में भी निवास किया. बलदेव सिंह आर्य स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, जनप्रतिनिधि, समाज सेवी तथा मूल रूप से गांधी विचारक थे. सन् 1930 से जीवनप्रर्यन्त गांधीजी के विचारों से आत्मसात् करते हुए समर्पित भाव से कमजोर तथा दलित वर्ग के उत्थान के लिए कार्य करते रहे. आपकी नजर में हर वो व्यक्ति शोषित, दलित तथा कमजोर था जिसके अधिकारों पर एक खास वर्ग कब्जा करके बैठा था. सन् 1930 में ब्रिटिश शासन काल में राजद्रोहात्मक भाषण देने के कारण डेढ़ साल की सजा हुई. सन् 1932 में यमकेश्वर में राज अवमानना में पुनः गिरफ्तार हुए तथा छः महीने की कठोर सजा के साथ ही जुर्माना भी लगाया गया. स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के कारण 1941 में नजरबंद किये गये. उस समय पर्वतीय क्षेत्रों में एक कुप्रथा व्याप्त थी, शिल्पकारों की बारात वर- वधू सवर्णो के गांव के बीच से डोला- पालकी के साथ नहीं गुजर सकता थी. गांव के बीच में वर और वधू को पैदल ही जाना पड़ता था. जिसका शिल्पकार समाज द्वारा विरोध किया जा रहा था. श्री आर्य ने शिल्पकार समाज के इस सामाजिक अधिकार को दिलाने में सक्रिय भूमिका निभाई. उन्होंने 1941 में शिल्पकार समाज के मानवीय अधिकार को दिलाने के लिए डोला- पालकी आन्दोलन को वृहद स्वरूप प्रदान किया गया. उन्होंने गांधीजी से शिल्पकारों के अधिकार को दिलाने के लिए हस्तक्षेप करने की मांग की तथा वे इस मुद्दे को प्रदेश और राष्ट्रीय स्तर तक ले गये. उनकी मुखरता को देखते हुए राष्ट्रीय स्तर पर ऐसे कृत्यों की तीव्र निन्दा की गयी तथा शिल्पकारों के सामाजिक अधिकारों को दिलाने के लिए कानून बना. शोषित समाज को वापस उसके सामाजिक अधिकार प्राप्त हुए. उनकी पहल पर सेठ डालमिया ने गढ़वाल में 17 स्कूल खुलवाये जिनका व्यय भार उन्होंने स्वयं वहन किया. बाद में इन स्कूलों को सरकार ने अधिग्रहित किया. सन् 1950 में प्राविजनल पार्लियामेंट के सदस्य मनोनीत हुए. प्रथम आमचुनाव में गढ़वाल से उत्तर प्रदेश विधानसभा के लिए चुने गये. बाद के वर्षों में 1957, 62, 74, 80, 85 के चुनावों में विधानसभा के सदस्य तथा 1968 से 1974 तक विधान परिषद के सदस्य रहे. 1952 से पंडित गोविन्द बल्लभ पन्त के मुख्यमंत्री काल से लेकर उत्तर प्रदेश में गठित सभी कांग्रेस सरकारों में मंत्रीमंडल में शामिल रहे. उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा नियुक्त कोल्टा जांच समिति के अध्यक्ष, 1967 में यूपीसीसी के महामंत्री, वर्षों तक एआईसीसी के सदस्य, वनों की समस्या के निराकरण एवं निरुपण समिति के सदस्य, अखिल भारतीय हरिजन सेवक संघ के उपाध्यक्ष आदि कई राज्यस्तरीय एवं राष्ट्रीय स्तर की समितियों से जुड़े रहे. 22 दिसम्बर 1992 को सामाजिक क्रांति का यह अग्रदूत पंचतत्व में विलीन हो गया.