*गृहणी*
गृहणी बहुत ही मामूली सा शब्द है ; पर इसका अर्थ बहुत ही खास है-“सारा घर जिसका ऋणी है वह गृहणी है”। शास्त्र बचन भी है- *”न गृहं गृहमित्याहुगृहिणी गृहमुच्यते”* अर्थात- “घर को घर नहीं कहते गृहणी को ही घर कहते हैं” । ईंट-पत्थर की इमारत से घर नहीं बनता है । घर की छत जो गर्मी , जाड़े तथा वर्षा में तुम्हारी रक्षा करती है , उसके गुण-दोषों का विचार उन खम्भों से , जिनके सहारे वह खड़ी हुई है नहीं हो सकता , चाहे वे कितने ही सुन्दर शिल्पमय खम्भे क्यों न हों , उनका निर्णय होगा घर के केन्द्रस्थानीय उस चैतन्यमय वास्तविक खम्भे “नारी” से जो घर का वास्तविक मर्म-स्तम्भ है , सबका केन्द्र है , घर का वास्तविक अवलम्बन है , घर की रौनक है , घर की शान्ति है , घर की चारदीवारी है , घर की संरक्षक है , गृहलक्ष्मी है , अन्नपूर्णा है , जीवन- परिवार व समाज में खुशहाली है । घर में चाहे दस कमरे हों , पर सबसे ज्यादा रौनक उस कमरे में होती है जहां गृहणी है । पत्नी गृहस्थाश्रम में एक सर्वश्रेष्ठ और सर्वप्रधान वस्तु है । गृहणी के बिना गृहस्थ ही नहीं । जिसके घर में गृहणी मौजूद है उसके यहां सर्वस्व है उसे किसी चीज की कमी ही नहीं और जिसके गृहणी ही नहीं उसके है ही क्या ? पत्नी के साथ रिश्ता भले ही एक होता है पर एक ही रिश्ते से वो कई रिश्ते निभाती है ।स्त्री गृहस्थ कार्यों में मंत्री है , सेवा करने में दासी है , भोजन करने में माता के समान है , धर्म के कार्यों में अर्धांगिनी है , क्षमा में पृथ्वी के समान है । गृहणी प्रबन्धन की विशेषज्ञ होती है , वह अपने परिवार के मानव संसाधन , वित्त-विपणन और जनसम्पर्क से जुड़े मामलों को संभालती है । स्त्री पुरुष के पीछे हो तो सम्मान दिलाती है, स्त्री पुरुष के आगे हो तो ढाल बनती है , स्त्री पुरुष के बराबर हो तो हर कदम पर साथ निभाती है । नारी पुरुष के लिए शक्ति का एक उत्स है , नारी पुरुष के लिए मृदुता की शिक्षक है , वह मनुष्य को नैतिक ऊंचाइयों तक विकसित होने में सहायता पहुंचाती है- वह मानव जीवन की पोषक शक्ति है- नारी पुरुष की संरक्षक है , रक्षक है , वह मित्र बन जाती है , जब पति उदास होता है । नारी सृष्टि का चमत्कार है , वह जीवन के उद्यान में सर्वत्र सौन्दर्य एवं सुगन्ध बिखराने वाला खिला हुआ पुष्प है । वह अपनी सुखद मुस्कानों , मीठी बातों और सहज भाव-भंगिमाओं से हमारे घरों को खुशियों से आलोकित रखती है । पत्नी जिन्दगी के ऐसे मोड़ पर साथ देती है , जहां दूर तक अपना कोई नहीं होता और जब इस जगत से विदाई का समय आ जाता है तो, नारी का अस्तित्व दु:ख को कम करने के साथ-साथ आत्मा में आशाप्रद पूर्ण सुखद-शान्ति प्रदान करता है । अर्थात- “गृहस्थ के लिए गृहणी ही सर्वस्व है” । अतः यह शास्त्र-वाक्य कहां गलत है कि- “घर को घर नहीं कहते गृहणी को ही घर कहा जाता है” ? और यह कितना सत्य है , यह वही जानता है जो नारी-विरह के इस महान दंश को झेल चुका होता है । अतः सभी का परम कर्तव्य है , परम धर्म है कि वह अपनी भार्या का सम्मान करें , व प्राण-पण से सर्वतोभावेन उनकी रक्षा करें । हमारे धर्म गुरु आदि शंकराचार्य ज्योतिर्मठ, द्वारिका पीट
स्वामी श्री स्वरूपानंद सरस्वती हिंदू धर्म की रक्षा करने के लिए घर घर की गृहणी का सम्मान बनाये रखने के लिए ,सभी को मातृ शक्ति का सम्मान करने के लिए अपने उपदेश में कहते हैं। जहाँ नारी की पूजा सम्मान होता हैं वहाँ देवताओं का वास होता है।वह सभी प्रकार के सुख की अनुभूति होती है।